द्रोण को सहसा अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार पर विश्वास नहीं हुआ। परंतु ये समाचार जब उन्होंने धर्मराज के मुख से सुना तब संदेह का कोई कारण नहीं बचा। इस समाचार को सुनकर गुरु द्रोणाचार्य के मन में इस संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उनके लिये जीत और हार का कोई मतलब नहीं रह गया था। इस निराशा भरी विरक्त अवस्था में गुरु द्रोणाचार्य ने अपने अस्त्रों और शस्त्रों का त्याग कर दिया और युद्ध के मैदान में ध्यानस्थ होकर बैठ गए। आगे क्या हुआ देखिए मेरी दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया के छत्तीसवें भाग में।
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भीम के हाथों मदकल,
अश्वत्थामा मृत पड़ा,
धर्मराज ने झूठ कहा,
मानव या कि गज मृत पड़ा।
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और कृष्ण ने उसी वक्त पर ,
पाञ्चजन्य बजाया था,
गुरु द्रोण को धर्मराज ने ,
ना कोई सत्य बताया था।
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अर्द्धसत्य भी असत्य से ,
तब घातक बन जाता है,
धर्मराज जैसों की वाणी से ,
जब छन कर आता है।
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युद्धिष्ठिर के अर्द्धसत्य को ,
गुरु द्रोण ने सच माना,
प्रेम पुत्र से करते थे कितना ,
जग ने ये पहचाना।
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होता ना विश्वास कदाचित ,
अश्वत्थामा मृत पड़ा,
प्राणों से भी जो था प्यारा ,
यमहाथों अधिकृत पड़ा।
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मान पुत्र को मृत द्रोण का ,
नाता जग से छूटा था,
अस्त्र शस्त्र त्यागे थे वो ना ,
जाने सब ये झूठा था।
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अगर पुत्र इस धरती पे ना ,
युद्ध जीतकर क्या होगा,
जीवन का भी मतलब कैसा ,
हारजीत का क्या होगा?
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यम के द्वारे हीं जाकर किंचित ,
मैं फिर मिल पाऊँगा,
शस्त्र त्याग कर बैठे शायद ,
मर कामिल हो पाऊँगा।
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धृष्टदयुम्न के हाथों ने फिर ,
कैसा वो दुष्कर्म रचा,
गुरु द्रोण को वधने में ,
नयनों में ना कोई शर्म बचा।
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शस्त्रहीन ध्यानस्थ द्रोण का ,
मस्तकमर्दन कर छल से,
पूर्ण किया था कर्म असंभव ,
ना कर पाता जो बल से।
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अजय अमिताभ सुमन
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