shabd-logo

तृतीय सर्ग

9 जून 2022

17 बार देखा गया 17

नृप विराट के यहाँ एक

कीचक अभिमानी रहता था l

हर नारी में मन रमता था

व्यभिचारी जैसा दिखता था ll 48 ll

आँखों में उसके प्रतिपल

वासना ही नाचा करती थी l

भोजन, निद्रा औ' व्यर्थ युद्ध

जीवन में उसकी करनी थी ll 49 ll

दुष्ट व्यक्ति दुष्टता करें

वाचाट कुतर्की निंदक हैं  l

बुद्धि तर्क और ज्ञान सभी

जलते दीपक से चिंतक हैं ll 50 ll

चरित्रहीन यदि पुरुष नहीं

नारी कैसे हो जाएगी ?

आकाश बूँद न बरसाए

क्या धरा सिक्त हो पाएगी? ll 51 ll

जो व्यक्ति कुकर्मी कर्म करें

उनके सब कर्म निरर्थक हैं l

दण्डित करने के हेतु उन्हें

उचित और सब अर्थक हैं ll 52 ll

दासी समझ द्रौपदी को

तब बाहुपाश कसना चाहा l

गिद्धों का तीव्र झुण्ड जैसे

उस नभचर को ग्रसना चाहा ll 53 ll

बाध्यता नहीं यदि जीवन में

अधिकार सभी अपने होते l

तिनके-तिनके के लिए जीव

सम्मान सभी अपने खोते ll 54 ll

जीवन में दुःख चाहे जितना

साहस फिर भी तो होता है l

धागा टूटे चाहे कोई

पर छोर वही तो होता है ll 55 ll

हे ! अधम नीच, हे ! पापी तू

तू मुझको नहीं जानता है l

हूँ कौन यहाँ मैं कैसे हूँ?

तू इसको नहीं मानता है ll 56 ll

अट्टहास कर बोल पड़ा

अभिमानी छाती तान रहा l

रे ! दासी तू क्या बोल रही

ये राज्य तुझे क्या मान रहा ll 57 ll

दासी तो दासी होती है

नारी होकर तू दासी है l

नारी पुरुषों की भोग वस्तु

क्या खोती है क्या पाती है ll 58 ll

दासी नारी का वह स्वरूप

टुकड़ों पर पल कर जीती है l

इच्छा अभिलाषा से हीन कृति

दुष्कर्म घड़ों को पीती है ll 59 ll

नारी को तूने क्या समझा?

वह शक्ति युक्त बलशाली है l

दुर्गा स्वरूप बन जाएगी

तुझ से दानव पर काली है ll 60 ll

तूने नारी का मन में जो

प्रतिबिम्ब बनाकर देखा है l

नागिन का डंक दण्ड बने

तेरे जीवन का लेखा है ll 61 ll

क्षणभर को तनिक सोच ले तू

यह कर्म नहीं सर्वोतम है l

आदर्श चरित्र बलशाली के

जीवन में कितना उत्तम है ll 62 ll

तेरे इन तर्क वितर्कों से

मेरा मन मुग्ध नहीं होगा l

व्यर्थ विवाद क्यों करती है?

तेरा भवितव्य यहीं होगा ll 63 ll

अब और प्रतीक्षा करूँ नहीं

अपनी इच्छा पूरी कर लूँ l

यह समय भोग विलासी है

जो मिल जाए झोली भर लूँ ll 64 ll

एक बार पुनः वह झपट पड़ा

द्रौपदी छिटकर दूर ख़डी l

हाथों से रोके उसके कर

यह कैसी विपदा आन पड़ी ll 65 ll

द्रौपदी पुनः समझाती थी

यह कर्म नहीं यह पाप कर्म l

अब भी तू रोक वासना को

यह धर्म नहीं यह पाप कर्म ll 66 ll

जब होती बुद्धि विनाश काल

तब धर्म कहाँ रह जाता है?

होते हैं सभी उपाय व्यर्थ

जब नीच समझ न पाता है ll 67 ll

व्यर्थ गई जब सभी युक्ति

एक युक्ति समझ में आई थी l

हीरा ही हीरे को काटे

यह युक्ति उसे तब भाई थी ll 68 ll

मिल सकती हूँ सुन मैं तुझसे

कपट वेश में वह बोली l

कुछ दिवस प्रतीक्षा करनी है

निर्णय कर दूंगी यह बोली ll 67 ll

षड्यंत्र किन्तु कैसे पनपा

वह समझ नहीं उसको पाया l

काली रातों के अंधकार ने

नर्क धाम को पहुंचाया ll 68 ll

कीचक का वध होते ही

पांडव दल विकराल हुआ l

भेदों के भेद प्रकट हुए

कुछ नहीं बचा जो ढाल हुआ ll 69 ll

कीचक का वध संकट बन कर

कौरव दल का काल बना l

दुर्योधन भय से शंकित था

उसके मन में संदेह घना ll 70 ll

संदेह सभी धो डालेगा

आक्रमण विराट पर कौरव का l

ऐसा विचार कर वीरों ने

प्रस्थान किया फिर रौरव सा ll 71 ll

युद्ध हुआ विकराल बहुत

विजय मिली पांडवो को

किन्तु विजय के पहले ही

सब भेद मिले थे अपनों को ll 72 ll

ब्राह्न्नला का झीन तंतु

हट गया सभी की आँखों से l

वह पौरुष भारत का जैसे

आ गया चीर कर बाहों से ll 73 ll

नृप विराट का विहवल मन

दीर्घ स्वप्न से भंग हुआ l

क्यों नहीं उत्तरा का परिणय

संयोग पार्थ के सँग हुआ ll 74 ll

उत्तरा चकित थी चित्रित सी

सुन समाचार जब परिणय का l

क्या पूर्व स्वप्न सत्य निकला

जीवन शोभित हो मणिमय का ll 75 ll

पहले नारी का वह स्वरूप

कितना कपटी मन पर छाया l

यह पुरुष रूप कैसा होगा?

है मन पर सभी विजय पाया ll 76 ll

अब कैसे मैं रह पाऊँगी

उनके सम्मुख पत्नी बनकर l

जो इतने दिन तक शिष्या थी

बन पाएगी कैसे सहचर ll 77 ll

शिक्षा का मोल नहीं कोई

यह श्वेत वर्ण चारित्रिक है l

छंद युक्त कविता जैसे

पूर्ण रूप ही मात्रिक है ll 78 ll

शिक्षा अल्हड़ ज्ञान पले

विद्वान ज्ञान की बात कहें l

शिक्षक चरित्र उज्ज्वल होता

जाने कितने वे त्रास सहें ll 79 ll

गुरु शिष्य का नाता तो

जगत विदित सन्यासी है l

दो ब्रह्मचर्य सा निर्मल मन

ईश्वर के जग का वासी है ll 80 ll

पर मेरा मन तो प्रेम युक्त

नयनों के जल सा निर्मल है l

प्रेम शुद्ध मन से हो तो

राधेकृष्णा भी उज्जवल है ll 81 ll

चाहे जो हो वे पिता मेरे

आदेश मानना धर्म मेरा l

यदि इच्छा उनकी यही सही

निर्वाह परिस्थिति कर्म मेरा ll 82 ll

अनुकूल परिस्थिति हर मन को

सूख देती है प्रतिकूलों में l

प्रतिकूल परिस्थिति में मन को

कांटे चुभते अनुकूलों में ll 83 ll

प्रस्ताव उत्तरा परिणय का

आया जब अर्जुन के सम्मुख l

बाहें कंपित तत्काल हुई

हो गए पार्थ विराटोन्मुख ll 84 ll

सम्भव यह कैसे हो सकता?

विवाह और शिष्या के सँग !

धर्म नीति है शेष अभी

नियम सभी कैसे हों भंग?ll 85 ll

हाँ कुछ विचार मेरे मन में

उचित और सर्वोत्तम है l

अभिमन्यु इसके पूर्ण योग्य

अब यह बंधन ही उत्तम है ll 86 ll

यह बंधन कैसे उत्तम हो !

क्या मेरा कुछ अधिकार नहीं?

नयनों में नीर भरे बोली

उत्तरा उन्हें स्वीकार नहीं ll 87 ll

जीवन तो है परावलम्ब

मन पर भारी यह बंधन है l

प्राणों को ज्ञान नहीं इतना

साँसो में कितना क्रंदन है? ll 88 ll

जिस पर शासित यह सभ्य तंत्र

जीवन में विकट निराशा है l

जो शोषित रहता है प्रतिपल

उसकी भी क्या अभिलाषा है ll 89 ll

अंकुरण प्रेम का भ्रमवश ही

जैसा भी हो स्वाभाविक था l

उपजी कैसी लहर किन्तु

खो गया वही जो नाविक था ll 90 ll

बस इसीलिए आकर्षित थी

उनके प्रति प्रेम अंकुरित था l

मैंने यह पाप किया है यदि

तो विश्व प्रेम  भी शंकित था ll 91 ll

यह मेरा कोई पाप नहीं

था मैंने जो संदेह किया l

पुरुष समझ मैंने अपना यह

ह्रदय उन्हीं को सौंप दिया ll 92 ll

वे नारी का रूप लिए

कितना बड़ा प्रपंच किया l

सत्य धर्म का चक्रव्यूह

अस्तित्व अकिंचन बांध दिया ll 93 ll

क्या मेरा कोई सत्य नहीं?

मैं अपने मन को मोड़ सकूँ l

मन पर तो अधिकार और

यह भौतिक बंधन तोड़ सकूँ ll 94 ll

कहते हैं मैं तो शिष्या हूँ

शिष्या पर अधिकार नहीं l

तब रीति स्वयंवर क्यों टूटी?

है सबको यह स्वीकार नहीं ll 95 ll

द्रौपदी स्वयंवर में कैसे

नियम धर्म सब भंग हुए l

विश्व धर्म के रखवाले

गन्धर्व रीति के सँग हुए ll 96 ll

कहाँ गए वे कृष्ण जिन्हें

अपनी पटुता पर मान बहुत l

राधेय सुत का पुत्र सत्य

सह गया किन्तु अपमान बहुत ll 97 ll

केवल उसकी थी त्रुटि इतनी

पुत्र बना रथ चालक का l

यह भेदभाव क्यों होता है

गर्भ पले उस बालक का ll 98 ll

अर्थ जाति सब जीवन के

जब भेदभाव बन जाते हैं l

अनर्थ, अकर्म, कुकर्म सभी

सब स्वार्थ भाव के नाते हैं ll 99 ll

प्रेम रहस्य तो गुप्त बना

कोई भी जान न पाया है l

यह मेरे मन का है रहस्य

यह कैसी अद्भुत माया है? ll 100 ll

वही कृष्ण यहाँ आते

प्रेमी को प्रेम बता जाते l

धर्म युद्ध जो जीतेगा

उसको मेरा मन दे पाते ll 101 ll

विश्वास किसे आ पाएगा

मेरा जो यह था प्रेम पला l

अब धर्म युद्ध में कौन कहाँ

कैसे-कैसे छल करे भला ll 102 ll

प्रकट करूँ यदि मैं इसको

तो जीवन बोझ बनाएगा l

जीवन भर संस्कारों में जीकर

दूषित आदर्श सतायेगा ll 103 ll

मन में होगा अविश्वास

और आँखों में संदेह गहन l

यह चरित्रहीन कितनी हीना

शिक्षा में करती प्रेम वहन ll 104 ll

यदि भेद खोल देती उस क्षण

सो जाते सारे स्वप्न बिंदु l

अज्ञातवास का श्रम-सीकर

मिल जाता जाने कौन सिंधु ll 105 ll

अभिमान नहीं था स्वाभिमान

जिसके सब अधिकारी हैं l

जिसमें यह भाव नहीं होता

वे कर्म हीन नर नारी हैं ll 106 ll

मैं स्वयं इसे पी जाउंगी

पर भेद नहीं खुल पाएगा l

सत्य जीत पर न्योछावर

यह प्रेम यहीं मिट जाएगा ll 107 ll

भविष्य हमारा कल होगा

उस कल की हमें प्रतीक्षा है l

मेरा यह जीवन जो खोया

इतिहास पृष्ठ की इच्छा है ll 108 ll

विदुर तपस्वी भीष्म तपस्वी

अर्जुन और कृष्ण भी हैं l

फलासक्ति में सब जीते

जीवन के आकर्षण ही हैं ll 109 ll

साधारण से साधारण जन

फल पाने को ही आते हैं l

इसी तपस्या के कारण

वे महापुरुष कहलाते हैं ll 110 ll

यह उससे दीर्घ तपस्या है

अभिशाप तुच्छ सा कैसे हो?

बलिदान स्वयं का नहीं घटित

कल्याण जगत का कैसे हो ll 111 ll


शेष अगले सर्ग में..............l

✍️ स्वरचित

अजय श्रीवास्तव 'विकल'

4
रचनाएँ
उत्तरा : एक खंडकाव्य l
0.0
उत्तरा : एक खंडकाव्य उत्तरा विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत का एक उपेक्षित स्त्री पात्र है l इस खंडकाव्य में उसके जीवन चरित्र के संबंध में कुछ उपेक्षित तत्वों को उकेरा गया है l उत्तरा महापराक्रमी अर्जुन की शिष्या के रूप में प्रस्तुत की गई l किन्तु महाभारत के युद्ध में पांडवो की विजय में उसका कितना योगदान था यह कोई नहीं जानता l इस खंडकाव्य में इसी तथ्य को बताने का अथक प्रयास किया गया है l इसके अतिरिक्त उसका विवाह जब अभिमन्यु के सँग हो जाता है तत्पश्चात अभिमन्यु की निर्मम हत्या पर उसके असीम दुःख को कौन सोचने वाला था, वह स्वयं l मानव के दुखों का संताप केवल उसी को होता है शेष तो सहानुभूति के आने जाने वाले पथिक की भांति होता है l आपके सम्मुख एक प्रयास है l ✍️ रचनाकार l अजय श्रीवास्तव 'विकल'
1

प्रथम सर्ग

4 जून 2022
3
1
0

नृप विराट की दुहिता वह,  निश्छल थी सुकुमारी थी l कली खिले ज्यों डाली में,  वह कली पिता को प्यारी थी ll 1 ll नित नए-नए रंगों से ज्यों,  नारी मन पुलकित होता है l मृग शावक सी भरती पग-पग,  क्या ज्ञात उ

2

द्वितीय सर्ग

5 जून 2022
0
0
0

सुरसरिता सी पावन कुटिया  तेज पुंज से ज्यों दमके l सौम्य वेश में वह तनया  भारत के मस्तक पर चमके ll 17 ll कुरु समाज में दुखी सभी  भीष्म द्रोण औ' कृप भी थे l किंतु द्रौपदी वस्त्र हरण  इन लोगों ने भी देख

3

तृतीय सर्ग

9 जून 2022
0
0
0

नृप विराट के यहाँ एक कीचक अभिमानी रहता था l हर नारी में मन रमता था व्यभिचारी जैसा दिखता था ll 48 ll आँखों में उसके प्रतिपल वासना ही नाचा करती थी l भोजन, निद्रा औ' व्यर्थ युद्ध जीवन में उसकी करनी थी ll

4

चतुर्थ एवं पंचम सर्ग

10 जून 2022
0
0
0

पांच गांव का सन्धिपत्र कौरव दल में विफल हुआ l युद्ध विकल्प ही शेष रहे पांडव दल में सफल हुआ ll 112 ll युद्ध भूमि में अर्जुन का रथ वासुदेव जब ले आए l संबंधों के उस मोह जाल से आँखों में जल भर लाए ll 113

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए