हत्या मेरी कार की
कमलानाथ
कई दशक पहले जब मैं पहली बार अमरीका गया तो विश्वविद्यालय की तरफ़ से वहाँ का एक रिसर्च स्नातक मुझे एयरपोर्ट पर लेने आया। उसके हाथ में मेरे नाम की एक पट्टी थी। जब मैं उसके पास पहुंचा तो पहले तो उसने थोड़े अविश्वास से मेरी तरफ़ देखा, फिर झिझकते हुए, सम्मान सहित एक गुलदस्ता भेंट किया। बाद में उसकी झिझक के बारे में पूछने पर उसने बताया कि ऐसी फ़ैलोशिप के मद्देनज़र वह किसी लंबे चौड़े अधेड़ से गंजे प्रोफ़ेसर की कल्पना कर रहा था। मैं खुद पहले से ही अपनी उम्र, शक्लसूरत और कदकाठी पर शर्मिंदा था इसलिए समझ सकता हूँ वहाँ मेरे नाम से मुझको देख कर उसे कितनी निराशा हुई होगी। बाद में मुझे इसलिए भी ज़्यादा शर्मिन्दगी होगई थी कि इस बारे में मैं उसकी कोई मदद नहीं कर सकता था।
बहरहाल जिस
चीज़ ने आते ही मुझे प्रभावित कर दिया वह थी उसकी चमचमाती खूबसूरत कार। आने के बाद किसी
दूसरे के यहाँ रात का खाना रखा गया जिसमें अन्य कई लोगों से मेरा परिचय कराया गया।
तीसरे के यहाँ मेरे ठहरने का इंतज़ाम किया गया और चौथे को ज़िम्मेदारी दी गयी कि
मेरे रहने लिए एक अपार्टमेंट की तलाश करे। पांचवे की ज़िम्मेदारी तय हुई कि वह मुझे
कुछ दिनों तक हर सुबह विश्वविद्यालय पहुंचा दिया करे ताकि मेरी वापसी के समय तक
छठा मुझे वहाँ से ले आये। हरेक के पास अलग अलग मॉडलों की शानदार कारें थीं। बस,
यहीं मैं अमरीकी पूँजीवाद का शिकार होगया।
इसी उपभोक्तावादी मानसिकता की घायल अवस्था में अपने अपार्टमेंट में आने पर कुछ
समय बाद जो पहला निर्णय मैंने खुद लिया, वह था अखबार में
देख कर एक कार खरीदने का। भारत में लगातार डब्बेनुमा एम्बेसेडर और फिएट कारें देख
देख कर यहाँ की हर कार अच्छी लगती थी और वहाँ के मुक़ाबले बेहद सस्ती भी। एक
सेकण्डहैंड कार की क़ीमत देख कर तो आँखें फटी ही रह गयीं और जब उसे देखा तो इतनी खूबसूरत दिखी कि मैं वहीँ मोहित
होगया। लंबी कार! मैंने तुरंत ही
वो कार खरीद ली, जो वास्तव में देखने भालने में कहीं से भी सेकण्डहैंड नहीं लगती
थी। कम से कम मेरी भारतीय नज़र में तो नहीं। अपार्टमेंट
के मैनेजर ने ख़ुशी से मेरी कार का नंबर नोट किया और मुझे वहाँ पार्क करने की
अनुमति दे दी।
इस फ़ैलोशिप से मैं आगे क्या गुल खिलाऊंगा यह तो भविष्य के और शायद अन्धकार के
गर्त में था, पर फिलहाल जल्दी ही कार के रूप में यह गुल तो खिल ही गया था। शामों
को और ख़ासतौर से सप्ताहांत पर किसी न किसी के यहाँ पार्टी होती थी जिनमें मैं भी आमंत्रित
होता था। उन पार्टियों में मैं अपनी लंबी कार में जाता था और मन ही मन बहुत खुश
होता था। उतरने पर कनखियों से इधर उधर झाँक कर लोगों पर मेरी इस लंबी कार की शान
का असर तौलने की कोशिश भी करता था। सब लोग मुस्कुरा कर मेरा स्वागत करते, पर लोगों
की वह रहस्यमय मुस्कराहट पता नहीं क्यों हमेशा मुझे कचोटती थी। बहुत दिनों तक इस तिलिस्म
से पर्दा नहीं उठा, पर बाद में इस बात को लेकर जोंक की तरह चिपट जाने पर मेरे एक
दोस्त ने शर्माते और झिझकते हुए बतलाया कि मेरी कार पुराने मॉडल की है। उसके हिसाब
से नए मॉडल की कार हो तो और भी अच्छा।
मैं सोचने लगा देश विदेश की कितनी ही महारानियाँ, राजमाताएं हैं जो उम्र के
किसी भी पड़ाव पर हों अब भी कितनी गरिमामय और आकर्षक लगती हैं। भला किसी ने पूछा है
वे कौन से सन की मॉडल हैं, मेरा मतलब किस साल में जन्मीं थीं? और फिर पुराने चावल और
पुरानी शराब के पीछे तो लोग दीवाने रहते हैं। जिस लंबी कार के सामने खड़े होकर मैं
फ़ोटो खिंचवाता था और सब को दिखाने के लिए भारत भेजता रहता था, हाय, उसके प्रति
लोगों के ये कुत्सित विचार? इस कार के कितने कोणों से मैंने अलग अलग पोज़ों में
फ़ोटुएं न खिंचवाई होंगी और मेरे घर वालों ने मेरी उस शान और कार पर कितना गर्व न
किया होगा! यहाँ आने के बाद जिस तरह मैं पहली बार मुदित हुआ था उसकी साक्षी यह कार
ही थी! जहाँ मेरा जैसा एक आम भारतीय आदमी भारत में भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुरूप एक
भारतीय डब्बा खरीदने की हैसियत भी नहीं रखता था, वहीँ कैसे वह एक लंबी विदेशी कार
के साथ फ़ोटो पर फ़ोटो खिंचा कर भारत में बंटवाने के लिए भेज रहा है, इसका महत्व
भारत में रहने वाला ही जान सकता था। पर देखो, ये लोग जिनमें भारतीय भी हैं अब कैसी
दूषित भावनाएं रखने लग गए!
मैंने अगले कई दिनों तक अपने उन्हीं दोस्तों की मदद से इस बात पर चर्चा की कि
दूसरी कौन सी कार लेनी है और अंत में हम मेरे लिए एक दूसरी कार ले ही आये।
मैं विभोर होकर अपने पहले प्यार, अपनी पहली लंबी कार की तरफ़ बड़े स्नेह से देखता
हुआ उसे छू कर सहलाता था, उस पर पड़ी धूल साफ़ करके अपना प्यार दर्शाता था और इस
दूसरी कार को उसके आसपास ही जहाँ जगह मिले वहाँ पार्क करता था ताकि वे प्रेम से एक
दूसरे को देखती रहें। शाम को कभी कभी उसमें बैठ कर घूम भी आता था ताकि उसे बुरा न
लगे। पर एक दिन अपार्टमेंट का मैनेजर आया और उसने गंभीर ऐतराज जताया कि यहाँ मेरे
नाम पर दो कारें पायी गयी हैं, जब कि मैंने उसे एक कार का नंबर ही दिया था। फिर उसने
अपना निर्णय दिया कि चूंकि दूसरी कार को पार्क करने के लिए मेरे पास अनुमति नहीं थी
और वहाँ जगह भी नहीं बची थी इसलिए मुझे एक कार को कहीं और ही पार्क करना पड़ेगा। पहली
वाली की बजाय मैंने नई कार का नंबर देकर उसको पार्क करने का पास ले लिया और पहली को वहाँ से जल्दी ही हटाने का
आश्वासन दे दिया।
मैनेजर ने अपने कहने की ड्यूटी पूरी कर दी थी और मैंने उसकी बात सुनने की। मैं
सोच रहा था अपने जीवनकाल में हमलोग जितने समय तक बेकार की बातें बोलते हैं और
सुनते हैं उन सबको अगर जोड़ दें तो कितने वर्ष निकल जाते होंगे। मैनेजर की बात भी
मुझे वैसी ही लगी थी। खैर, फिर बाद में आराम से दिन गुज़रने लगे। भारत होता तो वास्तव
में बात आई गई होजाती, लेकिन कुछ दिनों के बाद ही अचानक फिर मैनेजर आ टपका और इस
बार बेहद आक्रामक रुख के साथ। उसने धमकी दी कि अगर मैंने एक सप्ताह के अंदर दूसरी
कार वहाँ से नहीं हटाई तो जो क़दम अब वो उठाएगा वह मुझे भारी पड़ सकता है। मैंने उसे
फिर से पक्का आश्वासन दिया कि मैं जल्दी ही दूसरी कार हटा लूँगा।
पर मूलभूत समस्या यह थी कि दूसरी कार को कहाँ पार्क किया जाय? मैंने सभी तरह के विकल्पों पर दोस्तों से चर्चा की पर कुछ समझ में नहीं आया। हम लोगों को जितना आनंद मुफ़्तखोरी में आता है उतना ही कष्ट बटुआ खोलने में होता है। जो मज़ा पड़ौसी के पेड़ के अमरूद या किसी बाग़ के फल चुरा कर खाने में आता है, वो फलवाले से ख़रीद कर खाने में कहाँ? जब अंदर गहरी कहीं छुपी यह मानसिकता उभरने लगी तो मुझको सूझा, मेरे अपार्टमेंट के सामने जो बड़ा डिपार्टमेंटल स्टोर है उसमें कोई न कोई मुफ़्त पार्किंग की जगह खाली मिल ही जाती है, क्यों न वहाँ उसे स्थायी रूप से पार्क कर दिया जाय। हर रोज़ सैंकड़ों लोग वहां आते हैं, किसे पता चलेगा किसकी कार है। अपनी तार्किक बुद्धि पर प्रसन्न होकर एक शाम चुपचाप मैं अपनी प्यारी लंबी कार को वहाँ पार्क करके आगया और लौटते में इस खुशी के अवसर पर एक आइसक्रीम भी खा ली। बाद में उस तरफ़ से गुज़रते वक़्त कभी कभी देख भी लेता था कि वह सुरक्षित है कि नहीं। सोचा, चलो माथापच्ची कम हुई।
पर दुर्भाग्य कि यह सुविधाजनक स्थिति ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रही। एक दिन
अचानक डाक में एक जो चिट्ठी मिली वह उसी डिपार्टमेंटल स्टोर से थी। उसमें लिखा था
कि उनकी पार्किंग में, जो उनके ग्राहकों के लिए थी, एक कार कई दिनों से खड़ी पाई
गयी है जो वाहन विभाग के अनुसार मेरे नाम पर है। फिर उसमें धमकी थी कि अगर यह कार
मैंने तुरंत ही नहीं हटा ली तो वे लोग मेरे खर्चे पर किसी क्रेन से इसे हटवा देंगे।
मित्रों के अनुसार यह मंहगा सौदा हो सकता था। यह सुन कर मेरा मुंह भी मेरी कार की
तरह ही लम्बा हो गया और मैंने फिर से उसके लिए जगह की व्यवस्था करने की दौड़भाग
शुरू कर दी।
विज्ञापन से यहाँ छोटीमोटी चीज़ें, जैसे साईकिल, चश्मे, किताबें वगैरह आसानी से
इधर से उधर हो जाती थीं, इसलिए यही माध्यम सशक्त नज़र आने लगा। चूंकि विज्ञापन से
ही मैंने कार खरीदी थी इसलिए बहुत सस्ती क़ीमत लगा कर मैंने इसे बेचने के लिए अखबार
में विज्ञापन दिया। पर ख़रीदार क्या, कोई दुष्ट देखने वाला तक नहीं आया। कोई और
चारा न देख कर मैं फिर मैनेजर की शरण में गया और उससे झूठ बोला कि मेरा कोई दोस्त
भारत से आने वाला है जिसके लिए कार की ज़रूरत होगी। उसे मैं अपार्टमेंट भी यहीं
दिलाऊंगा, इसलिए कुछ समय के लिए वह मुझे दूसरी गाड़ी भी यहीं पार्क करने की अनुमति
देदे। किसी तरह हीलहुज्जत और भारत आकर मेरे साथ ठहरने के झूठे निमंत्रण के बाद वो
मान गया।
पर यह अस्थायी व्यवस्था ही थी। मेरी असली समस्या तब भी बरकरार थी। मुझे अपने प्यारे
भारत की फिर याद आयी। वहाँ इस कार को लोग कैसे आँखों पर बैठाते, मुझे इस पर बैठे
देख कर कुछ लोग कितनी ईर्ष्या करते और घर वाले गर्व। इसको बेचता तो इसके कितने
अच्छे पैसे भी मिल जाते। पर ये कैसा देश है, यहाँ कोई इतनी अच्छी लंबी कार को इतने
सस्ते दामों पर भी नहीं ले रहा। आखिर अपना अपना ही होता है और पराया पराया। मैंने
विश्वविद्यालय से और दूसरी जगहों के कुछ अपार्टमेंटों से विदेशों से नए नए आए
विद्यार्थियों, स्नातकों वगैरह के बारे में जानकारी जुटाई और उनके पीछे इस तरह लग
गया जैसे रेलवे स्टेशन से निकलते ही होटलों के लिए छोटे मोटे दलाल लग जाते हैं।
मैंने कार की क़ीमत भी घटा दी थी। कुछ लोग कार देखने भी आये, पर किसी ने ख़रीदने के
लिए जेब में हाथ तक भी नहीं डाला।
मेरे एक अमरीकन मित्र ने एक बार बताया था कि यहाँ जिन चीज़ों की उपयोगिता लोगों
के लिए ख़त्म होजाती है तो वे उन्हें या तो कहीं दान में दे आते हैं या घर में ही तथाकथित
‘गैराज सेल’ लगा लेते हैं। लोगों को मुफ़्त में ले जाने पर शर्मिंदगी या हीनभावना न
आये इसलिए उन चीज़ों से छुटकारा पाने के लिए वे नाममात्र की ही क़ीमत लगाते हैं,
जैसे कपड़ों, खिलौनों जैसी चीज़ों के लिए पांच-दस सैंट, साईकिल जैसी चीज़ों के लिए एकाध
डॉलर या और भी कम, वगैरह। वैसे ही जैसे चवन्नी, अठन्नी, एक रुपया।
मुझे लगा हालाँकि भारतीयों को तो मुफ़्त की चीज़ लेने में भी कोई परहेज़ नहीं होता
है, फिर भी अगर कोई हो और यहाँ आने के बाद इससे उनकी शान में थोड़ी गिरावट आजाती हो,
तो क्यों न कौड़ियों में ही यह कार उन्हें दे दी जाय ताकि उनका जितना भी प्रवास हो,
सुखमय तो हो। मैंने इसी पवित्र सोच के साथ कई भारतीय स्नातकों को जो पीएच.डी करने या उसके बाद रिसर्च करने आये थे, चाय पर बुला कर इस
कार को बिलकुल मूंगफली के दामों पर देने का प्रस्ताव भी किया, पर मुंह को भरपूर काम
में लेते हुए अच्छा खासा नाश्ता कर लेने के बाद भी उन्होंने दूसरे कान का उपयोग
सिर्फ़ मेरे प्रस्ताव को बाहर निकालने के लिए ही किया। कुछ को तो मैं उसी कार में
बैठा कर लाया था और वे उसे देख कर काफ़ी प्रभावित भी हुए थे। लिहाज़ा इसकी क़ीमत स्कूटर
की क़ीमत से भी नीचे घटाते घटाते साईकिल की क़ीमत तक और फिर बाद में तो मैं उन्हें
यह कार मुफ़्त में भेंट करने के लिए भी तैयार हो गया ताकि उनके भारतीय संस्कार जाग
उठें और वे इसे मुफ़्त में तो ले ही लें। वे इस बारे में सोचने का बोलते तो थे और
इसकी तरफ़ ललचाई नज़रों से देखते भी थे, पर पता नहीं किस आशंका से उन्हें मुफ़्त में
लेने में भी झिझक हो रही थी। यह सब देख कर मुझे लगा वो कहावत कि ‘मुफ़्त की शराब तो
क़ाज़ी को भी हलाल होती है’, ग़लत थी। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि बैठने पर यह
कार शराब का नशा ज़रूर देती थी। इस बात की पुष्टि एक पुलिस वाला भी कर सकता है
जिसने मुझे इसे मस्ती में लहराते हुए चलाते देख कर शराबी समझ लिया था और चालान करते
करते बचा था। जो भी हो, नतीजा यह था कि मेरी यह प्यारी लंबी कार मेरे पास ही बनी
रही।
उसके बाद मुझे एक तरकीब सूझी। मैंने कार को अच्छी तरह चमका कर, बिना ताला
लगाये हुए, पूरा पैट्रोल भरवा कर, चाबी सहित अलग अलग जगहों पर दो दो दिन के लिए छोड़ना
करना शुरू कर दिया ताकि कोई भला सा चोर उसे उठा कर चम्पत होजाए। दो दो दिन के लिए इसलिए
कि वाहन विभाग से कार के सम्बन्ध में जानकारी जुटाने से पहले शायद कोई तीन चार दिन
तक तो इंतज़ार करता। लेकिन बड़ी उम्मीद के साथ अगले दिन जाने पर भी मेरी वफ़ादार कार स्वामिव्रता
की तरह यथावत मुस्कुराती हुई लटकती हुई चाबी के साथ वहीँ मौजूद पायी जाती थी। कई
बार तो वह ‘गहनों की शक्ल में 5-10 डॉलर के ‘टिकट’
भी पहने हुए मिलती थी, जिन्हें ग़लत पार्किंग
के जुर्म में मुझे जमा करना पड़ता था। हे भारतीय कार चोरों, तुम यहाँ आते तो कितने
संपन्न हो जाते!
मैंने यहाँ एक दो गैराजों से भी संपर्क किया और उनको सलाह दी कि वे इस कार को
मुफ़्त में ही लेलें और चाहें तो इसका एक एक पुर्ज़ा अलग करके दूसरी गाड़ियों में फ़िट
कर लें। हमारा हिन्दुस्तानी मैकेनिक इस बात पर कितना प्रसन्न होता और मुझे
अच्छेखासे पैसे भी दे देता, पर यहाँ इस सलाह पर उन्होंने पहले खा जाने की मुद्रा
में घूर कर देखा, और फिर विनम्रता के साथ कार लेने से इंकार कर दिया। उसे समुद्र
में जलसमाधि देने पर भी भारी दंड का भागी बनना पड़ता, सड़क पर भी कहीं उसे लावारिस
नहीं छोड़ा जासकता था और न कहीं दूरदराज़ के अनजाने पार्किंग लॉट में आंधी तूफ़ान,
धूप पानी के भरोसे एक न एक दिन ज़मींदोज़ होजाने के लिए ही।
सब तरफ़ से निराश होकर मैंने अपने मित्रों से फिर इस बारे में चर्चा करने के
लिए कॉम्प्लिमेंट्री खानपान के साथ एक गोष्ठी आयोजित की। उनके हिसाब से अब एकमात्र
विकल्प जो बचा था वह था कार को यहाँ के किसी कबाड़ी के पास ले जाना। लिहाज़ा, टूटे दिल से पीले मुंह के साथ ‘पीले पन्नों’
में देख कर एक भारतीय कबाड़ख़ाने की तरह के अमरीकी ‘जंक यार्ड’ का पता ढूँढ़ा गया। यह
बड़ी मार्मिक व्यवस्था थी, कम से कम जहाँ तक मेरी कार का सम्बन्ध था। मुंशी
प्रेमचंद मुझे उद्वेलित कर रहे थे और मैं सोच रहा था उनकी कहानी के गाय-बैलों की
तरह ही शायद यह कार भी मुझसे अपने न किये गए जुर्म के बारे में ही पूछते हुए जायगी।
मुझे किसी की हत्या करने का अपराध बोध हो रहा था सो अलग।
भारी मन से मैंने अपने एक मित्र को मेरी सहायता और सांत्वना के लिए मेरे साथ जंकयार्ड
तक चलने के लिए कहा ताकि वापसी में मेरी कार की इस हत्या और क्रियाकर्म के बाद मैं
उसकी गाड़ी में लौट सकूं। मेरी भावनाओं को देखते हुए एक और मित्र भी अपनी गाड़ी के
साथ चलने के लिए तैयार होगया।
इस तरह एक जनाज़े की शक़्ल में हमलोग रवाना हुए। सबसे आगे मेरा एक मित्र अपनी
कार में चल रहा था, मानो वो घुटमुंड होकर मूंज की रस्सी से बंधी एक मिट्टी की
हांडी में जलता हुआ उपला ले कर चल रहा हो, बीच में मेरी कार जैसे ख़ुद अपनी ही
अर्थी उठाये हुए चली जारही थी, और मेरा दूसरा दोस्त अपनी गाड़ी में अर्थी के साथ चल
रहे मातमी लोगों की तरह पीछे पीछे चला आरहा था।
कबाड़ी के जंकयार्ड में जाकर कार को मैंने उस अमरीकन ‘डोम’ के हवाले कर दिया।
उसने अंतिम क्रिया के लिए लकड़ियाँ
लगाने के अंदाज़ में एक बड़े से मशीनी हथौड़े के नीचे ले जाकर कार खड़ी कर दी और क्रेन
के ऊपर चढ़ कर कुछ जुगाड़ करने लगा। मैंने उससे कहा – “भाई, इसकी बैटरी बिल्कुल नई
है, इसके टायर बहुत बढ़िया हैं, हैडलैम्प के बल्ब क़ीमती हैं, इसकी चमड़े की सीटें
कितनी आरामदायक हैं और बहुत सी चीज़ें हैं जो काम की हैं, तोड़ने से पहले तुम उन्हें
निकाल क्यों नहीं लेते?” मेरी उपयोगितावादी सलाह पर भी उसने बड़ी घृणा और हिकारत से
मुझे देखा और कहा – “ए मैन, हमारे लिए ये सब बेकार हैं, तुम्हें चाहियें तो तुम
लेजाओ।”
मेरा हृदय जैसे वेदना से भर उठा। मैं सोच रहा था इस समय मेरी कार क्या महसूस
कर रही होगी। जो भाग्यशाली आदमी दो-चार पत्नियाँ रखने का सुख प्राप्त कर सकते हैं,
उनकी पहले वाली पत्नी किसी नई के आजाने पर क्या महसूस करती होगी? हे लोहांगी, तुम
मेरे साथ और मैं तुम्हारे साथ कितने खुश थे। मेरी अपनी पहली होने की ललक तुम्हीं
ने पूरी की थी। तुमने कभी कोई फ़रमाइश नहीं की, यहाँ तक कि कोई ज़रूरत भी नहीं बताई।
तुम्हारी सुगंध ही ऐसी थी कि खुद तुमने कभी इत्र या परफ़्यूम की मांग नहीं की। तुम हमेशा
मेरे ही इशारों पर मेरे मन मुताबिक़ चलती रहीं। चाबी घुमाते ही अपनी मधुर आवाज़ निकालती
हुई तुम गरम हो जाती थीं और चल पड़ने के लिए तैयार हो जाती थीं। तुमने कभी परेशान
नहीं किया, कोई टेंशन नहीं दी, कभी नाराज़ होकर पैर पटक कर कहीं बीच रास्ते खड़ी
नहीं हुईं। प्रियतमे! पहली बार तुम ही मेरी ज़िंदगी में कार बन कर आयीं। हे लंबतड़ंग
सुवदने! इस बात से संतोष करना कि भगवान राम तक ने सीतामैया का लोकलज्जावश त्याग कर
दिया था। मैं तो आम आदमी हूँ इसलिए तुम्हारे मासूम और निर्दोष होने पर भी उसी
लोकलाज के अधीन होकर तुम्हें इस अमरीकन यमदूत के यहाँ मुक्ति के लिए लाया हूँ। आशा
है तुम मेरी व्यावहारिक मजबूरी समझोगी। लेकिन हे लम्बोदरे! यह मत समझना मैं
तुम्हें भूल जाऊँगा। तुम्हारे साथ मेरी यादें उन्हीं सैकड़ों फ़ोटुओं के माध्यम से
हमेशा जुड़ी रहेंगी जो मैंने तुम्हारे साथ अलग अलग मुद्राओं में खिंचवाईं थीं जो
भारत में न जाने कितनी जगह लगी होंगी। हे पैट्रोलप्रिये! अब तुम्हारे ये हैडलैम्प रूपी
नेत्र सूर्य में विलीन होजायें, तुम्हारी इंजनरूपी साँसे वायु में मिल जाएँ,
तुम्हारा चमचमाता चांदी जैसा पूरा सशक्त शरीर उन्हीं पञ्चमहाभूतों में विलीन हो जाए
जिनसे तुम बनी हो और यह पृथ्वीमाता तुम्हें अपने आँचल में हमेशा के लिए उसी तरह
छुपा ले जिस तरह एक माँ अपनी संतान को छुपाती है.......
तभी ज़ोर की एक आवाज़ आई। अमरीकन महाब्राह्मण कबाड़ी महाशय ने भारी हथौड़े की पहली
ही चोट से मेरी उस लंबी सुन्दर कार का भुरता बना दिया और दूसरी चोट में एक पत्तर
के रूप में बदल कर वहीँ फेंक दिया जहाँ उसकी तरह की ही दूसरी कारें होंगी।
भारत में कोई भी आम कबाड़ी पुराने लोहे के ठीकठाक पैसे दे देता है। और फिर बैटरी, टायर वगैरह के अलग से। मैं
सोचने लगा, हालाँकि पहले तय नहीं किया था, पर खैर चलो अब यह कबाड़ी मेरी इतनी
सुन्दर कार के लिए जितने भी पैसे देगा, ठीक है। पर उसने पचास डॉलर का एक बिल काटा
और मुझे पकड़ा दिया। भौंचक्का होकर मैंने बिल की तरफ़ देखा। कुछ लेना तो दूर, खिसिया
कर कबाड़ी को उसके मेहनताने के पचास डॉलर और ऊपर से देने पड़े।
मैं दुखी मन से घर लौट आया और नई कार के लिए दोस्तों को पार्टी देने की
व्यवस्था करने में जुट गया।
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