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दीवारें

13 अगस्त 2016

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धुप काफी थी तो मैंनेे दीवारें बना लिए उससे बचने के लिए

पहले छत पक्की नहीं थी लेकिन पेड़ था छाँव देने के लिए

पेड़ से गिरी टहनियाँ कभी गिर कर घायल भी कर देती

लेकिन मिलने वाली छाँव के बदले वो कुछ नहीं था

बारिश भी बहोत होती थी मगर उसका कुछ एहसास नही होता

लेकिन कुछ तूफ़ान आते और उस पेड़ को कमजोर बना देते

पेड़ को कमजोर होते देख मैंने अपनी दीवारें और मजबूत बना ली

झरोके खुले रखना तो कबका मैंने छोड़ दिया था

दीवारों के बीच मिली ख़ामोशी, रौशनी से ज्यादा अच्छी लगने लगी थी ।

फिर एक और बारिश हुई, इसबार तूफ़ान साथ में था

उस पेड़ को जड़ से उखाड़ कर चला गया

उसने मुझे आखरी बार भिगाया

डर कर मैंने घर की छत और मजबूत बनायीं

रोशनदान को भी लकडी के टुकड़े से ढक दिया

अब न कोई बारिश होती है न तूफ़ान आता

धुप से भी शिकायत नही होती

लेकिन इस सबमे मै ठंडी हवाओं से नाता टूट चूका है,

न सुबह की किरणे न शाम का सूरज देख पाता हूँ

पर अक्सर रात में अपने तारे ढूँढने छत पर चला जाता हूँ

उन्हें गिन लेता हूँ और खुश हो जाता हूँ

ठंडी हवायें, सुबह की किरणे इन सबका मलाल नहीं रहता

मैं अक्सर रात में अपने तारे ढूँढने निकल आता हूँ

उस दरवाजे से, जो बंद तो दिखता हैं

पर मैं कभी उसपे ताला नहीं लगाता।

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