🌹🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹🌹
अर्क जवास पात बिनु भयऊ ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।।
खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी ।
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ।।
ससि संपन्न सोह महि कैसी ।
उपकारी कै संपति जैसी ।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा ।
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ।।
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं ।
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना ।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ।।
अर्थात :- मदार ( आक नामक पौधा ) और जवासा ( एक तरह का कँटीला क्षुप (झाडी) जिसके अनेक अंगों को औषधि में प्रयोग करते हैं ) बिना पत्ते के हो गये ( उनके पत्ते झड़ गये ) । जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम ( मेहनत / श्रम ) जाता रहा ( उनकी एक भी नहीं चलती ) । धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती , जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है ( अर्थात् क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता ) ।।
अन्नसे युक्त ( लहलहाती हुई खेती से हरी-भरी ) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है , जैसी उपकारी पुरुष की सम्पत्ति । रात के घने अन्धकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं , मानो दम्भियों का ( पाखंडीयों का ) समाज आ जुटा हो ।।
भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं , जैसे स्वतन्त्र होने से स्त्रीयाँ बिगड़ जाती हैं । चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं ( उनमें से घास आदि को निकाल कर फेंक रहे हैं ) । जैसे विद्वान लोग मोह , मद और मान का त्याग कर देते हैं ।।
राम से बड़ा राम का नाम ।
बनाते हैं हर बिगड़े काम ।
जय श्री राम
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