हे राम तुम्हारे चरणों को,
पाना चाहूं,कैसे पाऊं?
क्षणिक बुलबुले सा,
अस्तित्व है मेरा,
कैसे भला सागर बन पाऊं?
कहाँ मैं वो शबरी जिसने,
पूरा जीवन बस राम किया,
आते हर क्षण में,हर श्वास में,
बस राम जिया,बस राम पिया।
कहाँ मैं वो पत्थर जिसका,
भाग्य अकल्पित और निराला,
स्वयं अपने हाथों से जिसपर,
राम तुमने राम रच डाला।
कहाँ मैं वो रावण जिसने,
सदा तेरा विरोध जिया ,
पर तनिक भाग्य देखो,
तेरे ही हाथों मृत्युपान किया।
कहाँ मैं वो तुलसी जिसने,
जीवन ही राममय कर डाला,
निज मानस की कलम से,
पूरा रामचरित मानस रच डाला।
नहीं हूं मैं वो हवायें,
वो नौका,वो फिजायें,
वो वादियां ,वो शिलायें,
जो तुझको पा अभिभूत हुयीं,
तेरा सानिध्य पाकर जो,
सब की सब प्रभूत हुयीं।
मैं कलियुग की साधारण नारी,
इच्छायें प्रबल पर बेचारी,
धरती तक सीमित भर,
व्योम भला कैसे छू पाऊं?
हे राम तुम्हारे चरणों को,
पाना चाहूं कैसे पाऊं?
प्रभा मिश्रा 'नूतन'