झूठा सच की कहानी सन् 1947 में भारत की आजादी के समय मचे भयंकर दंगे की पृष्ठभूमि के रूप में बुनी गयी है। ब्रिटिश औपनिवेशिकता, उसकी 'फूट डालो और राज करो' की नीति तथा मुस्लिम लीग के 'दो राष्ट्र का सिद्धांत' से मिलकर बृहत्तर भारतीय समाज में स्वतः मौजूद छुआछूत की निम्न भावना एवं सांप्रदायिकता की दबी चेतना ऐसी उभरी कि पूरा भारत वर्ष ऐसी ज्वाला से धधक उठा जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिल पाता है। मानवीय यातना के इतिहास में यह विश्व की क्रूरतम घटनाओं में से एक घटना मानी जाएगी। लगभग एक दशक (1946 से 56 तक) इस उपद्रव का प्रभाव बना रहा। तात्कालिक ही सही पर वहशी भावनाओं की गिरफ्त में आये हिंसक पशु बने मनुष्यों द्वारा सांप्रदायिक दंगों में हजारों-हजार व्यक्ति मौत के घाट उतार डाले गये, लाखों विस्थापित हो गये, स्त्रियों और बच्चों के साथ अमानुषिक अत्याचार किये गये और पूरे देश की एक विशाल जनसंख्या को अपना देश या वतन छोड़कर भारत या पाकिस्तान में नये सिरे से बसना पड़ा। झूठा सच के प्रथम भाग 'वतन और देश' में इन स्थितियों का अत्यंत मार्मिक एवं विस्तृत चित्रण किया गया है। इस भाग के अंत में शरणार्थियों को लेकर आने वाली एक बस का ड्राइवर कहता है "रब्ब ने जिन्हें एक बनाया था, रब्ब के बन्दों ने अपने वहम और जुल्म से उन्हें दो कर दिया।
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