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दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांग उटांग / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023

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स्वप्न के भीतर स्वप्न,
विचारधारा के भीतर और
एक अन्य
सघन विचारधारा प्रच्छन!!
कथ्य के भीतर एक अनुरोधी
विरुद्ध विपरीत,
नेपथ्य संगीत!!
मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क
उसके भी अन्दर एक और कक्ष
कक्ष के भीतर
एक गुप्त प्रकोष्ठ और

कोठे के साँवले गुहान्धकार में
मजबूत...सन्दूक़
दृढ़, भारी-भरकम
और उस सन्दूक़ भीतर कोई बन्द है
यक्ष
या कि ओरांगउटांग हाय
अरे! डर यह है...
न ओरांग...उटांग कहीं छूट जाय,
कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो।
क़रीने से सजे हुए संस्कृत...प्रभामय
अध्ययन-गृह में
बहस उठ खड़ी जब होती है--
विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
सुनता हूँ ध्यान से
अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और
पाता हूँ अक्समात्
स्वयं के स्वर में
ओरांगउटांग की बौखलाती हुंकृति ध्वनियाँ
एकाएक भयभीत
पाता हूँ पसीने से सिंचित
अपना यह नग्न मन!
हाय-हाय औऱ न जान ले
कि नग्न और विद्रूप
असत्य शक्ति का प्रतिरूप
प्राकृत औरांग...उटांग यह
मुझमें छिपा हुआ है।

स्वयं की ग्रीवा पर
फेरता हूँ हाथ कि
करता हूँ महसूस
एकाएक गरदन पर उगी हुई
सघन अयाल और
शब्दों पर उगे हुए बाल तथा
वाक्यों में ओरांग...उटांग के
बढ़े हुए नाख़ून!!

दीखती है सहसा
अपनी ही गुच्छेदार मूँछ
जो कि बनती है कविता

अपने ही बड़े-बड़े दाँत
जो कि बनते है तर्क और
दीखता है प्रत्यक्ष
बौना यह भाल और
झुका हुआ माथा

जाता हूँ चौंक मैं निज से
अपनी ही बालदार सज से
कपाल की धज से।

और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो
करता हूँ धड़ से बन्द
वह सन्दूक़
करता हूँ महसूस
हाथ में पिस्तौल बन्दूक़!!
अगर कहीं पेटी वह खुल जाए,
ओरांगउटांग यदि उसमें से उठ पड़े,
धाँय धाँय गोली दागी जाएगी।
रक्ताल...फैला हुआ सब ओर
ओरांगउटांग का लाल-लाल
ख़ून, तत्काल...
ताला लगा देता हूँ में पेटी का
बन्द है सन्दूक़!!
अब इस प्रकोष्ठ के बाहस आ
अनेक कमरों को पार करता हुआ
संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में
अदृश्य रूप से प्रवेश कर
चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!!
सोचता हूँ--विवाद में ग्रस्त कईं लोग
कई तल

सत्य के बहाने
स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना।
अहं को, तथ्य के बहाने।
मेरी जीभ एकाएक ताल से चिपकती
अक्ल क्षारयुक्त-सी होती है
और मेरी आँखें उन बहस करनेवालों के
कपड़ों में छिपी हुई
सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखती!!
और मैं सोचता हूँ...
कैसे सत्य हैं--
ढाँक रखना चाहते हैं बड़े-बड़े
नाख़ून!!

किसके लिए हैं वे बाघनख!!
कौन अभागा वह!! 

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रचनाएँ
प्रतिनिधि कविताएँ
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गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रतिनिधि कविताएँ।
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घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा तेरी प्रत्यंचा का कम्पन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पन्द हृदय के अन्धकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाण की नोकों पर जीवन-सँचार करेगा।

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चाहिए मुझे मेरा असंग बबूल पन / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मुझे नहीं मालूम मेरी प्रतिक्रियाएँ सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य सुबह से शाम तक मन में ही आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ अपनी ही काटपीट ग़लत के ख़िलाफ़ नित स

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जब दुपहरी ज़िन्दगी पर... / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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जब दुपहरी ज़िन्दगी पर रोज़ सूरज एक जॉबर-सा बराबर रौब अपना गाँठता-सा है कि रोज़ी छूटने का डर हमें फटकारता-सा काम दिन का बाँटता-सा है अचानक ही हमें बेखौफ़ करती तब हमारी भूख की मुस्तैद आँखें ही थक

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दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांग उटांग / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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स्वप्न के भीतर स्वप्न, विचारधारा के भीतर और एक अन्य सघन विचारधारा प्रच्छन!! कथ्य के भीतर एक अनुरोधी विरुद्ध विपरीत, नेपथ्य संगीत!! मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क उसके भी अन्दर एक और कक्ष कक्ष क

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नाश देवता / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा, तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

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वे बातें लौट न आएँगी / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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खगदल हैं ऐसे भी कि न जो आते हैं, लौट नहीं आते वह लिए ललाई नीलापन वह आसमान का पीलापन चुपचाप लीलता है जिनको वे गुँजन लौट नहीं आते वे बातें लौट नहीं आतीं बीते क्षण लौट नहीं आते बीती सुगन्ध की सौर

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पता नहीं... / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!! यह राह ज़िन्दगी कीजिससे जिस जगह मिले है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के जिनके भीतर है कोई घर बाहर प्रसन्न पीली कनेर बरगद ऊँचा,

8

पूंजीवादी समाज के प्रति / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद – जितना ढोंग, जितना भो

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ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन

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ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन

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बहुत दिनों से / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना और कि साथ यों साथ-साथ फिर बहना बहना बहना मेघों की आवाज़ों से कुहरे की भाषाओं से रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोन

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बेचैन चील / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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बेचैन चील!! उस जैसा मैं पर्यटनशील प्यासा-प्यासा, देखता रहूँगा एक दमकती हुई झील या पानी का कोरा झाँसा जिसकी सफ़ेद चिलचिलाहटों में है अजीब इनकार एक सूना!! 

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भूल-ग़लती / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक, आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी, खड़ी हैं सिर झुकाए सब कतारें बेजुबाँ बेबस सलाम में, अनगिनत खम्भों

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मुझे कदम-कदम पर / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं बांहें फैलाए! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ, बहुत अच्छे लगते हैं उनके तजुर्बे और अपने सपने.... सब सच्चे लगते हैं, अजीब-

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मुझे पुकारती हुई पुकार / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीँ... प्रलम्बिता अंगार रेख-सा खिंचा अपार चर्म वक्ष प्राण का पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह जीवनानुभूति की गभीर भूमि में। अपुष्प-पत्र, वक्र-श्याम झाड़-झंखड़ों

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मेरा असंग बबूलपन / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मुझे नहीं मालूम मेरी प्रतिक्रियाएँ सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य सुबह से शाम तक मन में ही आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ अपनी ही काटपीट ग़लत के ख़िलाफ़ नित स

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मेरे जीवन की / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मेरे जीवन की धर्म तुम्ही-- यद्यपि पालन में रही चूक हे मर्म-स्पर्शिनी आत्मीये! मैदान-धूप में-- अन्यमनस्का एक और सिमटी छाया-सा उदासीन रहता-सा दिखता हूँ यद्यपि खोया-खोया निज में डूबा-सा भूला-सा

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मैं उनका ही होता / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मैं उनका ही होता जिनसे मैंने रूप भाव पाए हैं। वे मेरे ही हिये बंधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा, ऐसे किंतु चाव उनके हैं। मैं ऊ

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मैं तुम लोगों से दूर हूँ / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है। मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है, अकेले में साहचर्य का हाथ है,

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मृत्यु और कवि / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती, जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर बहुत स

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रात, चलते हैं अकेले ही सितारे / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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रात, चलते हैं अकेले ही सितारे। एक निर्जन रिक्त नाले के पास मैंने एक स्थल को खोद मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर खोदा और खोदा और दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर। सुनाई दे रहे थे स्वर – बड

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लकड़ी का रावण / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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दीखता त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से अनाम, अरूप और अनाकार असीम एक कुहरा, भस्मीला अन्धकार फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; लटकती हैं मटमैली ऊँची-ऊँची लहरें मैदानों पर सभी ओर लेकिन उस कुहरे से

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विचार आते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं ...पत्थर ढोते

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सहर्ष स्वीकारा है / गजानन माधव मुक्तिबोध

13 अप्रैल 2023
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ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है। गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब यह विचार-वैभव सब दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब म

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