हे देव दिवाकर,
मुझ निरीह पर कृपा कर !
तम मिटा,
सुख रश्मियाँ लुटा,
जीवन में उदय होकर।
हे प्रभाकर,
इस प्रभा में प्रभा भर!
अज्ञान मिटाकर,
ज्ञान जगाकर,
रोम-रोम प्रकाशित कर।
हे दिनकर,
अर्थ की अरुणिमा ला,
संतोष का भाव जगा,
कीर्ति किरणों को विस्तारित कर।
हे अँशुमाली,
मत दुखित कर,
मार्तण्ड बनकर ।
कृपाकर,नैन द्वार आकर,
ह्रदय में समाकर,
ह्रदय को आलोकित कर ।
न संतृस्त कर ,
न अस्त-व्यस्त कर,
हे भास्कर,
भाग्य रवि न अस्त कर।
गर्मियाँ ला,रिश्तों में,
नर्मियाँ ला ,भावनाओं में,
बादलों का अत्याचार असह,
तुझे क्यों और कैसे सह !
पवन का ले प्रशय,
तेरी शरण में हूँ,दे आश्रय ।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'