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एक प्यार का नगमा है 2

5 अक्टूबर 2024

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शाम 7:30 बजे नगमा जब घर वापस आई तो आंगन में कोई नहीं था किंतु बैठक खंड से आती ध्वनियां यह स्पष्ट कर रही थी कि घर पर कोई अतिथि आया हुआ है। उसे लगा कदाचित राधेय मिलने आया होगा इसलिए उसने खिड़की से ही भीतर झांककर देखा। पर भीतर तो दीना मौसी बैठी थी जो उसे फूटी आंख ना सुहाती थी, वो वहीं से उल्टे पैर लौट गई। अपने कक्ष में जाकर कुर्ता सलवार बदला और पुनः चल दी अपनी मोटी सखी के घर। 

उसकी मोटी सखी! यह उपनाम अम्मा ने ही दिया था बाईजी को, जब वह अपनी आयु की लड़कियों के साथ खेलने के स्थान पर रवीना बाईजी के घर बैठ उनके साथ गप्पे लडाती थी। पता नहीं क्यों पर उसे ऐसा लगता था जैसे बाईजी के साथ उसका कोई जनम जनमांतर का संबंध रहा है। जैसे इसके पहले वाले जन्म में वह दोनों सखिया ही थी पर इस वाले में उसने धरती पर आने में थोड़ी देर लगा दी और उसकी सखी, मोटी सखी हो गई!

वह हंसी, पर आज तो केवल उसकी मोटी सखी ही नहीं उसका बालपन का सखा भी होगा वहां पर!!
इस विचार से उसका मन प्रफुलित हो गया।
एक बारगी उसे यह विचार भी आया कि अपने साथ आशिमा को भी बाईजी के घर ले चले आखिरकार राधेय उसका भी तो बालपन का सखा था पर आशिमा अम्मा बाबा के साथ मौसी की आओभगत में बैठक खंड में बैठी थी यदि वह उसे बुलाने जाएगी तो उल्टा अम्मा उसे भी वही रोक लेगी इसलिए वह वहां से चुपचाप द्वार की और बढ़ गई। 

जब वह "मेकवान मेंशन" के बैठक खंड में आई तो सरोजीत मेकवान वहीं बैठे थे। वह अपना दीर्घ दृष्टि दोष (हाइपरोपिया) का चश्मा लगाए गौर से कुछ कागज पढ़ रहे थे।

" नमस्ते भाई जी।" नगमाने हाथ जोड़कर कहा।

उसका स्वर सुन उन्होंने ऊपर देखा,
" अरे अरे नगमा बेटा, आओ आओ आजकल कहां हो तुम? दिखती नहीं मुझे!" 
उन्होंने अपना चश्मा उतारकर बाजू में रख दिया। 

" मैं तो यही होती हूं भाई जी, बाईजी को रोज मिलने भी आती हूं, आप ही नहीं होय लागते घर पर।" नगमा ने पास आकर सोफे पर बैठते हुए कहा। 

" अरे हां भाई हां मैं भूल गया था मैं ही आजकल व्यस्त चल रहा हूं।" उन्होंने हंसते हुए कहा।

" अचानक इतनी व्यस्तता क्यों भाई जी? जब भी आती हूं दिखते ही नहीं आप।" नगमा ने पूछा।

" यहीं बस जमींदारी और फसल की कटाई छटांई, मौसम हो रखा है ना तो यही काम चलते रहते हैं बस, पर अच्छा है तुम अपनी बाईजी से मिलने आ जाया करती हो इससे अकेलापन नहीं होता उन्हें।"
सरोजीतने अपनेपन से कहा। 

" कैसे नहीं आय लगुंगी, मेरी बालपन की सहेली जो है वह।" कहते हुए नगमा हंसने लगी।

" वह भी यही कहती है कि तुम्हारे आने से उसकी मायके वाली सहेलियों की कमी पुरी हो जाती है।"
सरोजीत ने भी हंसते हुए उत्तर दिया। 

"अभी है कहां बाईजी वैसे?" नगमा ने पूछा। 

"अंदर भोजन कक्ष में है भोजन लगाने की तैयारी कर रही है।" सरोजीत ने कहा।

" मैं उनसे मिलकर आय लागु।" नगमा ने खड़े होते कहा।

" जाओ भाई जाओ, वह भी तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही होगी।" सरोजीतने मुस्कुरा कर कहा। 

नगमाने जाने से पहले पैर छूकर उसका आशीर्वाद लिया। 

" मेरा आशीर्वाद तो सदैव आपके साथ है बेटा, जीती रहो।" सरोजीत ने उसके माथे पर हाथ फेरा और नगमा मुस्कुरा कर भीतर की ओर बढ़ गई।

" अच्छा सुनो घर पर सब कैसे हैं? आशिमा कैसी है और मेरा दोस्त मनसौर कैसा है?"
सरोजीत ने अचानक पीछे से उसे रोका।

"एक दीवार से लगे ही तो घर हैं आप दोनों के, खुद ही चलकर कुशल मंगल पूछ लागीए।"
नगमा ने उत्तर के बदले आमंत्रण दिया।

" आऊंगा, वहां भी आऊंगा बस एक बार यह कटाई छंटाई का मौसम बीत जाए फिर अवश्य आऊंगा।"
सरोजितने मुस्कुरा कर उसका आमंत्रण टाला।

" घर पर सब ठीक है वैसे, अम्मा बाबा आशिमा सब ठीक है।"
नगमाने फिर प्रश्न का उत्तर दिया।

"हम्म और आशिमा की पढ़ाई कैसी चल रही है? पढ़ने में बड़ी होशियार बेटी है।"
सरोजितने आगे पूछा।

" उसकी पढ़ाई तो हमेशा ठीक ही चलती है भाई जी पढ़ाई में दिक्कत तो केवल मुझे ही होय है।" नगमा ने हंसते हुए उत्तर दिया। उसके उत्तर पर सरोजित भी हंसने लगा।

" जाओ जाओ, कब से द्वार पर खड़ी हो जाओ अपनी बाईजी से मिल लो।" उसने नगमा को और ना रोकते हुए कहा।

नगमा जब भीतर आई तो रवीना भोजन पटल पर थालियां सजा रही थी। नगमा को आते देखा उसने कहा,
" आओ आओ तुम्हें ही याद कर रही थी मैं।"

"वह देखो रसोई घर में वह जो बर्तन पड़े हैं उसमें मैंने तुम्हारे घर ले जाने के लिए कुछ भोजन पैक किया हुआ है, आज जब घर जाओ तो याद से लेकर जाना।"
रवीना ने रसोई कक्ष में पटल पर पड़े कुछ बर्तनों को दिखा कर कहा।

नगमा उन्हें निकट से देखने के लिए रसोई घर में गई, "क्या है इसमें?"
उसने उत्सुकतावश एक बर्तन पर से ढक्कन उठाते हुए पूछा।

"उम्मम पुरणपोळी..."
वह उत्साह से बोली। 

" हां वो राधेय के लिए बनाया था ना वह सब मैंने तुम्हारे और आशीमा के लिए भी बांध दिया है। अपने साथ घर ले जाना और अम्मा को भी खिलाना, मेरी ओर से पूछना उन्हें कैसा लगा।"
रवीना ने थालियों में भोजन परोसते हुए कहा।

आपने चाहे कितने ही प्रेम से बनाया हो अम्मा ने तो इसमें कमियां ही निकालनी है इससे तो अच्छा है उनका भाग भी मैं ही खाय जाऊं! उसने मन ही मन सोचा और सारे बर्तन लिए रसोई घर से बाहर आ गई।

" सिर्फ दो ही थालिया क्यों बाईजी राधेय अभी तक घर नहीं आय लगा?" नगमाने पटल पर पड़ी दो ही थालियों को देखते हुए कहा।

" नहीं नहीं आ गया है ना वह ऊपर अपने कक्ष में है।" रवीना ने आसन पर बैठते हुए उत्तर दिया।

" बहुत थक गया है ना इसलिए नीचे नहीं आने वाला उसकी थाली तुम ऊपर पहुंचा आओगी?" रवीना ने पूछा।

"अरे यह भी कोई पूछने की बात है इसी बहाने उससे मिल भी लुंगी।"
नगमा ने अपने हाथ में पकड़े सारे बर्तन वही पटल पर रखें और राधेय के लिए थाली सजा कर उसके कक्ष की ओर चल दी।

" और सुनो जाते वक्त अपने भाई जी को भी यहां भेज देना।" रवीना ने पीछे से स्वर दिया।

" ठीक है बाईजी।"
कहती हुई नगमा आगे बढ़ गई।

जब तक वह राधेय के कक्ष तक नहीं पहुंची थी तब तक उससे मिलने के लिए उत्साहित थी किंतु जैसे-जैसे कक्ष पास आता जा रहा था उसका सारा उत्साह, सारा जोश काफुर होता जा रहा था। अचानक ऐसा लगने लगा था जैसे किसी ने उसके पांव में बेड़िया डाल दी हो। सुबह से जिसके आने के प्रतीक्षा कर रही थी अब जब पता था कि वह आ गया है तो पता नहीं क्यों उसके सम्मुख जाने में एक विचित्र सा संकोच हो रहा था, लज्जा हो रही थी। पर क्यों! वह तो ऐसी नहीं थी, लज्जा और संकोच जैसे शब्द तो कभी उसके शब्दकोश में रहे ही नहीं, वह तो कभी किसी अनजान से बात करने में भी नहीं कतराती थी तो यह तो फिर भी उसका पुराना मित्र था, उसका बालपन का सखा! 

सारे विचारों को एक तरफ कर उसने द्वार खटखटाया पर अंदर से कोई ध्वनि नहीं आई। उसने पुनः खटखटाया, इस बार अंदर से एक स्वर आया,
"आ जाइए।"

उसने घबराते हुए द्वार को धीरे से खोला और अंदर प्रवेश किया। भीतर आते ही उसकी दृष्टि सामने खड़े सफेद तोलिए से अपने बाल पोंछते तथा शरीर पर केवल एक श्वेत स्वच्छ धोती पहने और उसकी ओर पीठ किए खड़े एक लड़के पर पड़ी। लड़का एक उसी के कद जितने विशाल दर्पण के सामने खड़ा होकर अपने बाल सुखा रहा था। जैसे ही उसकी दृष्टि दर्पण में दिख रहे नगमा के प्रतिबिंब पर पड़ी वह एकदम से इस ओर पलटा। उसके इस तरह पलटने से नगमा भी एकदम से हड़बड़ा गई। 

"क्षमा करना.." कहते हुए लड़के ने तुरंत पास में पड़ा उपरन अपने धड पर डाल लिया पर तब तक देर हो चुकी थी नगमा उसके अधगीले बलिष्ट, मांसल तथा उस पर गीले होने के कारण चिपक चुके जनेऊ वाले आकर्षक देह को निहार चुकी थी। वास्तव में उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था किंतु दृश्य था ही इतना मोहक की ऐसी चेष्टा करने के लिए हम उसकी आंखो को दोष नहीं दे सकते। 

उसने हड़बड़ी में भोजन की थाली पटल पर रखी, 
"वह मैं....आपका भोजन लेकर आई थी।" 
उसने अपने पैरों को देखते हुए कहा।

"हं...हहा...हां मेरा भोजन.... हां वो मैंने मंगाया था।"
राधेय ने हकलाते हुए उत्तर दिया। 

ऐसी विचित्र परीस्थिति निर्मित हो गई थी की दोनों ही कुछ समय के लिए एक दूसरे से नज़रे चुराते रहे। धीरे-धीरे आंख उठा कर राधेय ने नगमा की ओर देखा। वह अपनी गर्दन को अपने शरीर से नब्बे की डिग्री पे मोड़कर अपना सर जमीन में धंसा के खडी थी।  राधेय ने कुछ कहने की कोशिश की पर बोल नहीं पाया मुंह से सिर्फ हवा बाहर निकली। उसने पुनः प्रयत्न किया और बहुत परिश्रम से बस इतना बोल पाया, "क...कैसी हो नगमा?"

वही उसका स्वर सुनते ही नगमा की गर्दन के पीछे के बाल खड़े हो गए शरीर में अचानक झुरझुरी दौड़ गई,
अपनी जीह्वा को शब्द बाहर निकालने के लिए मजबूर करती हुई वह बोली, 
"अच्छी हूं।" 

पूछना तो चाहती थी कि वास्तव में तुम्हें याद हूं मैं या बाईजी से पूछ रखा है पर हाय ये जीभ, स्वतंत्रता दिवस की परेड में 'सावधान' खड़े सैनिक की भांती जम के खडी रही गई थी, हीलने डुलने का नाम ही नहीं ले रही थी। 

"अच्छा है।" राधेय नगमा के चेहरे के अलावा कमरे की हर वस्तु को तक रहा था। 
" तुम्हें याद करता था मैं वहां, मेरा....मेरा तात्पर्य है तुम्हें और आशीमा दोनों को।"
वह अपनी गर्दन के पीछे हाथ फेरने लगा। 

" अच्छा?" 
बोलना चाहती थी विधान वाक्य के रूप में बोल गई प्रश्नात्मक स्वर में। उसने जोर से आंखें भिंच ली और धरती मां को इतनी शिद्दत से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की कि यदि वह दूसरे तल के बदले ग्राउंड फ्लोर पर खड़ी होती तो उस पर तरस खाकर एक बार को धरती मां भी मार्ग दे देती। 

" अच्छा तो मैं चलती हूं, राधे-राधे।" राधे राधे बोलते वक्त एक बार उसने आंख उठाकर राधेय की आंखों में देखा और उसे तुरंत समझ आ गया कि उसने फिर एक बार गलती कर दी क्योंकि उसके आखिरी दो शब्द पर राधिक के मुख पर आया वह हल्का सा स्मित अब उसे पूरी रात जगाए रखने वाला था। 

" जी भोजन को यहां तक लाने का कष्ट करने के लिए धन्यवाद और.....राधे राधे।" राधिक के मुख का हल्का सा स्मित चौड़ा हो गया था यह बात उसके स्वर में भी प्रतिबिंबित हो रही थी। और अब उसका हकलाना भी बंद हो गया था।

नगमा "हम्म" कहती हुई तुरंत वहां से दौड़ गई।

जब वह अपने घर पहुंची तो घर में सन्नाटा लग रहा था। इसका अर्थ है दिना मौसी चली गई होगी! उसने सोचा। पर जैसे ही वह सिढींयो तक पहुंची पीछे से उसकी अम्मा की आवाज आई,
" कहां थी अब तक?"

" क्या अम्मा रोज-रोज एक ही सवाल, बाईजी के यहां थी और कहां होऊंगी?" उसने चिढ़कर उत्तर दिया और बिना रुके सीढ़ियां चढ़ने लगी क्योंकि अभी रुक नहीं सकती थी अभी तो जब तक अकेले में जाकर दिमाग शांत नहीं करती चैन नहीं आएगा।

" तेरे बाबा बुला रहे हैं तुझे।" पीछे से मां की दहाड़ सुनाई दी।

" अब क्या हो गया? अब कौन सी बात पे तुमने मेरे खिलाफ कान भरे हैं बाबा के?"
वह चिड़चिड़ाती नीचे आई। 
एक तो यह अम्मा को क्या पता मेरा दिल ए हाल... मेरा मतलब है, हाल ए दिल ये मुआ दिमाग भी सटक गया है! 

" मुझे क्या पता तेरे बाबा ने क्यों बुलाया है, जाकर उन्हीं से पूछ।" सिम्मी देवी ने कठोर शब्द में अपनी अभिज्ञता सुना दी। 

" 40 पार हो गई हो अम्मा अब झूठ ना बोला करो, कहते हैं 40 के पार होने के बाद जो झूठ बोलता है वह अगले जन्म में प्रेत योनि को प्राप्त करता है।" अपना दिमाग सही करने के लिए उसने अम्मा को अपनी मनगढ़ंत बातें सुनाकर चिढ़ाया और उन पर हंसती हुई आगे निकल गई और उत्तर में सिम्मी ने रख कर एक धौल उसकी पीठ पर जमाया।

"बच्चों को मारने की क्या सजा मिलती है यह भी शास्त्रों में पढ़कर जानना पड़ेगा।" अम्मा को सुनाने के लिए वह पीछे मुड़कर बोल रही थी।

" नगमा.." उसके बाबा का स्वर उसके कानों में पड़ा। बातें करते-करते वह बैठक में पहुंच गई थी। 

तुरंत बाबा के पास जाकर उनसे लिपटते हुए पूछा, "कैसे हो बाबा?" 

मनसौर रानिया मुस्कुराने लगे, 
"अगर मेरे बच्चे मजे में है तो फिर मैं भी मजे में हूं।"
नगमा के माथे पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा। 

यह सुन नगमा खुश हो गई और उसने तिरछी नजरों से अपनी अम्मा को देखा जो उसे ही घुर रही थी। सिम्मी रानिया को बड़ी होती बेटियों का युं बाप से लिपटना पसंद नहीं था, वह इसे निर्लज्जता का लक्षण मानती थी। और इसीलिए उसे चिढ़ाने के लिए नगमा विशेष रूप से उसके सामने ही अपने बाबा के गले लग जाया करती थी। 

मनसौर ने अपनी बेटी के माथे पर हाथ फेरा, 
"तुमसे कुछ महत्वपूर्ण चर्चा करनी थी।"

निरंतरम्~ 

















RaamaRakshit Aadii Vartikaa

RaamaRakshit Aadii Vartikaa

बहुत बेहतरीन रचना है।

6 अक्टूबर 2024

2
रचनाएँ
एक प्यार का नगमा है
0.0
शरदपर गांव में रहने वाले नगमा, आशिमा(बहने) और राधेय एक दूसरे के पड़ोसी और बचपन के मित्र है। बचपन में साथ खेल कर बड़े हुए और बड़े होने के बाद राधेय आगे की पढ़ाई के लिए विदेश चला गया था, वहीं आशिमा ने संस्कृत में बीए ऑनर्स करना चुना और नगमा जो इन दोनों से ही 2 साल छोटी है अब भी स्कूल में थी। यह कहानी शुरू होती है इस घटना के तीन वर्ष बाद जब आशिमा का बीए कंप्लीट हो गया था, राधेय अपना बीबीए करके विदेश से वापस आ रहा था और नगमा अब कॉलेज के पहले साल में थी। नगमा के लिए अशनील नाम के लड़के का रिश्ता आया था, वहीं राधेय के लिए प्यार उसके दिल में जगह बना रहा था। अब आगे क्या होगा? हर बार की तरह मां-बाप की इच्छा लड़की के दिल की इच्छा पर भारी पड़ जाएगी या फिर लड़की की इच्छा के अनुसार मिलन होगा नगमा और राधेय का जानने के लिए पढ़ते रहिए "एक प्यार का नगमा है"

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