यह समय जबकि जगमगाते बाजार में रहने का है, मैं होटल के बिस्तर पर लेटे-लेटे यह लिख रहा हूँ। सूर्यास्त के समय जब खुले आकाश के नीचे एक कैफेटेरिया में बैठे चाय पी रहा था, तब उल्टा लग रहा था- सोचा था, चलकर आराम से लेटते हैं। वैसे भी, छोटा-सा बाजार है। सुबह से छः-सात चक्कर लग चुके हैं।
आज होटल में मेरी नीन्द सुबह जल्दी खुल गयी थी, मगर मैं दोबारा सो गया था। फिर सात बजे उठकर तैयार होकर कैमरा वगैरह लेकर मैं साइकिल से ही रवाना हो गया। पश्चिमी मन्दिर समूह से कोई सात-आठ सौ मीटर दूर था यह होटल।
एक 'खुला गगन' कैफेटेरिया में चाय पीया, कैमरा लोड किया और बैग कन्धे पर टाँगकर टिकट लेकर मैं पश्चिमी मन्दिर समूह में दाखिल हुआ।
मैंने ट्रैक सूट का काला ढीला लोअर और सफेद ढीली टी-शर्ट पहन रखी थी। पैरों में था हवाई चप्पल। सिर पर कैप और आँखों पर फोटोक्रोम का चश्मा भी था। कई हॉकरों ने विदेशी समझ लिया था।
लक्ष्मी और वराह मन्दिरों से शुरुआत किया। दोनों छोटे मन्दिर हैं। फिर लक्ष्मण मन्दिर की ओर रुख किया, जो लगभग सम्पूर्ण मन्दिर है। बड़े पैमाने पर सफाई का काम चल रहा था। शायद मार्च में होने वाले 'खजुराहो महोत्सव' की तैयारी थी।
पहले मन्दिर के चबूतरे का चक्कर लगाया। बस मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ। दैनिक क्रिया-कलाप, शृँगार, शिकार, नृत्य-संगीत, युद्ध इत्यादि से सम्बन्धित मूर्तियाँ। मगर लोगों को आकर्षित करती हैं काम-कला को दर्शाती मूर्तियाँ।
काम-वासना से सम्बन्धित जितनी तरह की कल्पनायें और फन्तासियाँ मानव के मन में जन्म ले सकती हैं, प्रायः उन सबों को बिना किसी लाग-लपेट और दुराव-छिपाव के यहाँ सुन्दर सुघड़ मूर्तियों में उभार दिया गया है।
विदेशी सैलानी यहाँ आकर दाँतों तले उँगली दबा लेते होंगे। आज के जिस भारत को वे दकियानूस समझते हैं, वहीं एक हजार साल पहले (जब स्वयं ये पश्चिम वाले दकियानूस और असभ्य थे) विचारों की इतनी आजादी थी! अपनी भौतिकवादी पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठ समझने वाले ये लोग यहाँ आकर महसूस करते होंगे कि उनकी भोगवादी संस्कृति भारत की संस्कृति के पैर की कानी उँगली के बराबर भी नहीं है।
भारतीय संस्कृति ने तो 'काम' को धर्म, मोक्ष और अर्थ के बराबर का दर्जा दे रखा है (चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) और इसपर बाकायदे शास्त्र रचे गये हैं।
एक सिद्धान्त यह भी है कि सांसारिक सुखों को पहले भोग लिया जाय। जब मन भर जाय और सांसारिक सुखों की निरर्थकता का अहसास हो जाय, तब ईश्वर का ध्यान किया जाय। इससे ध्यान भटकने का अवसर नहीं रहता। इसी प्रकार, मन्दिर के चबूतरे के चारों तरफ घूमकर पहले सांसारिक विषयों को जी भर के देख लिया जाय, उसके बाद ही मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश किया जाय। फिर वहाँ ईश्वर का ध्यान करते समय मन विचलित नहीं होगा।
खजुराहो मन्दिरों की मूर्ति कला ही लोग देखने नहीं आते, बल्कि स्वयं मन्दिर अपने-आप में भव्य और दर्शनीय हैं। इनका आकार-प्रकार, इनकी स्थापत्य-शैली बेमिसाल है।
दसवीं से बारहवीं सदी तक बुन्देलखण्ड पर राज करने वाले चन्देल राजाओं ने 950 से 1050 ईस्वी के बीच छोटे-बड़े करीब तीन सौ मन्दिरों का निर्माण यहाँ करवाया था- ऐसी जानकारी मिलती है। बाद में चन्देल अपनी राजधानी महोबा ले जाते हैं। फिर भी, चौदहवीं सदी तक खजुराहो का महत्व बना रहता है, उसके
बाद यह गुमनामी में खो जाता है। करीब पाँच सौ वर्षों के बाद 19वीं सदी में एक अँग्रेज इंजीनियर को जब
उनके कहारों के माध्यम से इन मन्दिरों की जानकारी मिलती है, तब वे जंगलों में खोये इन मन्दिरों को
जाकर देखते हैं और इनका विवरण एशियाटिक सोसायटी के पास भेजते हैं। तत्कालीन पुरातत्व विभाग सक्रिय होता है और छतरपुर के राजा इन मन्दिरों की मरम्मत करवाते हैं। तब तक 20-22 मन्दिर ही साबुत बचे हुए थे। हालाँकि ध्वंसावशेष साठ-पैंसठ मन्दिरों के पाये जाते हैं। साबुत बचे मन्दिरों में भी 30-40 प्रतिशत मूर्तियाँ खण्डित हैं।
1950 के दशक में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु यहाँ भ्रमण के लिए आते हैं, तब से ये मन्दिर सही मायने में लोगों की नजर में फिर से आते हैं।
1986 से तो खैर, यूनेस्को ने इन मन्दिरों को 'विश्व धरोहर' घोषित कर दिया है और तब से इनके संरक्षण के उपाय किये जा रहे हैं।
प्रसंगवश, इन मन्दिरों के निर्माण के पीछे के कारण पर भी एक दृष्टि डाल ली जाय। काशी के राजपुरोहित की बेटी हेमवती बहुत सुन्दर थी, मगर दुर्भाग्य से वह युवावस्था में ही विधवा हो जाती है। यह दसवीं सदी की बात है, जब हमारा समाज सुसभ्य और सुसंस्कृत हुआ करता था- बेसिर-पैर की कुप्रथायें और दकियानूसी बन्धन तब समाज में प्रचलित नहीं थे। विधवा को अपने ढंग से अपना जीवन जीने का अधिकार रहा होगा। हेमवती अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेती है और वह माँ बनती हैं। काशी नगर छोड़कर दूर के किसी गाँव में रहते हुए वह पुत्र को जन्म देती है। पुत्र को अपने ढंग से शिक्षा भी देती है। पुत्र मेधावी और वीर बनता है और कई लड़ाईयाँ जीतकर अपना राज स्थापित करता है। बाद में, माँ की इच्छा के अनुसार ऐसे मन्दिरों का निर्माण करवाता है, जिनकी दीवारों पर मानव मन की- खासकर, नारी मन की- हर भावना, कामना, वासना को मूर्तियों में उकेरा जाता है- पूरी स्वतंत्रता के साथ।
ध्यान से देखने पर आप पायेंगे कि यहाँ सिर्फ शृँगार और रति-क्रिया में लिप्त नारी-मूर्तियाँ नहीं हैं, बल्कि पढ़ती, लिखती, शास्त्रार्थ करती, पति को समझाती, शिशु को प्यार करती- हर रूप में नारी को यहाँ प्रदर्शित किया गया है। बस गहराई से नीरिक्षण करने का समय किसी के पास नहीं होता!
खैर, तो इस राजा का नाम होता है चन्द्रवर्मन; किंवदन्तियों में इन्हें भगवान चन्द्रमा का पुत्र माना जाता है; इनके वंश को चन्देल राजवंश का नाम मिलता है, दो सौ वर्षों के शासनकाल में इस राजवंश के सभी राजा ऐसे मन्दिरों के निर्माण की परम्परा जारी रखते हैं।
यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि इतने बड़े और विशाल मन्दिर जिन पत्थरों से बने हैं, उन्हें सीमेण्ट-जैसे किसी मसाले से नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ फँसाकर (इण्टरलॉकिंग) टिकाया गया है।
खजुराहो में एक संग्रहालय भी है, जहाँ मन्दिरों के वास्तुशिल्प तथा स्थापत्य शैली पर जरुरी जानकारियाँ उपलब्ध है। उन्हें जानने पर आपको कहना पड़ेगा कि खजुराहो मन्दिरों के डिजाइन अपने-आप में 'परफेक्ट' हैं। लक्ष्मण, कन्दरिया महादेव और जगदम्बी मन्दिरों को 'मास्टर पीस' कहा जा सकता है। चित्रगुप्त और
विश्वनाथ मन्दिर भी भव्य हैं।
सच पूछा जाय, तो खजुराहो के इन मन्दिरों के साथ हमारे इतिहास की एक त्रासदी भी जुड़ी हुई है, जिसका
अहसास मुझे एक दक्षिण भारतीय इतिहासकार (नाम ठीक से याद नहीं) की पुस्तक पढ़ते समय हुआ था। उनकी एक पंक्ति का आशय कुछ इस प्रकार था कि ग्यारहवीं सदी में जब भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर मुगल आक्रान्ताओं के आक्रमण बढ़ते जा रहे थे, तब खजुराहो में अन्तिम कुछ मन्दिरों की नींव रखी जा रही थी!
...इतिहासकार का तात्पर्य यह है कि जिस वक्त हम भारतीयों को पश्चिमोत्तर सीमा पर किलेबन्दी करनी चाहिए थी, उस समय हम कमनीय नारी देह की सुडौल प्रतिमायें गढ़ने में व्यस्त थे! परिणामस्वरूप, हम
गुलाम बने..., हमारी ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूख गयीं... और सैकड़ों प्रकार की कुप्रथायें हमारे समाज में प्रवेश कर गयीं।
बेशक, यह एक त्रासदी है, मगर यह एक स्वाभाविक त्रासदी है। 7वीं शताब्दी से भारत लगातार 'सोने की चिड़िया' बना हुआ था। गणित, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, संगीत, स्थापत्य, व्यापार, उद्योग, कृषि, हर क्षेत्र में, हर
मामले में भारत विश्वगुरु था। समृद्धि जब अपने चरम पर पहुँचती है, तो कुछ समय वहाँ टिकने के बाद उसका पतन होगा ही- यह स्वाभाविक प्रक्रिया है किसी भी सभ्यता का।
फोटोग्राफी करते समय पता चला, यहाँ कम-से-कम दो रोल चाहिए। मैंने एक ही से काम चलाया- कई सुन्दर मूर्तियों को छोड़ते हुए।
एक और चीज पर मेरा ध्यान गया- ज्यादातर लोगों- खासकर, विदेशी पर्यटकों- के हाथों में ऐसे कैमरे थे, जिनके लेन्स ऑटोमेटिक तरीके से बाहर आ रहे थे- हल्की मशीनी आवाज के साथ। उनके बीच मैं उँगलियों से लेन्स को घुमा-घुमा कर 'फोकस' ठीक कर रहा था।
एक मन्दिर के अन्दर मैं खम्भों के ऊपर से गायब मूर्तियों की संख्या गिनकर डायरी में नोट कर रहा था। मेरे कैमरे पर चार सेलों वाला फ्लैशगन लगा था और सिर पर कैप उल्टी थी (फोटो खींचने में आसानी के
लिए)।
एक युवक ने मेरे पास आकर बड़े सलीके से पूछा- 'डू यू नो हिन्दी?' मैंने बड़ी सहजता से कहा- 'ऐसी क्या बात है?' वह झेंप गया।
मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ते समय उस युवक को मैंने सीढ़ियों पर ही बैठे देखा था। वह अपनी पत्नी के साथ बैठा हुआ था। साफ लग रहा था कि दोनों नवविवाहित हैं और 'मधुयामिनी' मनाने के लिए वे खजुराहो आये हुए हैं। उन्हें नजरअन्दाज करते हुए मैं सीढ़ियाँ चढ़कर गर्भगृह की ओर बढ़ गया था।
खैर, उसकी झेंप मिटाने के लिए मैं उसे गायब मूर्तियों के बारे में बताने लगा। आमतौर पर खम्भों के ऊपर लोगों का ध्यान नहीं जाता। उसने भी आश्चर्य से देखा कि एक खम्भे पर आठ मूर्तियों के लिए स्थान बने है और ज्यादातर मूर्तियाँ गायब हैं। उसने कहा- 'आप भी इसी फील्ड से हैं क्या?' उसके कहने का तात्पर्य यह था कि कहीं मैं इतिहास या पुरातत्व का विद्यार्थी तो नहीं, मगर मैं मजाक में जवाब देना चाहता था- 'आपका
मतलब मूर्ती-तस्करी से है क्या?' फिर सोचा, वह और झेंप जायेगा, सो मैंने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है।
उसने कहा, 'आपने ऑब्जर्व किया, यही बहुत बड़ी बात है।'
दरअसल, उस युवक को अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ कुछ-कुछ 'खजुराहो-मुद्रा' में तस्वीरें खिंचवानी थी और उसके कैमरे में 'टाईमर' नहीं था। इसीलिए वह मेरे पास आया था।
अब यह संयोग ही था कि उस मन्दिर में उस वक्त हम तीनों के अलावे और कोई नहीं था। मैंने खुशी-खुशी उन दोनों की युगल तस्वीरें खींच दी।
दोेपहर के बाद मैं पूर्वी समूह वाले मन्दिरों की ओर गया। वहाँ जैन मन्दिर के अन्दर दीवार पर चढ़कर बड़ी मुश्किल से मैं अन्धेरे कोने में छुपी एक मूर्ति पर फोकस कर रहा था कि सिल्वेस्टर स्टालन जैसे शरीर वाला एक विदेशी अन्दर आया। उसने कहा- 'हलो'। मैंने भी 'हाय' कहा। फिर मैंने उसे उस मूर्ति की खासियत बताई कि यह प्रसिद्ध 'खजुराहो चुम्बन' वाली युगल मूर्ति है, मगर इतने कोने में है कि नजर नहीं आती
है। उसने भी वह फोटो लिया। बातचीत के क्रम में जब मेरे मुँह से निकला कि 'वी इण्डियन्स आर वेरी इज-लविंग, आवर मोटो इज लेट इट रन', तो उसने जानना कि मैं कहाँ का हूँ? ऐसा लगता है, जैसे हवाई चप्पल पहनकर घूमने का अधिकार सिर्फ विदेशी सैलानियों को ही प्राप्त है और मैं ऐसा करके कोई नियम तोड़ रहा था। मद्रास के मेरिना बीच पर कन्धे पर जूते लटकाये, पैण्ट के पाँयचे मोड़कर समुद्र की लहरों का आनन्द लेते समय नवल ने एक टिप्पणी की थी- 'हम भारतीय तो सी'बीच पर भी थ्री-पीस में जाना पसन्द
करते हैं।'
वहाँ से आकर मैं संग्रहालय में गया। दाँतों तले उँगली दबाते हुए इन मन्दिरों की स्थापत्य-शैली को थोड़ा-बहुत जाना। फिर खाना खाकर होटल में लौटा। कुछ कपड़े धोये।
पहले बीस किलोमीटर दूर रानेह जलप्रपात जाने का विचार था, मगर बाद में छोड़ दिया।
तीन बज रहे थे। वापस पश्चिमी समूह वाले मन्दिरों में गया। मुझे एक खास मूर्ति की तलाश थी। मगर वह नहीं मिली। पूर्वी समूह में भी मैं दो मन्दिर गलती से छोड़ आया था। दुबारा वहाँ भी गया। वे दोनों मन्दिर
जरा वीराने में थे- सड़क नहीं बनी थी। दोनों अपेक्षाकृत छोटे मन्दिर थे। एक वराह, दूसरा ब्रह्मा। अच्छे ही थे।
वहाँ से लौटकर उसी कैफेटेरिया में चाय पी, जहाँ सुबह और दोपहर चाय पी चुका था। तब तक अन्धेरा घिरने लगा था। थोड़ी देर अखबार पढ़ा फिर होटल में आ गया। डायरी लिखना शुरु किया। नौ बजे उठकर जाकर नाश्ता करके आया। फिर लिखने बैठा। अभी कोई साढ़े दस बज रहे हैं। जाकर खाना खायेंगे।
कैफेटेरिया में एक व्यक्ति ने सलाह दी थी कि यहाँ से बस द्वारा आगरा चले जाओ- साइकिल ऊपर चढ़ा देना। फिर आगरा से ग्वालियर चले जाना। मगर ऐसा करने से एक तो ओरछा घूमना रह जायेगा, दूसरे, फिर यह 'साइकिल यात्रा' कहाँ रह जायेगी? वैसे घुटनों का दर्द अपनी जगह कायम है। देखा जाय, कल क्या फैसला लेते हैं।
(क्रमशः)