4 सितम्बर 2016
धूप मे धूप साये मे साया हूँ बस यही नुस्का आजमाया हूँ
एक बोझ दिल से उतर गया कई दिनों बाद मुस्कुराया हूँ
दीवारें भी लिपट पड़ी मुझसेमुद्दतों के बाद घर आया हूँ
उसे पता नहीं मेरे आने का छुप कर के उसे बुलाया हूँ समीर कुमार शुक्ल
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अपनी लिखी यू ही पढ़ देता हूँ
वक़्त कटता ही रहता है कैसी आरी है भागते बादल पे मौसम की सवारी है बदलता ही नहीं तमाम चाहतो के बाद उस शक्स की मुझसे अजीब यारी है भोर के वक़्त मद्धम सा उजाला माँ ने बेटे की आरती उतारी है समीर कुमार शुक्ल
तुम शाश्वत में प्रतिपल मेंतुम आज में कल मेंतुम पवन में जल मेंतुम भस्म में अनल मेंतुम रहस्य में हल मेंतुम मौन में कोलाहल मेंतुम कर्कश में कोमल में तुम मलिन में निर्मल मेंतब क्या तुमको पानातब क्या तुमको खोना समीर कुमार शुक्ल
धूप मे धूप साये मे साया हूँ बस यही नुस्का आजमाया हूँएक बोझ दिल से उतर गया कई दिनों बाद मुस्कुराया हूँदीवारें भी लिपट पड़ी मुझसेमुद्दतों के बाद घर आया हूँउसे पता नहीं मेरे आने का छुप कर के उसे बुलाया हूँ समीर कुमार शुक्ल
तेरी तरहा मैं हो नहीं सकता नहीं ये करिश्मा हो नहीं सकतामैंने पहचान मिटा दी अपनी भीड़ मे अब खो नहीं सकताबहुत से काम याद रहते है दिन मे मैं सो नहीं सकताकि पढ़ लूँ पलकों पे लिखी इतना सच्चा हो नहीं सकतासमीर कुमार शुक्ल
सत्य समर्थन करता हूँमैं आत्ममंथन करता हूँजड़ता में विश्वास नहींनित परिवर्तन करता हूँअहंकार की दे आहुति मैं आत्मचिंतन करता हूँहर नए आगंतुक का मैं अभिनन्दन करता हूँमन के चिकने तल परवैचारिक घर्षण करता हूँ