सुरसरिता सी पावन कुटिया
तेज पुंज से ज्यों दमके l
सौम्य वेश में वह तनया
भारत के मस्तक पर चमके ll 17 ll
कुरु समाज में दुखी सभी
भीष्म द्रोण औ' कृप भी थे l
किंतु द्रौपदी वस्त्र हरण
इन लोगों ने भी देखे थे ll 18 ll
बारह वर्षो का जटिल समय
षड़यंत्र पनपते बीत गया l
अपने - अपने को सब रोते
कौन महारण जीत गया ll 19 ll
पांडव ने निर्णय तुरत लिया
राजा विराट के यहाँ चलें l
प्रत्येक रूप को बदलेगा
अनभिज्ञ रहें और वहाँ पलें ll 20 ll
भीम, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर
ने वही कार्य और गुण पाया l
किन्तु पार्थ ने अपने को
स्त्री का चोला पहनाया ll 21 ll
श्राप युक्त हो यदि जीवन
तो दण्ड स्वयं ही सहता है l
जो लिखे विधाता निश्चय ही
कष्टों में जीव महकता है ll 22 ll
अज्ञातवास में जब अर्जुन
नृत्य सिखाते थे उसको l
मन बार -बार शंकित होता
संदेह जगाते थे उसको ll 23 ll
शंका कितनी घातक होती
उत्तरा पुनः थी सोच रही l
कुछ अनजाना सा तत्व लिए
वह बार-बार मन खोज रही ll 24 ll
नारी मन नारी होता है
नारी में कुछ पुरुषोचित क्यों?
पुरुषों के जैसा अहं भाव
नयनों कुछ विकटोचित क्यों? 25?
नारी की मृदुल अव्यक्त हंसी
नयनों में लज्जा का वरण भाव l
खो गया पता है नहीं कहां?
सब कुछ कहने का अनकहा चाव ll 26 ll
नारी वह नारी कैसी है
जिसमें ममता का दाह नहीं l
नारी के कितने रूप प्रकट
उनमें कोई भी चाह नहीं ll 27 ll
त्रुटियां मुझसे जब होती हैं
आँखों से क्रोध बरसता है l
अंगारों सी जलती ऑंखें
जल किंचित नहीं सरसता है ll 28 ll
फिर नारी में उग्र भाव
तत्क्षण ही कैसे जाग गया?
क्रोधित नारी के मन से क्यों
ममता का पक्षी भाग गया ll 29 ll
नारी धरती का रूप लिए
पोषण सबका कर पाती है l
हरित वर्ण है रत्न गर्भ
सबको धनवान बनाती है ll 30 ll
कोमल होती है वसुंधरा
कोमलता है अभिशाप नहीं l
चपला भी हो यदि द्रुतगामी
खिल जाती है पर श्राप नहीं ll 31 ll
मुख पर छिपी घृणा कभी
दुःख तिरता सा रहता है l
प्रकट कभी कुछ लगने सा
क्षणिक रहे पर सहता है ll 32 ll
उस दिन जब नृत्य सिखाती थी
अंगुलि मृदंग पर भारी थी l
लगता था चपला द्रुतगामी
तीव्र चले ज्यों आरी थी ll 33 ll
ऐसा विकट स्वरूप किसी
नारी का कैसे हो सकता?
विश्वास नहीं संदेह किन्तु
सम्भव क्या वैसे हो सकता ll 34 ll
सोच रही हूँ पूछूँ क्या !
यह छद्म रूप कैसा तेरा?
तू वृहन्नला या और कोई
छल मेरे सम्मुख ऐसा तेरा ll 35 ll
किन्तु नहीं यह घोर पाप
फैलेगा मेरे नस-नस में l
शिक्षा में उपजा कपट वेश
है क्षमित किन्तु किसके वश में ll 36 ll
आकृष्ट हुई हूँ फिर क्यों मैं?
इतना उन्माद जगा मन में l
नर के प्रति तो नारी का
कैसा यह रुग्ण लगा मन में ll 37 ll
मेरे इन कम्पित पलकों में
दृश्य व्यक्त परिचित होता l
कोकिल रातों के गीत मधुर
हृदयों में प्रेम नमित होता ll 38 ll
आँखों से निद्रा उड़ जाती
मुखड़ा जब सम्मुख रहता है l
अनभिज्ञ मनों के रूप पृथक
संकेत अनोखे सहता है ll 39 ll
चाहे कुछ हो यह अमिट सत्य
है मेरे मन में गड़ा हुआ l
यह वृहन्नला है अन्य कोई
पलकों में जैसे अड़ा हुआ ll 40 ll
पुरष कोई इतने सुन्दर
यदि नारी जैसे लगते हैं l
तो कोई और नहीं हैं वह
अर्जुन ही ऐसे लगते हैं ll 41 ll
यदि वृहन्नला अर्जुन होंगे
तो इतना मैं कह सकती हूँ l
जीवन के अंतिम पल तक मैं
सँग उनके ही रह सकती हूँ ll 42 ll
इस रहस्य का सार किन्तु
मैं कैसे अभी बता सकती?
पांडव दल की स्वेद राशि को
असफल नहीं बना सकती ll 43 ll
लाक्षागृह में अग्नि देव ने
रक्षा कर प्राण बचाये थे l
मार्गों में कंटक पुष्प बने
जो मेरे गृह में आये थे ll 44 ll
इनका जीवन सौभाग्य बने
इच्छा मेरी प्रतिपल यह है l
अन्याय किया दुर्योधन ने
निर्णय इनका निश्छल यह है ll 45 ll
विवश रहे यदि छद्म करे
अन्याय नहीं कहलाता है l
परवशता दास बनाए तो
शोषित ही जन को भाता है ll 46 ll
अंतर्द्वन्द चल रहा था
निरुत्तर से मन व्याकुल था l
असमंजस था संदेह अधिक
आँखों में झंझाकुल था ll 47 ll
.......शेष अगले सर्ग में l