*धूमिल
चाँद*
हिन्दुस्तान भवन का
हॉल पूरा भरा हुया था | हर स्टाल पर महिलाओं की भीड़ उमड़ी हुई थी | कुछ पत्रकार
फोटो क्लिक करने में लगे थे | मोतियों से बने सुन्दर-सुन्दर मंगलसूत्र..पायल..कई
लड़ियों वाली माला..झुमके..अंगूठियाँ आदि आकर्षण के केन्द्र बने
हुए थे | ‘महिला
शक्ति संगठन’ की सभी कार्यकर्ता हर स्टाल पर बड़ी मुस्तैदी से
खड़ी बता रहीं थीं कि किस तरह महिला बंदियों ने उसे बनाया था और इनसे होने वाली
आमदनी उनकी और उनके बच्चों की बेहतरी के लिए खर्च की जायेगी | सभी महिलाएँ बड़ी
उत्सुकता से सुन रहीं थीं और कुछ ना कुछ खरीद रहीं थी हलाकि उनके दाम कुछ ज्यादा
थे पर सभी खुशी-खुशी उन्हें खरीद कर उनके इस नेक कार्य में साझीदार बन रहीं थीं |
तभी एक कार्यकर्ता चहक
कर बोल उठी “मैम आ गयीं |”
सभी की निगाहें सामने
की ओर उठ गयीं | काली तांत की साड़ी,
फुलस्लीव ब्लाउज, गले में सफ़ेद मोतियों की माला कान में भी सुन्दर से सफ़ेद मोतियों
के छोटे-छोटे बूंदें, सुन्दर गोरी कलाई में काले पट्टे की घड़ी और इंदिरा गांधी कट
बाल और चेहरे पर सौम्यता के भाव, बेहद आकर्षक और प्रभावशाली व्यक्तित्व की मलिका
थीं ‘महिला
शक्ति’
की अध्यक्षा | सभी पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया था | उनके चेहरे पर सलोनी मुस्कान
थी और जुबां पर पत्रकारों के पूछे गए सवालों के विनम्र जवाब | पूरा हॉल थोड़ी देर
के लिए ज्वेलरी को छोड़ उधर ही देखने लगा था | थोड़ी देर बाद ही वह भी स्टालों पर जा
कर सभी महिला खरीदारों से मुखातिव हो रहीं थीं | जैसे-जैसे दिन ढलता जा रहा था
स्टाल खाली होते जा रहे थे | अगले ही दिन गोवा जाने वाली फ्लाईट से आकाश में उड़ान
भर रही थी वह |
*
वह होटल की खिड़की पर खड़ी अपने सामने फैले हुए विशाल समंदर को देख रही है | समंदर
की उठती-गिरती लहरें और उसके किनारे धूप सेंकते लोग, कुछ प्रेमी जोड़े लहरों के साथ अठ खेल ियँ कर
रहे हैं तो कुछ गीली रेत में अपने पाँवों के निशान बनाते हुए हाथों में हाथ डाले
चल रहे हैं | उनसे नज़र हटा कर वह फिर से समंदर देखने लगती
है.| अचानक समंदर में उठता झाग उसके मन में समाता चला जाता है और वह अपने अतीत के
खारे पानी में डूबने उतराने लगती है |
उसे याद आता है कि अम्मा-बाबू उसे कितना लाड़ करते थे, उसके लिए क्या-क्या सपने
देखते थे | बाबू एक किसान थे | उनके बहुत जमीन तो नहीं थी; पर कुछ कम भी नहीं थी |
आय का जरिया वही खेती से उपजा अन्न ही था | जिस वर्ष गन्ने की फसल अच्छी हो जाती
उस वर्ष अच्छी खासी आमदनी हो जाती | गेहूँ और धान भी अपनी जरूरत भर रख कर बेच देते
थे बाबू | अच्छा खासा खुशहाल जीवन जी रहे थे हम सब | अम्मा जब कभी कुल के चिराग के
लिए दुखी होती तब बाबू कहते-
“है ना अपनी वैदर्भी !
हमारे कुल का चिराग ! यही पढ-लिख कर कुल का नाम रोशन करेगी |” सुन कर अम्मा खुश हो जाती |
हमारा और शन्नो बुआ का घर गाँव में आस-पास ही था | अम्मा और शन्नो बुआ में खूब
बनती थी | घर का काम खत्म कर जब-तब अम्मा मुझे अपने साथ ले कर उनके घर चली जाती,
फिर दोनों घंटों बैठ कर बतियाते हुए भीगी मूज चीरती, रंग-बिरंगे रंगों में रंगतीं
और उनसे सुन्दर-सुन्दर बेल-बूटे उकेरते हुए डलिया,मउनी बीनतीं | उनका बेटा रवि
पढाई का कीड़ा था | उसे पढ़ने के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था | शन्नो बुआ के पास
पुरुखों की छोड़ी हुई बहुत जमीन-जायदाद थी | बड़ा सा पक्का मकान और नौकर-चाकर !
दूर-दूर की ज़मीन उन्होंने बटाई पर दे दी थी, बाकी की ज़मीनों पर अपनी देख-रेख में खेती
कराते थे फूफा जी | वह चाहते थे कि बड़ा हो कर रवि उनकी जिम्मेदारी संभल ले; पर रवि
को कोई रूचि नहीं थी इन कार्यों में | दरवाजे पर कृषि के काम आने वाली सभी
प्रौद्योगिकी मौजूद थी | मनों अनाज बिकता था | हर तरह से संपन्न होते हुए भी
स्वभाव से दोनों पति-पत्नी विनम्र थे, अहंकार तो छू भी नहीं गया था | जब भी अम्मा मुझे ले कर उसके घर जाती, तब वह ये बात जरूर कहतीं-
‘ये
लड़की जहाँ भी जायेगी सब का मन मोह लेगी, बहुत भाग्यशाली होगा वह जो इसे पायेगा |’ वह शरमा
कर अम्मा के पीछे छुप जाती | अम्मा मुस्कुरा देती |
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि प्रकृति ने सब कुछ उलट-पुलट कर के रख दिया | उस साल
बरसात नहीं हुई | बा-मुश्किल खाने भर को आनाज हो पाया | बाबू ने सोचा कि चलो इस
वर्ष किसी तरह गुज़र कर लेंगे, अगले वर्ष अच्छी वर्षा होगी सब ठीक हो जाएगा पर मौसम
क्रूर होता चला गया | बारिश जैसे रूठ गयी थी | धरती का सीना चटख गया, पेड़-पालो
झुलस कर ठूँठ हो गए, कुएं, तालाब आदि जल के श्रोत सब सूख गए | पशु-पक्षी सब बेकल
हो गए | गाँव के छोटे किसान भूखों मरने लगे,नौजवान पलायन करने लगे | एक साधारण
किसान कितना कर्ज ले सकता था ! हर साल सूखे की मार के कारण बाबू भी कुछ नहीं कर पा
रहे थे | बैंक, बीज, पानी, खाद का कर्ज बढ़ता ही जा रहा था | मेरी पढ़ाई छूट गयी | अम्मा
के गहने व फूल-पीतल के बर्तन तक बिका गए, अब कुछ बेचने को भी नहीं बचा था |
मान-सम्मान से जीने वाला व्यक्ति भीख नहीं मांग सकता था, अब तो वही नौबत आ गयी थी
| हाँड़ी-पतुकी, बखार हर जगह भूख ने पैर पसार लिया था | भूख से कुलबुलाती आँतें आपस
में चिपकने लगीं थीं | कई-कई बार शन्नो बुआ के घर से उधार अनाज मांग कर आ चुका था,
पर हर चीज की अपनी सीमा होती है | कोई कब तक हाथ फैलाता रहेगा ? दिन पर दिन हालात
बिगड़ते जा रहे थे | अम्मा की आँखों से आँसू सूखते नहीं थे, मैं सहमी सी रहती थी | बाबू
का शरीर गलता जा रहा था, अम्मा झुराती जा रही थी | कहीं कोई रास्ता नहीं सूझ रहा
था |
उस दिन रात को अम्मा ने लजाते-लजाते फिर से शन्नो बुआ के घर से थोड़ा सा चावल माँगा
और ला कर किसी तरह पकाया क्यों कि चूल्हा जलाने के लिए पत्ता-पुआर भी नहीं बचा था
अब | भात को पसा कर माड़ निकाला और उसमे
नमक मिला कर भर पेट खिलाया | उस दिन ना जाने कितने दिनों बाद मैंने भी भर पेट खाना
खाया था | पेट भर गया तो नींद भी आ गयी | रात भर खूब अच्छी नींद ले कर जब मैं उठी
तो अम्मा -बाबू के मुंह से झाग निकलता देख घबरा कर जोर-जोर से रोने लगी | अम्मा-बाबू
ने सल्फास खा अपनी जीवन लीला समाप्त कर सारे कर्ज से मुक्ति पा ली थी और बार-बार
मांगने की शर्मिंदगी से भी |
गाँव में ये नयी बात नहीं थी; आये दिन खेतों में चिताएँ जल रहीं थीं पर इस बार
मेरी बारी थी अनाथ होने की | वहीं गाँव के किनारे अपने ही खेत में अम्मा-बाबू की
चिता भी जला दी गयी और मुझे शन्नो बुआ अपने घर ले आई | कुछ समय बाद ही रवि पढ़ने के
लिए दिल्ली चला गया था |
बुआ ने बड़े स्नेह से मुझे अपने घर रखा | कुछ दिनों बाद गाँव वालों और पंचायत की
रजामंदी से बुआ ने अपने भतीजे से विवाह करा दिया था | विवाह में बुआ ने ही सारी
जिम्मेदारी निभायी क्यों कि उनके भाई-भौजायी वर्षों पहले एक एक्सीडेंट में स्वर्ग
सिधार गए थे | विदाई के बाद वह भी मेरे साथ ही कानपुर आ गयीं और कुछ दिन साथ रह कर
मुझे सब समझा-बुझा कर चली गयी | उन्होंने अशोक को भी समझाया था कि ‘लड़की गऊ
है, उसे प्यार-दुलार से रखना |’
पर अशोक तो जैसे मनुष्य था ही नहीं, उसने उसका जीवन नर्क बना दिया था | सुबह से
शाम तक घर के काम और सारी-सारी रात अश्लील फिल्मे देखते हुए मेरी देह के साथ
खिलवाड़ ! मेरे शरीर को प्रयोगशाळा बना दिया था उसने | पूरी रात नींद ना ले पाने के
कारण पूरा दिन सिर भारी रहता | कोई काम ठीक से नहीं कर पाती उस पर भी ताने ! ये
कपड़े धुले हैं ? कैसे ‘आयरन’ किया है ये ? एक भी कपड़े की तह ठीक
से नहीं लगी है | आज दाल में नमक इतना तेज क्यों है ? घर में इतने जाले क्यूँ लटक
रहे हैं तो खिड़की पर इतनी धूल क्यूँ है ?आदि- आदि | डरी-सहमी मन मार कर ना चाहते
हुए भी अपनेआप से काम लेती और फिर से रात के अँधेरे में दाँत पर दाँत दबाए सब कुछ
सहती | उसने मेरे देह के साथ मेरी आत्मा तक नीला कर दिया था | ना कोई चाह, ना
उम्मीद, बस जिए जा रही थी | दिन,महीने, बरस बीतते जा रहे थे, मेरा मन निराशा के
भँवर में फँसा गोल-गोल घूमता रसातल में समाता जा रहा था | उससे निकल पाने का कोई
रास्ता नहीं सूझ रहा था | ना माता-पिता ना भाई-बहन ! दूर-दूर तक कोई उम्मीद की
किरण नजर नहीं आ रही थी | जीवन मेरे लिए विष का वो प्याला था जिसे ना चाहते हुए भी
घूँट-घूँट कर पीती जा रही थी मैं |
उन्ही दिनों अचानक अशोक की कम्पनी ने उसे छ: महीनों के लिए जर्मनी भेजने का निश्चय
किया | वह जाना तो नहीं चाहता था; पर जाना उसकी मजबूरी थी | मैंने राहत की साँस ली
| सोचा, चलो अब कुछ दिनों तक चैन से रह सकूँगी | अपनी मर्जी से जीऊँगी | खूब
सोऊँगी और खाना भी अपनी पसंद का बना कर खाऊँगी | कुछ समय के लिए जैसे उसे बंधुआ
मजदूरी से निजात मिलने वाली थी | मन खुशी से फूला नहीं समा रहा था; पर मन की खुशी
मन में दबाये मैंने उसकी सारी पैकिंग की | मुझे डर था कि कहीं उसे जरा भी आभास हो
गया कि मैं उसके जाने से बेहद खुश हूँ तो वह अपनी टिकट ही ना कैंसिल करा दे | फिर
वह दिन भी आ गया जब वह मुझे पचासों हिदायतें दे कर चला गया और मैं आजाद पंक्षी की
तरह चहक उठी आसमान में उड़ान भरने के लिए | अपने
नुचे, मसले परो को खोलने के लिए | अब मैं सुबह देर से उठती, रात देर तक टीवी देखती
और विविध भारती पर मनपसंद नगमे सुनती जो उसके रहते संभव नहीं होता था मेरे लिए
क्यों कि पूरा दिन उसके पसंद ना पसंद का ख्याल रखते हुए कैसे बीत जाता था, पता ही
नहीं चलता था |
एक दिन अचानक ही फोन घनघना उठा | अशोक का फोन था | रवि का ट्रांसफर इसी शहर में
हुआ था |
“नीचे
का रूम उसे दे दो..वह घर मिलते ही चला जाएगा..पर तब तक वह यहीं रहेगा...तुम
सीढ़ियों का दरवाजा बंद रखना..खबरदार ! ऊपर के पोर्शन से उसका कोई लेना देना ना
हो.. ना ही तुम्हारा नीचे से | समझी ना ?” अशोक ने धमकी भरे लहजे में कहा |
उसने हामी भर दी थी | वह जानती थी कि वह अपनी शन्नो बुआ का बहुत मान करता है इसी
लिए रवि को मना नहीं कर सका होगा नहीं तो इस घर में उसकी अनुपस्थिति में कोई पुरुष
आ कर रहे ! ये संभव ही नहीं था |
फोन रखते ही उसके सामने रवि का चेहरा उभर आया | दुबला-पतला, दिन भर किताबों में
सिर खपाने वाला और वक्त-बे-वक्त उसे छेड़ कर सताने वाला, अब कैसा लगता होगा ? राम
ही जाने | विवाह के बाद उसने सुना था कि वह बहुत बड़ा अधिकारी बन गया है; पर अशोक
के डर से उसने कभी भी उसका नाम नहीं लिया | उसके विवाह के समय भी उसका ‘मिस्कैरेज’ हो गया
था जिसके कारण वह नहीं जा सकी थी | इसके बाद कभी अशोक ने भी उसकी कोई खबर नहीं दी,
ना ही मेरी हिम्मत हुई पूछने की | अब इतने बरस बाद अचानक वह यहाँ आ रहा है | एक
खुशी के एहसास से भर गयी वह | नीचे जा कर
उसके कमरे की साफ-सफाई बड़े मनोयोग से किया | पूरा कमरा अच्छी तरह से सजा कर रवि के
आने की प्रतीक्षा करने लगी | दो दिन बाद ही रवि आ गया था | नीली बत्ती लगी सरकारी
गाड़ी और वर्दीधारी ड्राइवर ! देख कर हतप्रभ रह गयी | गोरा रंग, लंबा कद, खाकी
वर्दी और कन्धे पर भारत सरकार का चिह्न उसके व्यक्तित्व को आकर्षक व प्रभावशाली
बना रहा था | पहले तो वह ऐसा नहीं था, दुबला-पतला, मरियल सा किताबी कीड़ा ! पहली ही
मुलाक़ात में उसे अजीब सी सुखद अनुभूति हुई | एक तो मायके का, ऊपर से शन्नो बुआ का
बेटा ! उसका मन पुलक उठा | रवि भी उससे मिल कर खुश हुआ | रवि को रूम दिखा कर
झिझकते हुए उसने बुआ का हालचाल पूछा | रवि समझ गया, बोला “अब तो शरमाना छोड़ दे बेदर्दी..अब तो
तेरे ब्याह को भी कई वर्ष हो गये हैं और मैं कोई अजनबी तो नहीं जो इतना झिझक रही
तू |”
“तुम्हारे
लिए पानी ले कर आती हूँ |” कह कर वैदर्भी लजा कर ऊपर चली आई | उसका दिल धाड़-धाड़ कर उठा |
कनपटियाँ रक्ताभ हो गयीं | मन की फुलबगिया महक उठी | दिल के एकांत में एक नया ही
रहस्य खुल रहा था | भावनाओं की नदी जो एक ही दिशा में शान्त बहती जा रही थी आज
अपनी दिशा बदले को आतुर थी |
बचपन में रवि कभी-कभी उसे बेदर्दी कह कर छेड़ता था और वह अम्मा के पीछे छुप जाती थी
तब शन्नो बुआ उसे डांटती थीं -
“रवि..!
उसका नाम ठीक से लिया कर..अगर किसी और ने सुन लिया तो सब उसे इसी नाम से पुकारने
लगेगें..और उसका नाम बिगड़ जाएगा |”
वह तो भूल ही गयी थी इन बातों को | उसने इन सभी बातों को भूल कर खुद को पर्तों नीचे कहीं दबा दिया था | आज उसके मुंह से
ये नाम सुन कर बहुत सुख मिला, मन में एक गुदगुदी सी हुई |
रवि को देख कर उसके दिल में अजीब सी हलचल हो रही थी | ये क्या था ? जो मन में एक
सुखद एहसास जगा रहा था | गाँव में तो ऐसा कभी नहीं हुआ या वक्त ने उसे मौका ही
नहीं दिया | रवि को देख कर उसे गाँव, अम्मा-बाबू सब की याद आ रही थी |
अम्मा-बाबू की याद ने उसे विचलित कर दिया | रात भर अपने आँसू पोछती रही ना जाने कब
उसे झपकी लग गयी | अचानक डोरबेल की आवाज से उसकी नींद खुल गयी | बाहर सूरज खुल कर
मुस्कुरा रहा था | वह निकल कर बालकनी में आ गयी | नीचे देखा तो रवि डोर-बेल बजा
रहा था | उसको देखते ही मुस्कुरा कर बोला ‘गेट बंद कर ले वैदर्भी, मैं जा
रहा हूँ |’
ऊपर से खटका चढ़ा कर रवि चला गया | वैदर्भी भी मुस्कुरा दी, नीचे आ कर गेट बंद किया और रवि के रूम में झाँक
कर देखा | सभी सामान अपने स्थान पर व्यवस्थित था | उसने रूम का दरवाजा बंद कर
कुंडी लगा दी और और ऊपर चली आयी | सुबह के दस बज गए थे वह अभी तक सो रही थी | जल्दी
से बाथरूम की ओर बढ़ गयी |
स्नान के बाद उसने घर के मंदिर में भगवान को स्नान कराया, हल्दी-कुमकुम का तिलक
किया मिश्री का भोग लगाया और हाथ जोड़ कर ईश्वर का ध्यान करने बैठ गयी, एक यही तो
काम था जिसे वह बड़ी तन्मयता से करती थी; पर ये क्या ! आज तो उसके मन में रवि ही
रवि समाया था..आँखे मूंदते ही मुस्कुराता हुआ रवि उसके मन के अंधेरों में रौशनी भर
रहा था..उसका यूँ खुल कर बाते करना..उसको उसके बचपन के नाम से पुकार कर छेड़ना..वही
सब कुछ उसके सामने चलचित्र की भाँति घूम रहा था..रवि कितना खुले स्वभाव का था...अचानक
ही उसके होठों पर मुस्कुराहट छा जाती है...दिल के मरुस्थल में वर्षा की ठण्डी
फुहार बरस जाती है...आँखों में प्रेम का बसंत खिल उठता है..ऐसी दशा मन की पहले कभी
नहीं हुई थी...हड़बड़ा कर आँखें खोल ली उसने...भगवान के चरणों में प्रणाम कर सोचती
है -
“हे ईश्वर ! ये मेरा
मन कहाँ भटक रहा है ? ये सब सोचने या महसूसने की इजाज़त नहीं मुझे |” ईश्वर की
मुस्कुराती हुई छवि को प्रणाम कर वह अपने काम में लग गयी |
धीरे-धीरे समय बीतने लगा | अशोक का फोन जब भी आता वह सहम जाती | किसी जंजीर में बधें
पिंजरे के पक्षी की तरह फड़फड़ा उठती | उसे लगता जीवन कैसे कटेगा इस व्यक्ति के साथ
? वह फिर एक बार निराशा के भँवर में उलझ जाती; जीवन बोझ लगने लगता; पर जैसे ही रवि
आता उसका मन उमंगों से भर उठता | उसका मनपक्षी बार-बार रवि रूपी वृक्ष पर जा बैठता
और पूरा-पूरा दिन उसी के आस-पास फुदकता |
संध्या होने को थी | वह जा कर आईने के
सामने खड़ी हो गयी | कैसी हो गयी थी वह ? आँखों के नीचे कालिमा आ गयी थी | केश रूखे
और दोमुहे हो गए थे | होठ सूख गए थे | उसने अपने होठों पर उंगली फेरी, ना जाने
कितने नागफनी के काँटे उग आये थे उसके होठों पर | आईने में गौर से स्वयं को देखने
के बाद वह थोड़ी उदास हो गयी | दुनिया में कितने अच्छे लोग थे पर ईश्वर ने उसके लिए
कंजूसी कर दिया था | थोड़ी सी अच्छाई अशोक में भी डाल देता तो उसका क्या घट जाता ? मेरा जीवन भी नर्क बनने से बच जाता और मैं यूँ
असमय ही ना मुरझाती | नम हो आयी आँखों के कोरों को पोंछ कर उसने अपने बाल सुलझाए,
साड़ी सलीके से बाँधी, छोटी सी बिंदी लगा कर वह बालकनी में आ रवि की प्रतीक्षा करने
लगी |
आज उसने प्याज के पकौड़े बनाने की पूरी तैयारी कर ली थी | सोच रही थी कि रवि के आते ही गर्मागर्म पकौड़े
तल कर चाय के साथ ले जायेगी नीचे या आज उसे ही ऊपर बुला लेगी | आज कितना सुकून मिल
रहा था उसे रवि के लिए कुछ कर के | विवाह के शुरूआती दिनों में वह अशोक के लिए भी
कितना समर्पित रहती थी | उसके लिए काम करना उसे कितना भाता था | उसके कपड़े धोना,
तौलिया वाशरूम में टांगना, जूते पॉलिश करना, मोज़े पहनाना, उसकी हर जरूरत पर खड़े
रहना, उसकी पसंद का खाना पकाना और शाम होते ही बन-सँवर कर उसकी प्रतीक्षा करना,
कितना सुख मिलता था उसे ये सब कर के ! कितने समर्पित और आदर भाव से करती थी वह सब
कुछ; पर धीरे-धीरे उसकी बढ़ती ज्यादतियों ने सब कुछ खत्म कर दिया | बाद में वही सब
काम भय और विवशता बन कर रह गया | वह हक् और बल से सब कुछ पा लेता था फिर कहाँ
प्रेम और कहाँ समर्पण ! पीड़ा का सागर उसके आँखों से छलक पड़ता है |
तभी नीचे गाड़ी रुकने की आवाज आती है | उसका चेहरा खिल उठता है | वह लगभग दौडती हुई
सीढियाँ उतरती चली जाती है |
उधर कई दिन से रवि वैदर्भी के बारे में ही सोच रहा था | उसे वैदर्भी के जीवन में
सब कुछ सामान्य नहीं लग रहा था | उसकी पुलिसिया नजरों ने सब कुछ भाप लिया था | वह
सोच कर आया था कि आज उससे जरूर पूछेगा | अपनी वर्दी उतार कर वह वाशरूम की ओर बढ़
गया और निकला तो वैदर्भी दोनों हाथों में ट्रे लिए खड़ी थी |
“अरे
वाह ! गर्मागर्म पकौड़े ! क्या बात है !”
वैदर्भी ट्रे मेज पर रख कर बैठ गयी | रवि आ कर सोफे पर बैठ गया |
“तुमने
अपने बारे में कुछ बताया नहीं रवि | उस दिन भी पूछने पर टाल दिया |” वैदर्भी
बोली |
बात उधर से ही शुरू हो गयी, रवि सोच रहा था कि अब उसके लिए आसान था अपना प्रश्न
पूछना |
“तब
तो तुझे रात भर रुकना पड़ेगा यहीं |” शरारत
भरे लहजे में बोला रवि |
“धत्त्!” लाल सेब की तरह गाल सुर्ख हो गए
वैदर्भी के |
“टाइफाइड
से मृत्यु हो गयी सुरेखा की, तीन वर्ष हो गए इस बात को |” कहते हुए उदासी के बादल घिर आये थे रवि के
चेहरे पर |
“अरे
! और मुझे कुछ पता ही नहीं ! आश्चर्यचकित रह गयी वैदर्भी |
“मैं
जानता था कि अशोक ने तुझे बताया नहीं होगा..जानता हूँ उसे..अच्छा छोड़ अब तू अपने
बारे में बता..अशोक का रवैया कैसा है तेरे साथ ?” अचानक इस सवाल से वह चुप हो गयी |
“देख वैदर्भी ! अगर तू नहीं बताएगी तब भी मैं पता लगा ही लूँगा..पर
मैं तुझसे ही सुनना चाहता हूँ..तूने अपनी क्या हालत बना रखी है. मैं पहले दिन से
ही तुझसे पूछना चाहता था..पर नहीं पूछ पाया..मुझे अब तक लग रहा था कि तू खुश है
अशोक के साथ...पर जब से तुझसे मिला हूँ..कुछ और ही महसूस कर रहा हूँ..|”
रवि से हमदर्दी पा कर वैदर्भी की आँखों से आँसुओं का सैलाब बह निकला | रवि ने उठ
कर सीने लगा लिया वैदर्भी को, वह फफक पड़ी | रवि उसे अपनी बाँहों में समेटे उसको
सीने से लगाए रहा | वह धीरे-धीरे रवि की मजबूत बाहों में पिघलती रही और रवि उसके
बहाव को अपने में समेटे रहा |
थोड़ी देर बाद सिसकते हुए बोली -“बहुत घुटन है मेरे जीवन में रवि..दिन रात
घुटती रहती हूँ..कभी-कभी तो यह भी सोचती हूँ कि विधवाओं का जीवन मुझसे बेहतर होता
है..वह हँस-मुस्कुरा लेती हैं पर मैं ...!...अगर भूल से भी मुस्कुराहट आ जाय तो
लहू छलक पड़ता हैं होठों से |”
रवि उसकी आँखों के आँसू पोछता हुआ बोला - “इस तरह से कब तक जिएगी तू ?”
“जब
तक ईश्वर की मर्जी..किसी जन्म की सजा भुगत रही हूँ..जिस दिन पूरी हो जायेगी..ईश्वर
अपनी शरण में ले लेगा |”
“ओssss …वैदर्भी...तू भी ना...!..तू स्वयं
के लिए आवाज ना उठाये तो ईश्वर क्या करे ?..इतने अत्याचार सहती है और घुट-घुट
कर रह रही है..तू उससे ज्यादा स्वयं को सजा दे रही है…तेरे एक आवाज पर अशोक अपने सही
स्थान पर होगा..पर हिम्मत तो तूने ही करनी होगी..तभी तो कोई दूसरा मदद करेगा…आये दिन
मैं ऐसे मामलों से दो-चार होता रहता हूँ..|” उसके चेहरे पर क्रोध की रेखाएँ
खींच गयी थीं |
अपने को
संयत कर के गंभीर हो फिर बोला रवि -
“देख
वैदर्भी ! मैं अच्छी तरह जानता हूँ अशोक को..उसकी अदतों को..अगर तूने अशोक द्वारा
किये गए इतने अत्याचार सहे...तो उसके लिए मैं अशोक को दोषी नहीं मानता..वह तो उसकी
प्रवृत्ति है..उसके लिए तू स्वयं दोषी है..वो तेरा शोषण करता रहा और तू चुपचाप सह कर
उसको बढ़ावा देती रही..तूने कभी भी ना मुझे याद किया ना अम्मा को..तुझे पता भी है
कि तेरे हक् में कितने क़ानून हैं...तू एक बार बोलती तो सही...अब तुझे सोचना है कि
तुझे क्या करना है...अशोक को उसके किये की सजा दिलानी है या ऐसे ही सिसकते हुए
जीते रहना है...तेरे बिना आवाज उठाये मैं भी कुछ नहीं कर सकता...और हाँ..मैं हर
कदम पर तेरे साथ हूँ..कभी भी आवाज दे कर देखना |” एक बार उसने फिर से उसे गले से लगा
कर उसका माथा चूम लिया |
वैदर्भी भीतर तक सिहर गयी | उसके होठों के ठंडे स्पर्श ने उसके रिसते बजबजाते घावों
पर शीतल अनुलेपन सा किया था | उसके जीवन के तपते रेगिस्तान में रवि ठण्डी फुहार बन
कर आया था | उसके भीतर उग आये कैक्टस पर फूल खिल उठे थे |
“वैदर्भी..
सह कर तू उसे वो सब कुछ करने की मौन स्वीकृति दे रही है..एक बार उसके खिलाफ आवाज
उठा कर देख मैं क्या करता हूँ उसके साथ..बस एक बार ...अब जा और खुश रहना सीख..अपने
लिए भी जीना सीख...मैं हूँ तेरे साथ और हाँ..मालूम है तुझे...तू इस समय प्यारी सी
बुढ़िया..नहीं-नहीं...गुड़िया लग रही है... |” उसका चेहरा दोनों हाथों में लिए
रवि शरारत से बोला | वैदर्भी उसकी इस बात पर खिलखिला कर हँस दी |
“देख
तो..हँसते हुए तू कितनी प्यारी लगती है |” उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला
रवि |
“चल
अब जा बेदर्दी.. सो जा..मुझे भी नींद आ रही है |”
वैदर्भी ऊपर आ गयी | आज वह दूसरी ही दुनिया में घूम रही थी | उसके ज़ख्म उसके आँसुओं
में धुल गए थे और रवि ने उस पर अपने स्पर्श का मरहम लगा दिया था | उसका रोम-रोम
खिल उठा था | मन हल्का हो गया था |
सुबह जल्दी ही नींद खुल गयी, उसने खिड़की से पर्दा हटा दिया | ईशान में
आसमान सिंदूरी हो रहा था | परिंदों का कलरव वातावरण में मधुर संगीत उत्पन्न कर रहा
था | एक नए दिवस का आगाज होने वाला था | घर के बाहर छोटे से बगीचे में गुड़हल,
बेला, गुलाब आदि के फूल खिले हुए थे | शीतल बयार के झोंकों से पौधे झूम रहे थे |
एकाएक बादलों ने आ कर डेरा डाल दिया, फूलों से लदे-फँदे गुड़हल और गुलाब की डालियाँ
आपस में टकराती हुई ऐसे दिख रहीं थीं जैसे बरसों से बिछड़े दो प्रेमी रह-रह कर गले
मिल रहे हों | उसके होठों पर एक स्मित सी मुस्कान तिर जाती है | हल्की-हल्की
फुहारें भी शुरू हो गयीं थीं | वातावरण नितांत शीतल और मनोरम हो उठा था |
आज उसने अपना पसंदीदा ‘मोती’ सोप लिया, बालो में शैम्पू कर कंडीशनर लगाया और बाथरूम
का शावर खोल दिया | बाशरूम से निकल कर वह आईने के सामने खड़ी हो गयी और खुद को बड़े
प्यार से निहारा | आज वह वर्षों बाद खुद को आईने में ध्यान से देख रही थी | उसे
ध्यान नहीं कि पिछली बार उसने आईना कब देखा था | कभी दो चार दिन पर जब केश बहुत
उलझ जाते तो भी आईने की जरूरत नहीं पड़ती उसे, रात को सोते समय थोड़े-थोड़े बाल ले कर
सुलझा लेती और लपेट कर सो जाती | कभी दिल ही नहीं करता था आईने के सामने बैठ कर
सजने संवरने का | सजती भी किसके लिए ? अशोक को तो एक देह चाहिए थी रात के अँधेरे
में, जो उसे आसानी से मिल जाया करती थी और दिन में एक मशीन चाहिए थी जो उसके आदेश
का पालन करती रहे |
उफ्फ्फ ! वह भी क्या सोचने लगी | उसने अपना सिर झटका |
किचन में जाकर उसने चाय बनाई और चाय ले कर फिर से कमरे मे आ गयी | आज उसे जीवन कितना सुन्दर लग रहा था | रवि के
आने से वह जी उठी थी | उसकी मरी हुई भावनाएं जाग गयी थी | मन मृग बन कुलांचे भर रहा
था; पर एक अंजना भय भी था, ऐसा लग रहा था कि कहीं अशोक सब कुछ देख ना रहा हो और
अभी आ कर उसके मुस्कुराने की वजह ना पूछ ले ?
चाय खत्म कर उसने दुपट्टा उठा कर गले में लपेटा और चाबियों का गुच्छा ले कर नीचे आ
गयी | मेन गेट लॉक कर पास के पार्लर की ओर बढ़ गयी | सुन्दर सा हेयर कट लिया, गोल्ड
फेसियल, ब्लीच, वैक्स, थ्रेडिंग, आदि ले कर जब उसने खुद को पार्लर में लगे आईने
में देखा तो पहचान ही नहीं पायी | खुबसूरत तो वह आज भी है; पर समय की गर्द ने उसे
ढँक दिया था | उसने भी उस गर्द को कभी हटाने का प्रयास नहीं किया था | उस दिन शाम
को रवि के आते ही वैदर्भी जल्दी से दो कप चाय ट्रे में रख कर नीचे आती है |
“एक पानी की बोतल भी
ले आती तो अच्छा था |”
वैदर्भी दौड़ कर ऊपर से पानी की बोतल ले आयी | रवि पानी पीता है और वैदर्भी को गौर से देखता है फिर उसे शरारत से
छेड़ता है |
“अरे बेदर्दी !..अशोक
आ रहा है क्या ?”
अशोक का नाम सुनते ही उसके मन पर घड़ों पानी पड़ गया | उसका सारा उत्साह खत्म हो
गया, चेहरे की चमक गायब हो गयी | वह उठ कर चलने को हुई कि तभी रवि ने उसकी कलाई
पकड़ ली |
“कहाँ चल दी ? मेरे
साथ चाय कौन पिएगा ?”
वैदर्भी सोफे पर बैठ गयी | माहौल गंभीर हो गया था जिसे रवि ने तोड़ा -
“मेरे आवास की
साफ-सफाई हो गयी है, मैं कल शिफ्ट हो रहा हूँ |”
वैदर्भी चौंक कर उसका मुंह ताकने लगी | रवि ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा -
“अब तू अकेली नहीं
है..मैं हर पल तेरे साथ हूँ..यहाँ रहूँ या वहाँ..फिर एक ही शहर में हैं हम दोनों..कहीं
दूर नही जा रहा मैं..तुझसे मिलने आता रहूँगा, तू अपना ख्याल रखना |”
वैदर्भी सिसक पड़ी | इतने दिन रवि के साथ रहते हुए वह अशोक को भूल सी गयी थी | उसे
लग रहा था कि अशोक कभी उसके जीवन में था ही नहीं पर अब उसे लग रहा था कि रवि फिर
उसी दोज़ख में छोड़े जा रहा था उसे | उसके चेहरे पर पीड़ा की लकीरें उभर आयीं | उसके
कपोलों पर मोतियों के समान लुढ़क आये आँसुओं को पोछ उसे अपनी बाहों में भर लेता है रवि
|
रवि अपने आवास पर चला गया
| वैदर्भी फिर अकेली रह गयी..पर इस बार वह
पहले वाली वैदर्भी नहीं थी..|
वैदर्भी का जीवन रवि के प्रकाश से आलोकित हो उठा था | उसके जीवन के मायने बदल गए
थे | उसने हँसना, चहकना सीख लिया था | उसके नुचे हुए परों पर नए चमकदार, कोमल रेशे
उग आये थे और वह आसमान नापने को आतुर थी | रवि ने उसे मोबाइल ले दिया था, उसी से
उसकी घंटों बात होती | होटल, सिनेमा, थियेटर, सड़कें, मोतीझील पार्क, गंगा किनारे,
हर कोलाहल, हर एकांत में वह दोनों साथ होते
फिर देर रात तक वापस आते | रात का डिनर अक्सर साथ ही होता उनका | रवि की
बलिष्ठ भुजाओं का आलम्बन पा वह हिम्मत और हौसले से भरती जा रही थी | जीवन के प्रति
उसका नजरिया बदल रहा था | उसका खोया आत्मविश्वास वापस आ रहा था | अशोक का फोन आता
तो वह कभी कुछ तो कभी कुछ बहाना बना देती | पाँच महीने बीत गए थे आखिर ऐसा कब तक
चलता ? रवि के साथ उसकी दोस्ती बहुत आगे निकल चुकी थी |
सोचती है वह –“एक ना एक दिन तो अशोक जान ही जाएगा तो मैं खुद ही क्यों ना बता
दूँ सब कुछ |” वह
अशोक को पत्र लिखने बैठ गयी |
अशोक .
मैंने बहुत सोचा और अंत में यह फैसला किया कि अब हम आगे का जीवन एक साथ नहीं बिता
सकते..तुम सोच रहे होगे कि मुझमे इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी..? बकरी की तरह
मिमियाने वाली तुम्हारे सामने कैसे दहाड़ लगा दी मैंने..? पर अब तक यह समझ भी गए
होगे कि मुझमे यह कहने का हौसला किसने भरा..हाँ तुमने सही पहचाना..रवि ही है वह और
अब मैं तुम्हारा घर और तुम्हें त्याग रही हूँ..चाहती तो तुम्हे तुम्हारे किये की
सजा दिला सकती थी..क्यों कि मेरी देह पर तुम्हारे द्वारा दिए गए निशान अब भी मौजूद
हैं..पर मैं ऐसा नहीं करुँगी..क्यों कि शन्नो बुआ के आदेश का सम्मान कर तुमने रवि
को यहाँ आने दिया..तो उन्हीं का सम्मान कर मैं भी तुम्हे सजा से बचा रही हूँ..
तलाक की अर्जी दे दी है..घर की चाभियाँ पड़ोस के राय साहब के पास है...ले लेना और
हाँ !..तुम्हारे घर का एक-एक सामान यथास्थान है... मैं कुछ भी तुम्हारा ले कर नहीं
जा रही हूँ सिवाय खुद के..क्यों कि अभी तक मेरा रोम-रोम..मेरे जीवन का एक-एक
पल..मेरी इच्छाएँ..भावनाएँ सब पर तुम्हारा अधिकार था..पर अब मैंने ये सारा अधिकार
तुमसे छीन लिया है..अब मेरा जीवन सिर्फ मेरा है..अब मैं तुम्हारी बांदी नहीं हूँ..मुक्त
हूँ तुम्हारी हर बंदिश से..अब मेरे पास मेरा अपना वजूद है..आस्तित्व है..और मेरे
हिस्से का वो आकाश भी..जो तुमने मुझसे छीन लिया था..|
वैदर्भी
तभी अचानक फोन घनघना उठा | पत्र किनारे रख कर वह उठ पड़ी, घंटी की आवाज से वह समझ
गयी थी कि फोन अशोक का है | फोन कान में लगाए वह जी..जी कहती रही, चेहरे पर कई भाव
आते-जाते रहे फिर फोन रख दिया | उसके चेहरे पर ज़माने भर की खुशी छलक रही थी पर तुरंत
ही उसके चेहरे पर गंभीरता की बदली घिर आयी | मोबाइल से रवि का नम्बर लगा दिया –“हैल्लो
..रवि..!”
दोनों के बीच सन्नाटा पसरा था समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय ? कहाँ तो बड़ी
हिम्मत से वैदर्भी अशोक को पत्र लिखने बैठ गयी थी पर अब आगे क्या करना है ? सोच
नहीं पा रही थी |
“इस
तरह आखिर कब तक चलेगा रवि ?” वैदर्भी ने अपने बीच घिरे सन्नाटे को भंग
किया |
“मैं जो कहूँ वो करेगी ?” रवि
कुछ सोचते हुए बोला |
“पूरी कोशिश करुँगी |”
“तो कल तैयार रहना, मैं तुझे
लेने आऊँगा |” उठते हुए बोला रवि और
तेजी से बाहर निकल गया |
अगले दिन रवि उसे जिला कारागार ले गया | गेट से प्रवेश करते हुए उसका दिल जोर-जोर
से धड़क उठा | ये रवि उसे कहाँ ले आया ? ये तो जेल है, मेरा यहाँ क्या काम
? एक लम्बा गलियारा पार करते हुए उसके साथ आगे बढ़ी जा रही थी | अगल-बगल ऊँची-ऊँची
दीवारें थीं तभी एक सँकरा सा दरवाजा दिखा, रवि ने उस ओर इंगित कर बताया कि “ये
बाल अपराधियों का बंदी गृह है |” वह
उत्सुकता से उधर देखती है तभी एक और दरवाजा दिखता है “यहाँ पुरुष बंदी रहते हैं |” थोड़ी देर बाद ही एक दूसरा दरवाजा था | रवि के साथ चल रहे
सिपाही ने गेट खटखटाया | दरवाजे पर लगी
छोटी सी जाली से झाँक कर देखा किसी ने फिर दरवाजा खुल गया | महिला सिपाही ने सलाम
ठोका और किनारे खड़ी हो गयी | वैदर्भी रवि के साथ अंदर आ गयी | अंदर का दृश्य देख
कर वैदर्भी काँप उठी | ये महिला बंदी गृह था | एक बड़ा सा हॉल जो खचाखच भरा हुया था
| कुछ महिलाएँ बाहर बरामदे में बैठी थी और कुछ आपस में बुरी तरह झगड़ रहीं थीं |
हॉल में एक किनारे एक महिला बंदी अपनी छोटी सी बच्ची को सीने से चिपकाए बैठी थी | कुछ छोटे
बच्चे भी थे जो सहमे हुए से झगड़ा देख रहे थे | तभी एक महिला सिपाही ने जा कर अपना
डंडा पास ही सिमेंट की बैंच पर पटका | रवि को देख कर सभी गुथ्म-गुत्थी छोड़ कर
किनारे हो गयी | रवि उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले आया और ऑफिस में आ कर बैठ गया |
“इन्हें सुधार सकोगी ?”
“मै ?” वह चौक पड़ी |
“हाँ तुम !”
और वैदर्भी को अपने जीने का उद्देश्य मिल गया | वह दिलोजान
से उनके साथ लग गयीं | अब कब उसका दिन शुरू होता और कब खत्म हो जाता उसे पता ही
नहीं चलता | अब ना तो उसे रवि की याद आती ना ही अशोक के बुरे ख़याल उसे परेशान करते
| अब उसका अपना परिवार वो बंदी महिलाएँ और उनके बच्चे थे |
तभी रूमबेल बज उठा | वह चौंक पड़ी, अपने अतीत के खारे पानी से निकल कर वर्तमान के
धरातल पर आ चुकी वैदर्भी ने जा कर दरवाजा खोला | वेटर शाम की चाय लिए खड़ा था | वह
दरवाजे से थोड़ा सा हट गयी वेटर चाय मेज पर रख कर चला गया | उसका सिर भारी हो रहा
था | उसने वाशरूम में जा कर अपने चेहरे पर ठंडे पानी से छींटा मारा, थोड़ी सी ताजगी
महसूस हुई फिर रूम में आ कर चाय सिप करते हुए वह रवि को याद करने लगी | रवि ने ही
तो मेरा खोया आत्मविश्वास जगाया और मुझे इस मुकाम पर पहुँचने में मेरा मार्ग
प्रशस्त किया जिसके कारण मैं आज अपने नाम से जानी जाती हूँ | कल अपने-अपने क्षेत्र
में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए देश की प्रतिष्ठित महिलाओं के साथ मेरा भी सम्मान है |
‘काश यहाँ रवि भी होता ! रवि से मिले
हुए उसे कई वर्ष हो गए थे
| उससे मिलकर ही उसे प्रेम का एहसास हुआ | उसने प्रेम को जिया, महसूस किया |
अब उसे अपनी साँसे बोझ नहीं लगतीं | जीवन को कंधो पर नहीं ढोना पड़ता | चांदनी उसे
जलाती नहीं, बारिश उसे तड़पाती नहीं | अब सारी प्रकृति उसे बदरंग नहीं लगती है | अब
रंगों से वह मुंह नहीं मोड़ती | इस परिवर्तन का कारण भी रवि ही तो था |’ वह सोच ही रही थी कि उसी
समय अचानक दरवाजा खुला –
“हाय बेदर्दी !!”
वैदर्भी चौंक पड़ी | मुड़ कर देखा, रवि बाहें पसारे खड़ा था | उसका मुरझाया चेहरा
खिल उठा |
वह दौड़ कर उसकी बाँहों में समा गयी |
आसमान की नारंगी आभा समुद्र के नीले जल में घुल रही थी | अभी-अभी
थका-हारा रवि संध्या की आगोश में समाया था | लहरें लुका-छिपी का खेल खेल रही थीं |
कुछ देर बाद ही आसमान का धूमिल चाँद मुस्कुरा उठा और समुद्र में ज्वार उठने लगे |
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मीना धर
साभार - इंद्रप्रस्थ भारती