गुलमोहर..
लाल-पीले फूलों की झब्बेदार
टोकरी जैसे भरी धूप में
किसी ने उलट के रख दी
तने के सिर पर…
उस पेड़ को देख भान होता है
जैसे कुदरत ने तान रखी है छतरी
मन्त्रमुग्ध करता है अपनी मधुरिमा से
गुलमोहर...
बचपन में खेलते-पढ़ते बंट जाता था ध्यान
जब कहीं दूर से सुन जाता
यह गीत...
'गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता…'
नहीं जानती लिखते वक्त
कौन बसा था ...
'सम्पूर्ण सिंह कालरा जी' के मन में
मगर जब भी जिक्र होता है
गुलमोहर का..
मेरी स्मृति-मंजूषा से निकलती है
गुड़ की मिठास सी
वात्सल्यमयी आवाज
गुलमोहर…!!