....................दिल दाग हुआ.............. ऑडिटोरियम अपेक्षा से कुछ ज्यादा बड़ा है और सारी कुर्सियां भरी हुई हैं। कुछ एक दर्शक तो खड़े भी नजर आ रहे हैं। अगर अपनी लोकप्रियता का अनुमान उपस्थित लोगों की संख्या से लगाऊं तो यह ग्राफ गुणात्मक है। शायद मैंने उन्हें कुछ इंतजार भी करवाया है। मगर मुझे तो कार्यक्रम का यही समय बतलाया गया था, अतः इसमें मुझे अपराध बोध महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। मंच का संचालन एक ठिगने और गंजे से महाशय कर रहे हैं। मुझे आता देख उन्होंने मेरा परिचय देना शुरू किया- "और अब मैं मंच पर डॉ श्वेता भारद्वाज को आमंत्रित करना चाहूंगा। डॉक्टर भारद्वाज किसी परिचय की मोहताज नहीं है। जैसा कि हम और आप सभी जानते हैं, मैडम हमारे देश के गिने-चुने मनोवैज्ञानिकों में शुमार हैं जिन से अपॉइंटमेंट लेने में हमें काफी लंबा इंतजार करना पड़ता है। आज हमारी संस्था के सौजन्य से डॉक्टर भारद्वाज हमारे साथ पूरे 3 घंटों के लिए उपस्थित हैं। आप सभी से अनुरोध है कि अपने-अपने सवाल पूछने के लिए हाथ ऊपर करें। एक एक कर सभी को मौका दिया जाएगा। मंच संचालक महोदय ने एक बुके से मेरा स्वागत किया और मंच मेरे हवाले कर दिया। अपनी साड़ी और कदम संभालते हुए और चेहरे पर एक बेहतरीन मुस्कान सजाए रखने की कोशिश करते हुए मैं डायस पर पहुंची। गहरी सांस भरते हुए पांच तक गिनती की- 1 2 3 4 और 5; फिर दर्शक दीर्घा पर निगाहे फिराई। कई चेहरे उत्सुकता से भरे हैं तो कुछ इंतजार की बोरियत से भी। शुरु-शुरु में ऐसे आयोजनों को संबोधित करना कठिन लगता था। इतने सारे लोगों को देखकर घबराहट होती थी। मगर धीरे-धीरे भीड़ की आदत सी हो चली है। लोगों के सामने बोलना रोजगार का अभिन्न अंग बन गया तो मन में बैठा यह डर भी जाता रहा। वैसे भी यह भीड़ अकेलेपन की उस चुभन से लाख गुना बेहतर है जिसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो जाता है। एक सधी आवाज में मैं अपना परिचय देती हूं। मैं किसी समय एक वक्ता की भूमिका निभाने में अनाङी थी, मगर कहते हैं - "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान"। ऑडिटोरियम में रोशनी की मात्रा बिलकुल वैसी है जैसी की होनी चाहिए, ना कम ना ज्यादा। आरंभिक संबोधन के पश्चात मैं सभी को सवाल पूछने के लिए आमंत्रित करती हूं। सवाल पूछने वाले व्यक्ति एक-एक कर स्टेज पर आते और अपना सवाल पूछते हैं फिर मैं उनका जवाब देती हूँ। ऐसे आयोजनों में लोग सामान्यतया वैसे ही सवाल पूछते हैं जो सभी के सामने पूछे जाने सकने वाले होते हैं। व्यक्तिगत सवाल पूछने वाले व्यक्ति मेरे क्लीनिक में आते हैं। सेशन अच्छा निकल रहा है क्योंकि इन सभी सवालों के जवाब बड़े सामान्य और तार्किक हैं। देखते ही देखते समारोह समापन की ओर पहुंच गया। एक व्यक्ति बड़ी बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। ना जाने क्यों वह कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है। कई श्रोता बाहर जाने लगे मगर वह अभी भी अपना सवाल पूछने के लिए कतार में खड़ा है। मैं आयोजन में से एक को उसे मौका देने का आग्रह करती हूं। वह स्टेज पर आता है और मैं आश्चर्यचकित होकर उसे देखती रह जाती हूं! ऐसा नहीं हो सकता! यह तो सुना था कि दुनिया गोल है और कभी ना कभी कहीं ना कहीं बिछड़े मिल जाते हैं, मगर सच में ऐसा होता है यह मैं नहीं जानती थी। काश मैं समय को पीछे कर इस अनचाहे सवाल से बच पाती! जिससे कभी मैंने सैकड़ों सवाल पूछे थे आज उसके न जाने कौन से सवाल का जवाब मुझे देना होगा। "मिस सिंह, ऐसा क्यों होता है कि दो प्रेमी एक दूसरे से टूट कर प्यार करते हैं, एक-दूसरे में अपनी सारी खुशियां देखते हैं, जिंदगी भर साथ निभाने का वादा करते हैं; मगर जब वादे पर अमल करने की बारी आती है तो उनमें से एक क्यों नहीं अपनी जुबान पर खरा उतरता है? एक व्यक्ति तो अपने प्यार की खातिर अपना कैरियर अपना परिवार सभी कुछ दांव पर लगा देता है और दूसरा बड़ी आसानी और बेदर्दी से उसके प्यार से ओतप्रोत दिल को अपनी असंख्य कामनाओं और आकांक्षाओं के तले रौंदे हुए जीवन के सफर में किसी और के संग आगे निकल जाता है? मानव मन में छिपी यह कौन सी भावना है जो उसे अपने प्रेमी का दिल तोड़ने को उकसाती है? हतप्रभ सी मैं इस अप्रत्याशित वक्ता का मुंह देख रही हूं। मुझे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि पूरे 10 वर्षों के बाद विमल मुझे इन परिस्थितियों में मिलेगा। कितना दर्द, कितनी बेचैनी छुपी है इसके सवाल में! सबके सामने मुझे कटघरे में अपराधी सा बना कर खड़ा कर दिया है। क्या कहूं या ना कहूं कि असमंजसता ने मेरे जुबान पर ताला लगा दिया है। उसने सबके सामने मुझे मेरे मेडन नेम 'मिस सिंह' से संबोधित किया है। तो क्या मैं भी उसे उसके नाम से पुकारूँ और सभी पर यह जाहिर हो जाने दूं कि हम पहले से परिचित हैं! नहीं यह कदाचित सही नहीं मेरी पब्लिक इमेज का क्या! सभी तरह तरह की बातें बनाएंगे। कभी जिस के पहलू में सुबह से शाम हो जाया करती थी, घंटे बीत जाते थे मगर बातें खत्म नहीं होती थी, आज उसी के एक सवाल ने मुझे निरुत्तर कर दिया है। क्या कहूं क्या ना कहूं समझ नहीं आ रहा है। पिन ड्रॉप साइलेंस है सभी तरफ।४ "ऐसा है मिस्टर......" कहकर मैं थोड़ा रुकी तो आयोजकों में से किसी ने मुझे बताया विमल। "ऐसा है मिस्टर विमल कि कभी-कभी परिस्थितियां इतनी जटिल और इंसानी नियंत्रण से बाहर होती है कि व्यक्ति चाह कर भी वह नहीं कर पाता जिसकी ख्वाहिश होती है। इसे हमें अपनी विफलता की तरह लेकर दुखी होने की जरूरत नहीं है। यह संसार बहुत खूबसूरत है। हमारे किसी गम से से कहीं बहुत ज्यादा खुशियां अपने में समेटे यह हर पल हमें नई संभावनाएं प्रदान करता है। मुझे यह विश्वास है कि आप की माशूका के साथ अपनी कोई परिस्थिति जन्य समस्या रही होगी। भूल जाइए उसे जो आपकी हमकदम ना हो सकी। उस शख्स को तलाशिए जिसे ईश्वर ने केवल आपके लिए भेजा है।" "मिस सिंह आप का बिजनेस कार्ड मिल जाएगा?" " आप मेरा कार्ड मिस्टर संदीप से कलेक्ट कर लें।" मैं अपनी भावनाएं और आंसू छिपाने का प्रयत्न करते हुए रेस्ट रूम की तरफ बढ़ी। सालों से दबाया हुआ दिल का दर्द और रोज बड़े प्रयासों से सब कुछ भुला दिए जाने का भ्रम पालते हुए जिंदगी जिए जाने की कोशिश; सब कुछ ताश के पत्तों के महल सा धाराशाही होता दिख रहा है। इतने सालों से जिसकी एक झलक के लिए तरसती रही उस एक झलक ने जख्मों पर कोई मरहम नहीं लगाया बल्कि जख्मों को हरा कर दिया है। तकदीर ने यह कैसा क्रूर खेल खेला है हमारी भावनाओं के साथ! आंखें बंद करती हूं तो सब कुछ भुला दिए जाने का दंभ झूठा साबित होता है और सब कुछ जो का त्यों चलचित्र की भांति शुरू हो जाता है। मैंने इन 10 वर्षों का हर एक दिन विमल की उन सुनहरी यादों वाले हसीन पलों को बार बार जिया है। मैं समझ सकती हूं उस तड़प और बेचैनी को जिसकी बात विमल कर रहा था। मगर उसे कैसे बताऊं कि यह फैसला मेरी इच्छा नहीं बल्कि एक विवशता, एक मजबूरी थी। यह कैसे समझाऊं उसे! जब यह समझा नहीं सकती उसे तो फिर मेरा चुप रह जाना ही दोनों के लिए बेहतर है। उस रास्ते का सोचना भी क्यों जिस पर कदम रखना मेरी किस्मत में नहीं है। मुझे आज भी याद है आधी रोशनी व आधे अंधेरे में डूबी कॉलेज की वह घुमावदार सीढ़ियां। पढ़ाई से जी चुराने वाले या अपनी माशूका से इश्क लड़ाने वाले कुछ लड़के अक्सर इन सीढ़ियों पर इंतजार करते मिलते। जहां तक मेरा तजुर्बा था लड़कियां अपने खाली समय में इश्कबाजी करती थी और लड़के उनके वक्त के मुताबिक अपनी कक्षाएं मिस किया करते थे। मानो यह सीढी आशिकों के लिए ही रिजर्व रहती। बाकी स्टूडेंट और प्रोफेसर दूसरी सीढ़ी का इस्तेमाल करते थे जो कि कॉलेज प्रांगण के दूसरे हिस्से में था। मगर यह मेरी कक्षा तक जाने का न्यूनतम दूरी वाला रास्ता था अतः अक्सर लेक्चर में जाने के लिए मैं यही सीढी चुनती थी। वापसी में कोई जल्दी नहीं होती थी इसलिए दूसरी सीढ़ी का विकल्प भी खुला रहता था। एक ऐसे ही व्यस्त दिन मैं जल्दी-जल्दी जल्दी उन बदनाम इश्क मिजाजी सीढ़ियों को पार कर रही थी। बहुत तेज धूप थी और मेरी आंखें अभी अंधेरे की अभ्यस्त नहीं हुई थी। जितनी जल्दीबाजी में मैं थी उससे भी ज्यादा तेजी से एक लड़का सामने से आ रहा था और मेरे बचाते बचाते भी हमारी टक्कर हो गई। जितनी मुझे खुद पर कोफ्त आई उससे कहीं ज्यादा सामने वाले पर गुस्सा। "क्यों जनाब, दिखाई नहीं पड़ता या सामने से एक लड़की आ रही है इसी वजह से अपनी स्पीड और बढ़ा ली थी?" मेरा गुस्से और व्यंग से सराबोर स्वर मेरे ही कानों में अजनबी सा लगा। " मैडम अब आप ऐसी श्रीदेवी भी नहीं हैं कि आप से टक्कर के लिए मैं अपनी इज्जत तक दांव पर लगा दूं।" फिर उसने मेरे चेहरे को देखा और मैंने उसके। टक्कर तो दोनों से ही बेध्यान ही में हो गई थी मगर मुझे अपना गुस्सा तो निकालना था ना किसी पर। " वैसे आप इतनी बुरी भी नहीं! टक्कर तो बनती है। क्या आपके सीढ़ियां चढ़ने का रोज का वक्त यही है?" उसके कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि गुस्से के बजाय शर्म की लाली मेरे चेहरे पर दौड़ गई। बनावटी गुस्से के साथ मैं बोली- " अपनी औकात में रहो वरना मैं प्रोफेसर से शिकायत कर दूंगी।" " यू आर फ्री मैडम। बस मिस्टर त्रिपाठी से कुछ ना कहना। ही इज माई फादर। वैसे तो वे भी अपनी जवानी के दिनों में कुछ कम शरारती नहीं रहे होंगे, फिर भी मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह टक्कर मैंने जानबूझकर नहीं की है। मेरे पिता नीचे मेरा इंतजार कर रहे हैं। आप लोगों में वह कितने भी लोकप्रिय क्यों ना हो मेरी नजरों में वह एक गुस्सैल और बदमिजाज पिता हैं। इसी वजह से मैं थोड़ी जल्दी में था। बाई द वे आप से टकराकर...... आई मीन मिलकर अच्छा लगा। माई सेल्फ विमल........ विमल त्रिपाठी।" उसके बड़े हाथ को अनदेखा करते हुए मैं अपने बचे खुचे गुस्से को समेटते और दिखाते हुए अपनी कक्षा की ओर बढ़ गई। मुझे नहीं पता वे एक जोड़ी आँखें कब तक मेरी पीठ से चिपकी रहीं क्योंकि मैंने उन कदमों की सीढ़ी उतरने की आवाज नहीं सुनी। शायद मेरे उसकी नजरों से ओझल होने तक वह वहीं खड़ा रहा। अपनी पहली मुलाकात के विषय में सोच कर मेरे होठों पर मुस्कान और आंखों में नमी आ गई। क्या दिन थे वह भी सब कुछ कितना अच्छा सा लगता था। घर जाने का वक्त हो चला है। आयोजकों से विदा लेकर मैं अपनी कार की तरफ बढ़ी। घर पहुंची तो पता लगा कि आज सतीश घर पर ही हैं। उनकी कब छुट्टी होती है कब नहीं है मुझे पता नहीं चल पाता। ज्यादा टोका-टोकी उन्हें पसंद नहीं। जो बता दिया वह सुन लेती हूं बस। अपने कमरे में जा कर लेटती हूँ तो वे रुके बंधे सारे जज्बात यादों के रास्ते फिर मुखर होने लगते हैं। उस दिन विमल त्रिपाठी ने केवल रुक कर मुझे देखा ही नहीं था, बल्कि मेरा पीछा कर मेरे लेक्चर हॉल का पता भी लगा लिया था। वह कई दिनों तक मुझसे मुलाकात के लिए मेरे आगे पीछे करता रहा मगर मैंने घास नहीं डाली। उसने अपने दोस्तों से संदेशे भिजवाए, मेरी सहेलियों से मिन्नतें की। मैंने फिर भी उसकी दाल नहीं गलने दी। एक दिन मैं जब सीढ़ियां चढ़ रही थी तब वह अचानक सामने आ खड़ा हुआ। मैंने जब सवालिया नजरों से उसे देखा तो उसने कहा- " कुछ तो जुबान से बोल दो, आवाज सुने भी जमाना हो गया।" " हमने बातें भला कब की हैं कि तुम मेरी आवाज मिस कर रहे हो"? " तो फिर बातें ही कर लो। तुम्हें मिस करने का कुछ तो सबब हो।" " तुम पागल हो।" " और तुम अक्खड़।" "मैं कोई हूर की परी नहीं। क्यों पीछे पड़े हो?" " फिर मेरी बात मान क्यों नहीं लेती? बातें करने में हर्ज ही क्या है?" " क्यों करूं बातें? मुझे तुम पसंद नहीं।" " पहले जान-पहचान तो कर लो। फिर नापसंद भी कर लेना।" " मेरा रास्ता छोड़ो, जाने दो मुझे। लेक्चर का वक्त हो चला है।" " मेरे साथ लंच पर चलो। एक बार सामने बैठकर मेरी बात तो सुन लो। फिर जो चाहे फैसला कर लेना।" "मैं समय तो तुम्हें दे दूं, मगर तुम कहीं भूल तो नहीं जाओगे कि तुम्हें चाहना मेरी मजबूरी नहीं है? मेरी ना झेल तो पाओगे?" "एक बार मिलकर तो देखो। तुम्हें पता चल जाएगा कि मुझे चाहना तुम्हारी मजबूरी ही है।" " अति उत्साह अक्सर हार की वजह होती है, पता है ना।" " यह अति उत्साह नहीं बल्कि मेरा खुद पर विश्वास है जानेमन। मुझे लगता है कि हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं।" मुझे यह अंदाजा लग गया कि शायद मैं बातों में जीत ना पाऊं। मैंने उसे पूरे 10 दिनों बाद का समय दिया। मैंने यह सोचा कि तब तक गर्मी की छुट्टियां हो जाएंगी और फिर एक दो महीने में शायद उसका नशा उतर जाए। मगर उसने तुरंत ही मेरी चालाकी पकड़ ली। " ठीक है, बस इस बात पर प्रकाश डालो कि छुट्टियों में मिलने के लिए तुम कॉलेज आओगी या मुझे तुम्हारे घर यानी ए 36 अशोकपुरी आने का निमंत्रण है। मुझे विस्मित व मौन पाकर उसी ने कहा- " अब यह ना कह देना कि मुझे तुम्हारा पता कहां से मिला। हम लड़कों को पढ़ाई के साथ-साथ और कई चीजों का ध्यान रखना होता है। चलो ऐसा करते हैं कि कल मिलते हैं- ठीक 4:00 बजे कॉलेज कैंटीन में।" वह एक विजयी मुस्कुराहट को अपने आकर्षक चेहरे पर सजाते हुए मेरे रास्ते से हट तो गया, मगर शायद मेरे ओझल होने तक मुझे देखता रहा। उसके नजरों से दूर होने पर रुक कर मैंने अपनी हालत पर काबू करने की कोशिश की। दिल की धड़कनें बेकाबू थी और सांसे तेज चल रही थीं। चेहरे पर भी तो कुछ ना कुछ असर रहा होगा! कल भला क्या बात करूंगी उससे मिलकर! सीधे-सीधे मना क्यों नहीं कर दिया मैंने? अभी भी कल ना जाऊं तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेगा? "श्वेता, मैं जरा बाहर जा रहा हूं। शायद डिनर करके आऊं। मेरा इंतजार ना करना।" "ठीक है।" सतीश से बातचीत बस रस्म अदायगी है। जितनी जरूरत बस उतनी बातचीत। पता नहीं शादीशुदा जोड़े हर जन्म में साथ की बात कैसे करते हैं! यहां तो एक जन्म का रिश्ता निभा पाना भी दुरूह कार्य लगता है। दुनिया की अपेक्षाओं पर खरे उतरते रहने की मजबूरी की कीमत अपने सभी सपनों की आहूति है। एक ऐसी आहूति जो सिर्फ और सिर्फ मुझे पता है। सतीश और मेरा रिश्ता एक पति पत्नी के तथाकथित पावन रिश्ते सा तो बिल्कुल नहीं है। सतीश की नजरों में मैं उनके लायक नहीं। मुझे यह लगता है कि सतीश मेरे काबिल नहीं। इस अहम की लड़ाई में हम दोनों ही यह भूल गए हैं कि हमें प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि एक दूसरे का पूरक बनना है। शादी के बाद के शुरुआती दिनों में मैं विमल की याद में इतनी खोई रही कि सतीश को अपने दिल में जगह देने की कोशिश भी नहीं की। धीरे-धीरे गुजरते वक्त के साथ यह नाकामी एक जिद में बदल गई। इसमें कुछ हाथ सतीश के मेरे प्रति व्यवहार का भी रहा। मगर हां मैं भी दोषी जरूर थी। दो व्यक्तियों की तुलना कभी भी हम निष्पक्ष रहकर नहीं करते हैं। इस तुलना में विजयी वही ठहरता है जिसके विजयी होने की कामना हमारा यह भोला नासमझ दिल करता है, जो व्यवहारिकता से कभी-कभी कोसों दूर होता है। जब अगले दिन मैं विमल से मिलने गई तो यह तय था कि यह मुलाकात हमारी आखिरी मुलाकात होगी। मैंने सोचा तो ऐसा ही था, मगर उस शब्दों के जादूगर ने मुझे प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं अनमनी-अनजानी सी उसके प्यार के जाल में उलझती चली गई। उसकी पढ़ाई उसका व्यवहार सब बढ़िया, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसके संस्कार सब ठीक से ही लगे। कैसे नापसंद करूं उसे जो दिल में समाते चला जा रहा है। देखते ही देखते पूरे 3 घंटे निकल गए। इस बीच में दो-तीन बार घर जाने को खड़ी हुई मगर पुनः उसके आग्रह पर बैठ गई। आखिरकार जब मैं वहां से चली तो उसने पूछा- " अब कब मिलोगी?" " तुम्हें लगता है कि मैं मिलूंगी तुमसे?" मैंने नजरे झुकाए-झुकाए पूछा ताकि मेरे दिल की चाहत को व कहीं मेरी निगाहों में न पढ़ ले। मगर वह ज्यादा सयाना निकला। "यही बात बस मेरी आंखों में आंखें डाल कर कह दो। फिर मैं कभी तुमसे मिलने को नहीं कहूंगा। मुझे मेरे प्यार के बदले प्यार चाहिए। अगर वह नहीं है तो मैं तुम्हें मजबूर नहीं करूंगा।" " मैं सोच कर बताऊंगी।" मेरा यह जवाब महज एक औपचारिकता थी हम दोनों को यह पता था कि अभी हमारी और भी मुलाकाते होनी है। विमल के चेहरे पर संतुष्टि पूर्ण मुस्कान रची बसी थी। मुझे भी अंदेशा हो चला था कि मेरा कुछ उस शाम विमल के पास रह गया था। यह कुछ मेरा दिल है, या चैन करार, या सहानुभूति, या फिर यह सभी; यह जान पाना उस वक्त मेरे लिए मुश्किल था। अमलतास और गुलमोहर के वृक्ष पूर्ण सौंदर्य से लकदक हर तरफ ग्रीष्म में बसंत का बोध करा रहे थे। मेरा दिल भी इनकी तरह ही प्यार के लाल पीले रंगों से ओतप्रोत होने के लिए बेकरार हो चला था। धीरे-धीरे मुझे प्यार में जुदाई कितनी कठिन होती है यह पता चला और मैंने अपने जीवन की सबसे लंबी गर्मी की छुट्टियां की व्यतीत कीं। एक-एक दिन एक युग की तरह बीत रहा था। विमल की बातें बार-बार मन में दोहराती थी। उसका आकर्षक व्यक्तित्व अक्सर आंखों के सामने आ जाता। 1-2 मुलाकातों में प्यार कैसे हो सकता है भला क्या पहली नजर क्या प्यार इसी को कहते हैं या फिर यह महज कुछ वक्त का आकर्षण है! आज मैं यह पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वह प्यार का ही रंग चढ़ा था मुझ पर जो गुजरी वक्त के साथ जरा भी धूमिल नहीं हुआ है। वह अद्भुत अहसास आज भी हम दोनों के दिलों में जिंदा है। मैं क्या करूं कि विमल भूल जाये मुझे! मुझे कोई हक नहीं उसकी जिंदगी यूं बर्बाद करने का। गर्मी की छुट्टियां खत्म होते-होते मैं विमल से मिलने के लिए आतुर हो चली थी। कॉलेज के पहले दिन मैं 1 घंटे पहले पहुंच गई। ध्येय था किसी भी तरह उसकी एक झलक पा लेना। मगर यह पागल मन एक झलक से कहां संतुष्ट होता है! हम दोनों अपनी-अपनी कक्षाएं छोड़कर इतनी लंबी जुदाई की तड़प को कम करने लगे। दिन-ब-दिन मुलाकातें और बातें बढ़ती गई। हम अक्सर उन बदनाम से सफेद घुमावदार सीढियों के किसी स्याह से कोने में घंटों बैठकर मोहब्बत के कसमों-वादों में खो जाते। जिन रास्तों से गुजरना कभी मेरी कुछ समय बचाने की मजबूरी हुआ करती थी, वही रास्ते अब अपने पसंदीदा शख्स के साथ समय बिताने की मेरी मजबूरी बन चुकी थी। पहले मैं अपनी सहेलियों को लेक्चर मिस ना करने की सलाह दिया करती थी, अब खुद लेक्चर में ना जाने के अजीबोगरीब बहाने बुना करती थी। पूरी दुनिया मानो हमारी मोहब्बत की चासनी में डूब चुकी थी। हर तरफ खुशियां थी, हर लम्हा मुबारक था। जब तक की हमारी जुदाई का फरमान जारी ना हो गया था। इसके आगे का घटना चक्र आज दोहराने की हिम्मत नहीं। आज ही तो मिलकर आई हूं अपने प्रियतम से। अपने विमल को देखा है आज। कम से कम आज तो आंसुओं के साथ नहीं सोऊंगी। नफरत से ही सही पूरे 10 वर्षों के बाद उसकी निगाहों ने देखा है मुझे। आज का दिन अहम है मेरी जिंदगी में। मेरी पहले से उबाऊ दिनचर्या में एक बेचैनी व हर पल किसी के इंतजार का अतिरिक्त अनचाहा बोझ सा जुड़ गया। जितनी देर क्लीनिक में होती आंखें उस एक व्यक्ति को देखना चाहती जिससे कभी मैंने अपनी जिंदगी से अपनी मर्जी से निकाल बाहर किया था। कहते हैं कि प्यार में प्रेमी इतने दुस्साहसी हो जाते हैं कि अपने प्यार की खातिर पूरी दुनिया से अकेले ही लड़ लेते हैं। फिर मैं क्यों नहीं लग पाई दुनिया से? क्या मेरा प्यार सच्चा नहीं था? क्यों मैंने अपने प्रेमी से अलग रहने का दुखदाई रास्ता चुना? शायद प्यार की परिणति एक दूसरे के साथ से ज्यादा एक दूजे से बिछोह में होती है। घर पर मेरी शादी की बात चलने लगी थी और एक-के-बाद एक रिश्ते मेरे लिए आने लगे। रोज डर के साए में जीते जीते आखिरकार एक दिन हिम्मत करके मैंने पापा को विमल के बारे में बताया। वैसे तो मेरे पापा काफी सख्त और गुस्सैल व्यक्ति थे, मगर मालूम नहीं क्यों उन्होंने मुझे एक शब्द भी नहीं कहा। मुझे डांट लेते, पीट लेते तो बेहतर था। उनका मुझे कुछ ना कहना मुझे कमजोर कर गया। फिर शाम होते-होते पापा की तबीयत इतनी बिगड़ी कि उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने बताया कि हार्ट अटैक है। दो दिनों तक वे जिंदगी और मौत से जूझते रहे बचने की संभावना बहुत कम थी। घरवालों ने मुंह खोल कर तो कुछ नहीं कहा मगर सभी की निगाहें मुझे यूं घूर रही थीं मानो यह सारा किया-धरा मेरा हो। वैसे देखा जाए तो था भी। उस वक्त मैंने जाना कि कभी-कभी खामोशी की ताकत शब्दों से ज्यादा होती है। तीसरे दिन जाकर पापा की हालत थोड़ी संभली। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और फिर जो कहा उससे मुझे नासमझ और गैर जिम्मेदार होने का एहसास हुआ। " बेटे जब मेरी और तेरी मम्मी की शादी हुई थी तब हम एक दूसरे को जानते तक नहीं थे। पहले शादी हुई फिर हमने प्यार किया। मेरे सिर पर कई जिम्मेदारियां थी उस वक्त। जब भी कुछ सोचा तो पहले घर-परिवार के लिए सोचा। माता-पिता की काफी उम्मीदें जुड़ी थी मुझसे। मैंने और तुम्हारी मम्मी दोनों ने उन उम्मीदों को पूरा करने की कोशिश की। हमारा सुख-दुख केवल हमारा नहीं था, पूरा परिवार उस से जुड़ा था। अब जमाना बदल गया है जानता हूं, मगर तुम से मेरी बहुत उम्मीद थी; अभी भी है। मैं तुम्हें यह नहीं कहूंगा कि अपनी पसंद की शादी मत करो। मगर एक बार यह जरूर सोचना कि जिस 6 महीने या साल भर के प्यार की वजह से पूरे 24 वर्षों के रिश्तो को नजरअंदाज कर रही हो अगर उसने कभी तुम्हारा साथ छोड़ दिया फिर कौन साथ देगा तुम्हारा? मैं या बाकी घर वाले तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे। जो भी फैसला लेगी वह शत-प्रतिशत तुम्हारा होगा, क्योंकि यह तुम्हारी जिंदगी है और तुम्हें ही जीनी है। पापा ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह इस शादी के पक्ष में नहीं है, मगर उन्होंने हां या ना का फैसला मेरे ऊपर ही छोड़ दिया था। पापा ने जो चाल चली थी उसमें पूरी तरह कामयाब हुए। शायद वे खुलकर विरोध करते तो मेरे लिए मेरे पसंद का निर्णय लेना आसान होता, मगर उन्होंने चुप रहकर जो दांव चला वह अपने निशाने पर बैठा। मनोविज्ञान की पढ़ाई तो मैंने की मगर उसका व्यवहारिक पक्ष मेरे पिता जानते थे। मन ही मन मैं जानती थी कि विमल मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा। मगर ऐसे परिवार को मैं कैसे छोड़ देती जो मुझ पर अपनी जान छिङकता है। प्यार और जंग में मैंने अपने प्यार को हार जाने दिया। अब समय के एक लंबे सफर को तय कर अनुमान लगाना चाहती हूं कि अपने प्यार को दांव पर लगाने का मेरा फैसला सही था तो मेरी अंतरात्मा हां नहीं कह पाती। मैंने विमल से झूठ कहा कि किसी की शादी में शामिल होने के लिए मैं अपने गांव जा रही हूं। मुझे बहुत उदास देखकर विमल ने कहा भी तुम केवल 3 महीने के लिए मुझसे जुदा हो रही हो मगर चेहरे पर तो ऐसे भाव सजा रखे हैं मानो अब हम कभी नहीं मिलेंगे। कितना सही था वह। उसकी माहौल को हल्का बनाने के लिए कही गई इस बात ने मेरे बमुश्किल रोके आंसुओं के बांध को तोड़ दिया। वह मुझसे पूछता रहा कि क्या बात है, कुछ और बात तुम्हें परेशान कर रही है तो बताओ। मगर मैं किस मुंह से बताती कि मैं किसी और से शादी करने के लिए उससे दूर जा रही हूं। अगर उस दिन मैं उसे सच बता देती तो वह मुझे अपना निर्णय बदलने के लिए मना ही लेता। शायद मुझे पता था कि मैं कमजोर हूं अतः यह मौका मैं उसे देना नहीं चाह रही थी। अब उम्र के इस पड़ाव पर सोचती हूं तो लगता है शायद वह बेहतर विकल्प था। मेरे विमल और सतीश हम सभी के लिए। घर वालों का साथ तो धीरे-धीरे छूट ही गया। जिंदगी में इतना अकेलापन तो ना रहता। आज सोमवार का दिन है और सामान्यतया आज के दिन क्लीनिक में भीड़ कम ही होती है। ढलते दिन के साथ मेरी ऊब बढ़ती गई। मगर फिर जो आया उसने मेरी सारी बोरियत व सुस्ती पल भर में उड़न छू कर दी। मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, मगर वह विमल ही निकला। पिछली मुलाकात से बड़ी अलग है यह मुलाकात। उस दिन हम भीड़ के शोरगुल में मिले थे और आज बंद कमरे में बंद कमरे की चुभती तन्हाई में, उस दिन दोनों मुखर थे और आज दोनों चुप हैं। चंद पलों में ही ऐसा एहसास होने लगा मानो कब से यूं खामोश बैठे हो। इतना चुप तो हम एक दूसरे के साथ कभी नहीं रहे तब भी नहीं जब हम पहली बार मिले थे। फिराक गोरखपुरी मेरे जेहन में मुखर हो गए- " रूठ कर तुझसे बहुत बेदर्द हम भी हो गए, एक खंजर हो गए जब से खींचे कातिल से हम।" आखिरकार मैंने अपनी खोई आवाज को टटोला और कहा " कैसे हो?" " आज नाम नहीं पूछेगी?" उसके सवाल में गुस्सा है, व्यंग्य है, जुदाई की तड़प है, और नकार दिए गए प्रेम का तीखा चुभता दर्द है। उसके एक सवाल में कई सवालों के परत एक दूसरे से गुथे हैं। मगर मेरी ना तो इच्छा है और ना ही जरूरत कि मैं इन सवालों को परत दर परत पढ़ूं। मैं तो जल्दी से जल्दी अपनी रटी रटाई चंद पंक्तियां बोल लेना चाहती हूं जिन्हें मैं मन में रोज ही दोहराती हूं। अब तक तो खुद को सुनाती थी, आज मौका मिला है कि विमल को भी बता दूं । "पता है विमल, मुझे तुमसे कभी प्यार नहीं था। यह मुझे तब पता लगा जब मैं सतीश से मिली। जब पहली बार उसे देखा तब मुझे एहसास हुआ कि पहली नजर का प्यार किसे कहते हैं। जब उससे जान पहचान हुई तो धीरे-धीरे मैंने जाना कि वी आर मेड फॉर ईच अदर।" "मैं इतना भी बुद्धू नहीं हूं श्वेता कि यह न देख पाऊं कि सामने वाला मुझे प्यार करता भी है या नहीं।" "कहते हैं कि प्यार अंधा होता है, फिर कैसे देख पाते तुम? तुम्हें मुझसे प्यार हुआ और फिर तुमने मुझे यह मानने के लिए मजबूर कर दिया कि मुझे भी तुम ही से प्यार है। हमारे सपने भी कितने अलग थे- तुमको हाउसवाइफ चाहिए थी और मैं घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर पैसे कमाना चाहती थी, आत्मनिर्भर होना चाहती थी। तुम्हें बच्चे चाहिए थे, मैं जिम्मेदारी नहीं चाहती थी।" यह सब कहते-कहते मेरी सांसे मानो रुक सी गई और मैंने चुपके से दांतों के बीच जीभ दबाई; जैसे हम बचपन में झूठ बोलने पर किया करते थे। सतीश के बाप ना बने पाने की कमी को मैंने अपना हथियार बनाकर इस्तेमाल किया है। विमल के चेहरे पर अविश्वास का भाव है और क्रोध का स्थान धीरे धीरे मायूसी ले रही है। " ऐसा नहीं हो सकता श्वेता! मैं इतना गलत नहीं हो सकता! यह सब जो भी तुम कह रही हो वह सरासर गलत है।" " मैं भला झूठ क्यों बोलूंगी विमल? वह भी उम्र के इस पड़ाव में जब मानसिक तौर पर हम सबसे ज्यादा संतुलित होते हैं।" " शायद इसलिए कि हम मानसिक रूप से सबसे ज्यादा संतुलित हैं। शायद तुम यह चाहती हो कि मैं ऐसा समझूं कि तुम्हें मुझसे प्यार नहीं है।" विमल शत-प्रतिशत सच कह रहा है। उसकी समझदारी और हाजिर जवाबी का जवाब नहीं है। मगर मुझे यह जंग हारना नहीं है। जीतना है हर हाल में। " यह तुम्हारी मर्जी है कि तुम क्या सच समझते हो। मगर उससे सच्चाई बदलेगी नहीं। तुम्हें शायद बुरा लगे मगर यह एक सच्चाई है कि सतीश के मुकाबले तुम कहीं नहीं टिकते। अच्छा एक बात बताओ- अगर मुझे तुमसे प्यार होता भी तो क्या कर लेते आज? मुझसे शादी करते, या फिर तुमसे संबंध रखने को विवश करते? सतीश को सब कुछ बता देने की धमकी देते, क्या करते तुम?" अपनी सारी एक्टिंग इकट्ठा करके बहा दी मैंने। पता नहीं भाव कितने सही बैठे। 2 मिनट की चुप्पी के बाद विमल ने कहा- "शायद तुम मुझे समझ ही नहीं पाई श्वेता। मैंने तुम्हें सच्चा प्यार किया है एक सच्चा आशिक कभी नहीं चाहता कि उसकी माशूका को किसी तरह का भी कष्ट हो। तुम्हारी खुशी मेरी खुशी है। तुम्हें किसी भी तरह का कष्ट पहुंचाना कभी मेरा उद्देश्य नहीं रहेगा।" "फिर मुझसे दोबारा कभी मिलने की कोशिश ना करना। अब जाओ यहां से, मैं बहुत व्यस्त हूं।" दिल भर आया। बरसों से प्यार के इस रिश्ते की जो पतली सी डोर मैंने संभाली हुई थी, अब उसका भी सहारा गया। विमल के आने की आस अब नहीं रहेगी। क्यों किया मैंने ऐसा? क्यों नहीं अपने गुनाहों की माफी मांग ली? शायद इसलिए कि अब भी वह अपनी जिंदगी से मुझे निकाल कर आगे बढ़ सके। पता नहीं विमल ने अभी तक शादी भी की या नहीं। पता करने की जरूरत भी नहीं। मरीज से व्यक्तिगत रिश्ते जितने कम हो इलाज करना उतना ही आसान होता है। आहिस्ता-आहिस्ता विमल हारे हुए जुआरी की तरह खड़ा हुआ। एक सदी लगा दी उसने दरवाजे से बाहर निकलने में। एक सदी तक मैंने अपनी आंखों में आंसुओं की कतार रोके रखी। अब जब यह बाहर निकली हैं तो पता नहीं कितने सदियों तक बहती रहेंगी। खिड़की के बाहर सब कुछ धुंधला सा है। पता नहीं यह बारिश केवल मेरे अंदर हो रही है या बाहर प्रकृति भी रो रही है- एक प्यार की दर्दनाक मौत पर। इश्क हमारा आह ना पूछो क्या क्या रंग बदलता है, खून हुआ, दिल दाग हुआ, फिर दर्द हुआ, फिर गम है अब।