इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है। अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।
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कुछ क्षण पहले शंकित था मन
ना दृष्टित थी कोई आशा ,
द्रोणपुत्र के पुरुषार्थ से
हुआ तिरोहित खौफ निराशा।
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या मर जाये या मारे
चित्त में कर के ये दृढ निश्चय,
शत्रु शिविर को हुए अग्रसर
हार फले कि या हो जय।
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याद किये फिर अरिसिंधु में
मर के जो अशेष रहा,
वो नर हीं विशेष रहा हाँ
वो नर हीं विशेष रहा ।
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कि शत्रुसलिला में जिस नर के
हाथों में तलवार रहे ,
या क्षय की हो दृढ प्रतीति
परिलक्षित संहार बहे।
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वो मानव जो झुके नहीं
कतिपय निश्चित एक हार में,
डग योद्धा का डिगे नहीं
अरि के भीषण प्रहार में।
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ज्ञात मनुज के चित्त में किंचित
सर्वगर्भा काओज बहे ,
अभिज्ञान रहे निज कृत्यों का
कर्तव्यों की हीं खोज रहे।
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अकम्पत्व का हीं तन पे मन पे
धारण पोशाक हो ,
रण डाकिनी के रक्त मज्जा
खेल का मश्शाक हो।
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क्षण का हीं तो मन है ये
क्षण को हीं टिका हुआ,
और तन का क्या मिट्टी का
मिटटी में मिटा हुआ।
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पर हार का वरण भी करके
जो रहा अवशेष है,
जिस वीर के वीरत्व का
जन में स्मृति शेष है।
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सुवाड़वाग्नि सिंधु में नर
मर के भी अशेष है,
जीवन वही विशेष है
मानव वही विशेष है।
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अजय अमिताभ सुमन
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