इस वक्त झाँसी के एक होटल 'अशोक' में बैठकर यह लिख रहा हूँ।
आज सुबह करीब सात बजे ग्वालियर (वायु सेना स्थल, महाराजपुर) से रवाना हुआ था- खजुराहो
के लिए- साइकिल से।
मौसम अच्छा था। थोड़ी बूँदा-बाँदी हो चुकी थी- हवा में सोंधी महक थी। बदली भी छायी हुई थी। देवगण, कृष्णा, दत्ता, विनोद ने हँसी-मजाक में शुभकामनायें दीं। विनोद ने दो फोटो भी खींचे।
गोले का मन्दिर होते हुए मैं स्टेशन की ओर बढ़ा। मोरार-ठाटीपुर वाले रास्ते में भीड़ ज्यादा होती है और दूरी भी ज्यादा है। फ्लाई-ओवर के बगल से निकल कर ए.जी. ऑफिस होते हुए ग्वालियर-झाँसी रोड (SH37) पर आया। माधवनगर के सामने एक चाय दूकान पर रुका- वहाँ पहले भी कभी एकबार आया था। चाय-ब्रेड खाकर फिर रवाना हुआ।
हल्की ठण्ड थी। शहर से बाहर आकर कैरियर पर रखे बड़े बैग को ठीक किया और साइकिल की सीट पर स्पंज के टुकड़े को बाँधा। अब तक चैन ढीला पड़ चुका था। (नये चैन को एक-दो दिन साइकिल चलाने के बाद फिर कसवाना पड़ता है।) आवाज हो रही थी और साइकिल भारी चल रही थी। टेकनपुर से पहले पड़नेवाली पहाड़ियों पर जहाँ-जहाँ चढ़ाव था- वहाँ हालत थोड़ी खराब हुई।
साइकिल में मैंने 'रियर व्यू मिरर' लगवा लिया था, जो बहुत काम दे रहा था। टेकनपुर में बी.एस.एफ. अकादमी से गुजरने के बाद एक नुक्कड़ में रुका। चाय पी। चैन कसवाया। अब साइकिल मजे से चलने लगी। रास्ता भी समतल आ गया।
उम्मीद के अनुसार साढ़े बारह बजे तक डबरा पहुँच गया। बाजार से बाहर आकर एक ढाबे में रुका। तौलिया और एक हाफ-पैण्ट जरा गीला था- उसे साइकिल पर टाँगा। पाँच तन्दूरी रोटी, दाल-फ्राई और सलाद खाकर वहीं एक चारपाई पर लेट गया- आधे घण्टे के लिए।
डबरा से पौने दो बजे चला। अब मौसम उदास लग रहा था। अकेलापन भी बुरा लग रहा था। सड़क अच्छी थी। कुछ देर के लिए तो करीब तीन मिनट प्रति किलोमीटर की रफ्तार से साइकिल भाग रही थी। बीच में एक जगह सुस्ताया भी था।
करीब तीन बजे एक बड़ा-सा चबूतरा नजर आया- बड़े नीम और पीपल के पेड़ों के नीचे। तुरन्त देवगण के दिये हुए स्पंज के बड़े शीट को ग्राउण्ड-शीट की तरह बिछाया, छोटे शीट को मोड़कर तकिया बनाया और लम्बा लेट गया। लेटे-लेटे 'चन्दामामा' की कहानियाँ याद आयीं- जब राहगीर घोड़ा बाँधकर बावली में पानी पीकर पेड़ की ठण्डी छाँव में सो जाते थे- तब कोई-न-कोई दैवी घटना घट जाती थी।
दतिया में दूर से ही महलों को देखा- सचमुच देखने लायक लगे। सोचा, लौटते समय इन महलों को जरुर देखना है। (रास्ते में सोनागीर के जैन मन्दिर भी काफी दूर से दिखाई पड़े थे।) एस.एन.सिंह ने 'ठेकुए'-जैसा एक पकवान दिया था। साइकिल के हैण्डल पर टँगे हैवर-शेक में वह रखा था। बीच-बीच में वही चबाते हुए मैं चलता रहा।
(बहुत बाद में उस पकवान का नाम ध्यान आया- 'अनरसा'।)
झाँसी शाम के छह बजने से पहले पहुँच गया। चुँकि अन्धेरा नहीं घिरा था, इसलिए पहले तो मैं आगे बढ़ गया; फिर लगा- सही आराम और सुरक्षा जरुरी है। मुड़कर एक सज्जन से पूछकर पहले प्रकाश होटल में गया। वहाँ सिंगल कमरे का किराया नब्बे रुपये था। वहीं के लड़के ने अशोक होटल का सुझाव दिया। यहाँ आया तो कमरा पैंतालीस रुपये में मिला- जबकि कमी कुछ नहीं है। अटैच्ड बाथरूम, वाश-बेसिन, चेयर-टेबल, कैम्पर, दो रैक सभी हैं। इतना कम किराया क्यों है, पता नहीं। स्टाफ भी अच्छे हैं। अभी एक स्टाफ साइकिल अन्दर रख लेने के लिए बोलने आया था। साइकिल अन्दर रखकर, पैरों पर तेल की मालिश कर अब खाने की तैयारी है।
(क्रमशः)