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छतरपुर (शहर से बाहर) 17 फरवरी' 95 (दिन 11:00 बजे)

5 नवम्बर 2021

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 छतरपुर शहर अभी कोई दस-बारह किलोमीटर दूर है। सड़क के किनारे एक छोटे-से जंगल में बैठकर यह लिख रहा हूँ। जंगल की निस्तब्धता को चिड़ियों की तरह-तरह की आवाजें और बीच-बीच में गुजरने वाले वाहन भंग कर रहे हैं। 

 हाँ, तो रात झाँसी के होटल में सोते समय शुरु में ठण्ड लग रही थी। रजाई ओढ़कर सोया, मगर वह मोटी थी। बाद में गर्मी लगने लगी। बैग से चादर निकाल कर ओढ़ा। अब दो-चार मच्छर काटने लगे। अन्त में, पंखा चलाकर रजाई ओढ़ लिया। यह ठीक रहा।  

 जब नीन्द खुली, तब भोर के तीन-पच्चीस हो रहे थे। इतनी जल्दी नीन्द शायद इसलिए खुल गयी कि रात जल्दी सोया था। इसके बाद ठीक से नीन्द नहीं आई। साढ़े पाँच बजे से तैयार होने लगा और साढ़े छह बजते-बजते मेरी साइकिल तैयार थी- यात्रा के अगले चरण के लिए।  

 एक टेम्पो वाले की सहायता करने में बीस मिनट देर हुई। घुटनों में दर्द महसूस हो रहा था। खासकर दाहिने घुटने में। टैªक-सूट के साथ अन्दर मैंने 'इनर' पहन लिया था- ठण्ड थी।  

 मैं उस सड़क पर आगे बढ़ा, जो शिवपुरी जाती थी। क्योंकि रात मैंने दो लोगों से पूछा था और दोनों ने बताया था कि यही सड़क छतरपुर भी जाती है। लेकिन चलते वक्त मुझे लग रहा था कि मुझे तो पूरब और दक्षिण के बीच चलना चाहिए, जबकि यह बिल्कुल पश्चिम था। अगले चौराहे पर एक सज्जन से पूछा तो पता चला एकदम पीछे लौटना है। मेरा अन्दाज सही निकला। वापस लौटकर पिछले चौराहे से जो रास्ता चुना, वह ठीक पूरब और दक्षिण के बीच था। 

 सोचा था, झाँसी शहर से बाहर आते ही चाय पीऊँगा और साइकिल में हवा भी डलवा लूँगा। वैसे, साइकिल में हवा शायद रात में ही डलवा लेनी चाहिए थी। काफी भारी चल रही थी। शहर से बाहर चाय दूकान तो मिल गयी, मगर साइकिल दूकान नहीं मिली। सोचा, ओरछा में बाजार होगा- वहीं हवा डलवा लिया जायेगा। ऊँचे-नीचे पठारी रास्ते पर मैं चलता रहा। घुटनों का दर्द और टायरों की कम हवा सफर का मजा किरकिरा किये दे रही थी। 

 ग्यारह किलोमीटर के बाद पता चला, ओरछा यहाँ से आठ किलोमीटर है और उसका रास्ता अलग है। लाचार होकर मैं आगे ही बढ़ता रहा। मील के पत्थरों पर कोई 'बरूआसागर' नजर आ रहा था- सोचा, वहीं नाश्ता भी कर लूँगा। 

 इस दौरान दो घटनायें घटीं। 

 एक पेड़ के नीचे से गुजरते वक्त अचानक मुझपर कुछ मधुमक्खियों का हमला हो गया। समझने में एकाध सेकेण्ड का समय लगा और उसके बाद काहे की सुस्ती! जल्दी से सिर से कैप उतार कर एक हाथ से उसे मधुमक्खियों पर फटकारते हुए मैंने जोर से साइकिल भगायी। कुछ दूर साइकिल भगाने के बाद उनसे पीछा
छूटा- कोई मधुमक्खी डंक नहीं मार पायी।  

 दूसरी घटना ऐसी घटी कि रास्ते में एक छोटा-सा, पुराना पर आकर्षक मन्दिर नजर आया।
पुरातत्त्व विभाग का बोर्ड भी लगा था- 'जरायु मन्दिर'। सोचा, लौटते समय देखूँगा। अभी पचास मीटर ही आगे गया होगा कि दाहिने घुटने का दर्द एकाएक बढ़ गया। तुरन्त वापस लौटा- मन्दिर में जाकर क्षमा माँगने के लिए। अन्दर जाकर देखा, तो गर्भगृह से प्रतिमा गायब थी। बाहर की मूर्तियों के भी सर गायब थे। मेरे ख्याल से कुछ तस्कर लोग इन पुराने मन्दिरों की मूर्तियों के सिर निकाल कर बेचने का धन्धा करते होंगे। 

 कहने की जरूरत नहीं कि मन्दिर में क्षमा माँगने के बाद जब मैं वापस साइकिल पर सवार हुआ, तो मेरे घुटने का बढ़ा हुआ दर्द जा चुका था!  

 खैर। मुश्किल से और बड़ी उम्मीद के साथ बरूआसागर पहुँचा, तो पाया, बस-स्टैण्ड तो काफी बड़ा और व्यस्त है, पर एक भी साइकिल दूकान नहीं है। एक बूढ़े बाबा गुमटी में अपने-जैसा ही एक पम्प लिये बैठे थे। जैसे-तैसे करके थोड़ी हवा डाली। चैन भी कसवाना था, पर बाबा को एस एल आर साइकिल का कुछ पता
न था। वहाँ गाजर का हलवा खाया, चाय पी। 'इनर' और ट्रैक सूट का 'अपर' निकाल दिया- गर्मी पड़ने लगी थी। टी-शर्ट पहना। तब तक एक दूसरा साइकिल रिपेयर करने वाला आ गया था। उसने फिर हवा
डाली, चैन टाईट किया। 

 आगे मध्य-प्रदेश और उत्तर प्रदेश के साईनबोर्ड मानो आँख-मिचौनी खेल रहे थे। अभी एम पी तो अभी यू पी। कभी-कभी याद ही नहीं रहता था कि मैं किस राज्य से गुजर रहा हूँ। बेतवा नदी के पुल पर आकर थकान थोड़ी मिटी। सामने दोनों तरफ पहाड़ियाँ और जंगल। बाँई तरफ यौवन से भरपूर बेतवा नदी।
साफ पानी- सम्भवतः ठण्डा भी। दाहिनी ओर वही नदी पत्थरों के बीच से गुजर रही थी। उसी ओर दूरी पर ओरछा के महल आदि दीख रहे थे। फिलहाल ओरछा जाने का इरादा मैंने छोड़ दिया था, क्योंकि मेरा मुख्य मकसद खजुराहो था।  

 बेतवा नदी के बाद जिन पहाड़ियों और जंगलों का सिलसिला शुरु हुआ, उससे मुझे अपने इलाके की राजमहल की पहाड़ियों की याद आ गयी। वही मिट्टी, वही वनस्पति, वही महक और उन्हीं चिड़ियों की आवाजें। 

घुटने के दर्द के बावजूद इस प्राकृतिक दृश्य का उपभोग करते हुए ऊँचे-नीचे रास्ते पर मैं चलता रहा। कई बार चढ़ाव पर पैदल ही चलना पड़ा। 

 इस बार मेरी रफ्तार कम थी। पठारी रास्तों के चढ़ावों ने काफी परेशान किया। फिर भी हरे-भरे सरसों और गेहूँ-जौ के खेतों और नीली पहाड़ियों ने बोर नहीं होने दिया।  

 मऊरानीपुर अभी पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर था- जब एक बजे करीब भूख लगी। आपात्कालीन भोजन के रुप में चिड़वा साथ था। साइकिल एक ओर रखकर एक पेड़ के नीचे बैठकर मैंने वही खाया। पास ही हैण्ड पम्प था। खाकर पेड़ की छाँव में जूते उतारकर मैं लेट गया। अब तक सिर्फ चाय पीते हुए ही आ रहा था-
बीच-बीच में एस एन सिंह का पकवान खा रहा था। एक कस्बे में एक बुजुर्ग ने चाय का पैसा भी नहीं देने दिया था।  

 पौने दो बजे वहाँ से चला। साढ़े तीन बजे जब मऊरानीपुर पहुँचा, तब एक बड़ी भूल का अहसास हुआ। मैंने
अपने नक्शे में मऊरानीपुर से नवगाँव की दूरी चौबीस (24) किमी दिखा रखी थी और आज अन्धेरा घिरने
से पहले वहाँ पहुँचने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन मऊरानीपुर में साईनबोर्ड बता रहे थे कि नवगाँव वहाँ से बयालीस (42) किमी दूर था। गलती तो हो चुकी थी। एक चाय दूकान पर मैंने नक्शे को ठीक किया। 

 प्रसंगवश, एक बात का जिक्र कर दूँ कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर अनेक प्रसिद्ध उपन्यासों (जिनमें से एक 'मृगनयनी' है) की रचना करने वाले लेखक वृन्दावन लाल वर्मा जी इस मऊरानीपुर के ही वासी हैं।  

 आज जो रफ्तार थी, उसके हिसाब से अब नवगाँव पहुँचने में कम-से-कम रात के आठ बजेंगे। कुल दूरी भी सौ किमी से ज्यादा हो जायेगी। एक दिन में सौ किमी से ज्यादा साइकिल चलाना उचित नहीं था। न ही रात में सफर करना उचित था। दूसरी ओर, इतना दिन रहते मऊरानीपुर में रूकना भी उचित नहीं था। अन्त में मैंने जोखिम लिया और पौने चार बजे वहाँ से आगे रवाना हो गया- सोचा जहाँ अन्धेरा होगा, वहीं रात गुजार लूँगा। तैयारी करीब-करीब पूरी थी। 

 हाँ, एक बात; मऊरानीपुर से पन्द्रह किमी दूर जहाँ मैंने खाना खाया था, वहाँ से रास्ता समतल था। कुछ खाने की भी एनर्जी थी। वहाँ से साइकिल अच्छी चली थी। यहाँ मऊरानीपुर से निकलते ही चढ़ाव और ढलान वाली सड़क फिर शुरु हो गयी। अब तक मुझे चढ़ाव से डर लगने लगा था। कई बार चढ़ाव पर पैदल चलना पड़ा। यह पैरों के लिए अच्छा भी था। लगातार साइकिल यात्रा के दौरान बीच-बीच में शायद पैदल भी चलना चाहिए। कल ऐसा न करके मैंने गलती की थी। एक स्थानीय साइकिल-सवार ने भी यही सलाह दिया। अब रास्ते में पड़ने वाले छोटे-मोटे कस्बों व बाजारों में लोग पूछने लगे थे- कहाँ से आ रहे हो, कहाँ तक जाना है- वगैरह। 

 खैर, रफ्तार कम होने के बावजूद आठ बजे रात तक नवगाँव पहुँचने की उम्मीद थी। एक डैम के पास एक अजीबो-गरीब पुल को पार करने के बाद अन्तिम रुप से मध्य प्रदेश राज्य की शुरुआत हुई। वहीं शाम भी ढली। कुछेक किमी चलने के बाद मैंने ट्रैक-सूट पहना। अब तक हाफ पैण्ट और टी शर्ट में ही काम चल रहा था। हाफ पैण्ट पहनने का आइडिया मुझे बरूआसागर के बाद आया- क्योंकि वहीं से मैंने दो-तीन घण्टों बाद-बाद घुटनों पर आयोडेक्स की मालिश शुरु की थी। हाफ पैण्ट में आयोडेक्स लगाना आसान था और
साइकिल चलाते वक्त भी घुटनों पर मालिश की जा सकती थी। 

 मेरे दाहिने तरफ सूरज डूब रहा था और मैं चाहकर भी स्पीड बढ़ा नहीं पा रहा था। यूँ तो पूनम की रात थी, लेकिन सूरज के डूबने और चाँद के उगने के बीच करीब आधा घण्टा अन्धेरा रहेगा- ऐसा मेरा अनुमान था।  

 धीरे-धीरे अन्धेरा भी ढला। नवगाँव बीस किमी दूर था। रात घिरने के बाद एक चेक-पोस्ट आया। वहीं एक पैकेट बिस्कुट खाया, चाय पी। मऊरानीपुर में शायद अण्डा खा लेना चाहिए था- कुछ ज्यादा ऊर्जा मिलती। चाय पीकर थोड़ा जोश आया।  

 अब तक घना अन्धकार छा चुका था। दो-चार झटके खाने के बाद अपना पेन टॉर्च निकाला। पहले मैं बड़ा टॉर्च लेकर चलने वाला था, लेकिन बाद में यह सोचकर छोड़ दिया कि रात में सफर करना ही नहीं है। पेन टॉर्च का कोई खास फायदा नहीं था।  

 एक बाजार में मैंने पूछा कि कोई धर्मशाला है क्या?- नहीं था। आगे चलते-चलते खेतों की रखवाली करते एक बाबा से पूछा- आपकी झोपड़ी में जगह मिलेगी? जगह तो थी, मगर कीड़ों की बात कहकर उन्होंने आगे
पुतरया गाँव जाने को कहा। वैसे, मेरे पास इन्सेक्टीसाईड-स्प्रे था, पर वे नहीं माने।  

 फिर आगे चला। अब जाकर पूरब की क्षितिज पर पूनम का गोल चाँद उगा। थोड़ा चपटा और धुंधला था चाँद। जब तक वह ऊपर उठकर अपनी चाँदनी का आँचल फैलायेगा, तब तक मैं शायद नवगाँव ही पहुँच जाऊँ। एक ढाबे के मालिक से बात किया। सामने सड़क के उस पार एक प्राइमरी स्कूल का भवन था-
वहाँ तक चारपाई ले जाने की अनुमति मिल गयी। वहीं दाल-रोटी और खीर खाया। स्कूल में चारपाई ले जाकर, बिस्तर बिछाकर, साइकिल-बैग को चारपाई से लॉक करके, घुटनों पर आयोडेक्स लगाकर मैं सो गया। तब तक साढ़े आठ बज गये थे।  

 नीन्द खुली मेरी कोई डेढ़-दो बजे रात में। फिर ठीक से नीन्द नहीं आयी। शायद थकान की वजह से; या फिर, नीन्द पूरी हो जाने की वजह से। वैसे भी, सामने ढाबे में (या ढाबे में खड़े किसी ट्रक में) रात भर ऊँचे वॉल्यूम में गाने चलते रहे। कभी कौव्वाली, कभी क्रान्तिवीर के डायलॉग, कभी कुछ और। भोर में फिर नीन्द आयी।  

 सुबह पौने सात बजे उठा। बड़े आलस के साथ तैयार हुआ। चारपाई पहुँचाई, चाय पी और धीरे-धीरे चल पड़ा। शरीर ठण्डा था, घुटनों में जरा भी आराम नहीं था, सो कुछ देर पैदल चलने के बाद ही साइकिल
चलाना उचित था। नवगाँव वहाँ से दस-बारह किमी दूर था।  

 बीच एक जगह रुककर प्रातःक्रिया से निबटा। नवगाँव में जब टायरों में हवा डाला, तब ध्यान गया- टायरों में हवा कम थी। नवगाँव से बाहर आकर फिर एकबार हवा डलवाया, चाय पी, आयोडेक्स मला और चल पड़ा। छतरपुर कोई बीस-पचीस किमी दूर था। 

 ...और अभी जहाँ से लिख रहा हूँ, वहाँ से दस किमी बचा होगा। बारह बज चुके हैं, भूख भी लग रही है। इतना ही।  

(क्रमशः)

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रचनाएँ
ग्वालियर से खजुराहो: एक साइकिल यात्रा
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बात 1995 के फरवरी की है, जब मैंने ग्वालियर से खजुराहो तक की यात्रा साइकिल से की थी- अकेले। लौटते समय मैं ओरछा और दतिया भी गया था। कुल 8 दिनों में भ्रमण पूरा हुआ था और कुल-मिलाकर 564 किलोमीटर की यात्रा मैंने की थी। इसे एक तरह का सिरफिरापन, दुस्साहस या जुनून कहा जा सकता है, मगर मुझे लगता है कि युवावस्था में इस तरह का छोटा-मोटा ‘एडवेंचर’ करना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। खजुराहो के इतिहास का जिक्र करते समय दो-एक पाराग्राफ मैंने बाद में जोड़े हैं; बाकी सारी बातें लगभग वही हैं, जो मैंने यात्रा के दौरान अपनी डायरी में लिखी थीं। (सचित्र ई'बुक पोथी डॉट कॉम पर उपलब्ध है।)
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