विश्व एक बहुत बड़ी महामारी से गुजर रहा हैं इसके चलते हमारे शहर में भी धारा 144 लगी हैं ,चार साथी एक जगह इकठ्ठा नहीं हो सकते । जरूरत पड़ने पर बाहर जाने की अनुमति है, वरना अनुमति नहीं है।
घर पर राशन, खत्म हो गया हैं,में टीवी देख रहा था तभी मम्मी की आवाज आती हैं। और मम्मी मुझे बाजार जाने को कहती हैं में पहले मना करता हूँ , बाद में बाजार जाने के लिए हाँ भर देता हूँ।
मुँह पर मास्क, हाथ में थेला लिए अपनी ही धुन में चल देता हूँ । वैसे तो मुझे बाजार घूमना बहुत अच्छा लगता हैं। लेकिन आज मन नहीं था।
में जब बाजार पहुँचता हूँ तो सब वीरान सा दिखाई देता हैं ऐसा लगता हैं यहाँ कभी बाजार लगा ही ना हो।
मुझे बाजारों की रौनक, वहाँ की चमक , बहुत भातिं हैं खास जब , जब कोई दुकानदार अपनी वस्तुएं बेचने के लिए मुहावरे व शायरी का प्रयोग करता हैं।
में मंडी की तरफ जाता हूँ तो वहाँ भी इक्की दुक्की दुकाने लगी हुई देखता हूँ और सोच में पड़ जाता हूँ। फिर मन से आवाज आती हैं।
"चमक कभी थे जो गलियारें
आज वीरान पड़े है क्यों
भीड़ उमड़ती थी जहां पर
आज सुनसान पड़े हैं क्यों
नहीं उपाय बचा कोई क्या
फिरसे रोशन गलियारे हों
नहीं औषधि मिली अभी क्या
जिससे चेहरे मुस्काते हों।"
में : (सब्जी वाले से) अंकल जी कटहल कितने का दिए हो
सब्जी वाला : 50 रुपए किलो बेटा
में फिर सोच में पड़ गया, लॉकडाऊन के चलते हर चीज़ महँगी हो गई। पता नहीं इसमे किसका दोष निकाला जाए।
सब्जी वाला : क्या हुआ भाई किस सोच में हो
में : कुछ नहीं, आलू कितने के हैं
सब्जी वाला : 40 रुपये किलो
में वहाँ से चुप चाप चल देता हूँ, और दुकानों की तरफ अपने कदम बढ़ाता हूँ ,दुकानों का भी यही हाल हैं एक दो दुकाने ही खुली है , और वहा भी कोई ग्राहक नहीं दिखता।
में : अंकल जी ढाई सौ ग्राम दाल कितने की हैं
दुकानदार : 30 रुपए
में केवल तीस ही रुपये लाया था , क्या करता रूखी दाल भी तो नहीं खा सकते। घर पर आटा भी तो नहीं होगा।
में : आटे का क्या भाव हैं
दुकानदार : 40 रुपये किलो
फिर में चावल का भाव पूछता हूँ तो दुकानदार घुस्सा हो जाता है और जोर से कहता है -
: तुम्हे कुछ लेना है या हमारा समय खराब कर रहें हों
दुकानदार घुस्सा भी क्यों न करता , इस महामारी में जल्दी से कोई आता नहीं और जो आकर केवल मोल भाव करे उसपर तो घुस्सा आना ही है।
में : अंकल जी बीस रुपये की दाल और दस रुपये के चावल दे दो।
दुकानदार चावल और दाल दे देता है। में वहाँ से चल देता हूँ। और फिर उसी बाजार में आ जाता हूँ जो कभी दिन भर भरे रहते थे ।
गाड़ियों की पी पी की आवाज , छुट्टी के समय स्कूल के बच्चो का शोर वो हँसते हुए चेहरे बाजारों में घुमने आएं वो छोटे छोटे बच्चे बाजार की रौनक बढ़ाते थे।
आज वही बाजार वीरान सड़क सी महसूस होती हैं सूरज की किरणें , तेज हवा के झोंके और पेड़ो के सिवा इधर कुछ नहीं दिखता।
........ पारस