सुबह काफी सुबह- साढ़े पाँच बजे ही- मेरी आँखें खुल गयीं। 'रोजे' से सम्बन्धित निर्देश तथा गाने कुछ देर से सुनायी पड़ रहे थे। अच्छा लग रहा था।
तैयार होकर जब तक मैं बाहर निकला- सूरज उग चुका था। एक जलाशय के किनारे दो फोटो खींचा- उगते सूरज का। आखिरी स्नैप थे।
आकाश में हल्के बादल थे। दो-एक घण्टे बाद बदली ही छा गयी।
यह मेरे सफर का अन्तिम चरण था। दतिया से ग्वालियर की दूरी कोई 80 किलोमीटर है। घुटनों में दर्द का नामो-निशान नहीं था। सड़क अच्छी थी। साइकिल मानो अपने-आप चल रही थी। कुछ तो मानसिक प्रभाव था और कुछ बदली ने मौसम को रूमानी बना दिया था।
बीच में करीब आठ बजे मैं सोनागीर के जैन मन्दिरों के तरफ मुड़ गया। फिर मैं लौट आया- दूरी से मुझे ये
कुछ खास नहीं लगे। इसमें मेरा एक घण्टा खर्च हुआ।
अच्छी रफ्तार से मैं चलता रहा। मैं सुल्तानगढ़ जलप्रपात भी जाना चाहता था, पर पता चला- वह ग्वालियर-शिवपुरी मार्ग पर है।
(कुछ दिनों बाद अपने दोस्तों के साथ 'टाटा-407' बुक करके जब मैं दुबारा दतिया आया था, तब हमलोग सोनागीर के इन जैन मन्दिरों को देखने गये थे। बहुत अच्छा लगा था। दतिया में हमलोग एक धार्मिक स्थल पर भी गये थे, जिसका नाम शायद 'पीताम्बर पीठ' है। अन्त में हमलोग 'सुल्तानगढ़ जलप्रपात' पर गये थे। थोड़ी देर में वहाँ एक बस में एल.एन.सी.पी.ई. की लड़कियाँ भी आ गयीं थीं। वह एक यादगार शाम थी। प्रसंगवश, एकबार हमलोग इसी तरह मिनी बस बुक करके शिवपुरी भी गये थे।)
ग्वालियर शहर में प्रवेश किया कोई ढाई बजे। हल्की बूँदा-बाँदी हुई। (जब मैंने सफर की शुरुआत की थी, तब भी बूँदा-बाँदी हुई थी।)
तीन-सवा तीन बजे मैं अपने 'बिल्लेट' में था।
दोस्तों से थोड़ी बातचीत हुई। पानी गुनगुना करके नहाया। कुछ कपड़े धोये, तो कुछ धोबी को देने के लिए रख दिये। शाम 'पटेल मार्केट' से भी घूमकर आया।
रात बिल्लेट में मेस के खाने को 'फ्राइ' करके दोस्तों के साथ खाना खाया। एक पत्र लिखा- 'पीकू' को।
अब इस डायरी को समाप्त करने जा रहा हूँ। घड़ी मध्यरात्रि के एक बजने में पाँच मिनट बाकी का समय दिखा रही है।
कहाँ तो सफर में मैं रात आठ बजते-बजते सो जाया करता था... और कहाँ यहाँ पुरानी दिनचर्या फिर शुरु हो गयी...
(समाप्त)