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ओरछा (श्रीराम धर्मशाला) 20 फरवरी' 95 (रात्रि 9:00 बजे)

5 नवम्बर 2021

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 कल एवरेस्ट लॉज में मुझे ऐसा अनुभव हुआ था, जैसे मैं पुराने जमाने का एक मुसाफिर हूँ और लम्बी यात्रा के दौरान एक सराय में ठहरा हुआ हूँ। घोड़े के स्थान पर मेरे पास साइकिल है, जिसे मैंने अस्तबल के स्थान पर अहाते में खड़ा कर दिया है। कुछ पढ़ी हुई किस्से-कहानियों का असर था, तो कुछ नवगाँव कस्बे तथा लॉज का माहौल ही ऐसा था।  

 कुछ फर्क भी थे, जैसे, सराय में मोटी मालकिन होती थी, तो यहाँ एक मरियल-सा अधेड़ लॉज का मैनेजर था और सराय में मालकिन की बेटी साकी बनकर मदिरा पिलाती थी, तो यहाँ एक खूसट किस्म के बूढ़े ने आकर
पूछा था- क्या सेवा की जाय? मुझे किसी सेवा की जरुरत नहीं थी। 

 सुबह मुँह अन्धेरे उठकर मैं बाहर आया। अनुमान था- जब बस-स्टैण्ड है, तो चाय दूकान खुली मिलेगी। खुली मिली भी। चाय पीकर मैं तैयार होने लगा। यहाँ 'अटैच्ड' बाथरूम नहीं था। वैसे, इतनी सुबह कोई और जागा भी नहीं था। सुबह के सात बजते-बजते मैं लॉज से निकल पड़ा। 

 एक और चाय पी, कुछ पेड़े बैग में डाले। पेड़े खाते हुए मैं धीरे-धीरे साइकिल चलाने लगा। ठण्ड थी, सो
पहले कुछ देर धीरे साइकिल चलाकर मैं पैरों को गर्म कर लेना चाहता था। बाद में गति बढ़ाने का इरादा था। 

 जिस ढाबे के पास मैंने 16 की रात बितायी थी, वहाँ मैं चाय पीना चाहता था, मगर चाय बनाने वाले लड़के की रोनी सूरत देखकर मैंने इरादा बदल दिया। आगे बढ़ने से पहले मैंने उस बूढ़े बाबा को नमस्ते किया, जिन्होंने उस रात मुझे ढाबे की चारपाई को स्कूल-भवन तक ले जाने की अनुमति दी थी। बूढ़े ने इतनी जल्दी मुझे 'अच्छा जाओ' कहा कि मुझे अटपटा लगा। शायद उन्हें लगा हो कि मैं उनसे कोई मदद न माँग लूँ! 

 अगले एक ढाबे में देशी अण्डे का आमलेट खाकर मैंने चाय पी। 10 बजे डैम पार करके मैं उत्तर प्रदेश की
सीमा में आया। 

 मुझे पहले ही लग गया था कि यह अब तक का सबसे बोर सफर होगा, और ऐसा हुआ भी। 42 किलोमीटर के उबाऊ सफर को पार करके किसी तरह मऊरानीपुर पहुँचा। वहाँ जो मिला, खाया- पूरी, सब्जी, रायता और मिठाई। तब तक साढ़े बारह बज गये थे। 

 फिर सफर पर आगे बढ़ा। न मुझमें जोश था, न साइकिल साथ दे रही थी और न ही आस-पास के दृश्य सुन्दर लग रहे थे। 

 डेढ़ बजे एक बरगद के पेड़ के नीचे ग्राउण्ड शीट (वास्तव में यह स्पंज की एक शीट थी, जो देवगण ने चलते समय दी थी) बिछाकर लेटा- घुटनों पर मालिश भी की, फिर चलना- बल्कि घिसटना शुरु किया। 

 एक साइकिल सवार ने मुझे बताया था कि मेरी साइकिल छोटी है और इसे चलाते वक्त मेरे पैर सीधे नहीं होते हैं, इसलिए मेरे घुटनों में दर्द हो रहा है। बात सही थी- एक तो मेरी साइकिल बी.एस.ए. एस.एल.आर. थी और दूसरे, मैंने शुरु से ही इसकी सीट नीची करवा रखी थी। जबकि लम्बी यात्रा में पेडल मारते समय पैरों का बिलकुल सीधा हो जाना अच्छा रहता होगा। खैर। 

 इस बार बरुआसागर के बाजार में मैंने खोये के गुझिये खाये और चाय पी। दूकान पर चश्मा भूलकर मैं आगे बढ़ गया था। कोई दो सौ मीटर आगे बढ़ने के बाद मुझे याद आया और लौटकर मैंने चश्मा लिया। ऐसा इस सफर में पहली बार हुआ, जब मैं कोई सामान भूला। 

 शाम छह बजने में दस मिनट बाकी थे, जब जंगल पार करके मैं बेतवा नदी के पुल पर पहुँचा। वहाँ से मध्य प्रदेश की शुरुआत हुई। बीच में फिर उत्तर प्रदेश आया और फिर मध्य प्रदेश। 

 जहाँ से झाँसी 8 किलोमीटर दूर था, वहीं से ओरछा के लिए 8 किलोमीटर लम्बा रास्ता बाँयी तरफ निकल
रहा था। आज मैं थक गया था। अब तक सूरज डूब चुका था। 

 सवा छह बजे ओरछा के रास्ते पर आगे बढ़ा। काफी उतार-चढ़ाव थे। मैं उसी हिसाब से कभी साइकिल चलाता, तो कभी पैदल चलता। आज करीब बारह घण्टे का सफर हो गया था। पीठ में हल्का दर्द भी हो रहा था। 

 दाहिने हाथ की केहुनी पर और बायें हाथ की कलाई के आस-पास कुछ फुन्सियाँ भी नजर आ रही थीं- हल्की खुजली के साथ। छतरपुर में चाय पीते वक्त मैंने इन्हें देखा था। पता नहीं, किसकी प्रतिक्रिया थी! मजे की बात तो यह थी कि खजुराहो जाते समय ठीक छतरपुर में ही मैंने दाहिनी केहुनी पर उसी जगह इन फुन्सियों को देखा था, जो बाद में गायब हो गयी थीं। अब पता नहीं, छतरपुर तथा इन फुन्सियों में क्या
सम्बन्ध है! 

 ओरछा पहुँचने पर यह 'राम धर्मशाला' सबसे पहले नजर आया और मैं इसी में ठहर गया। प्रबन्धक ने बीस रुपये किराये की बात कुछ इस तरह से बतायी, मानो बहुत ज्यादा चार्ज बता रहा हो।  

 छोटा कमरा था। रोशनदान तो था, मगर 'क्रॉस वेण्टीलेशन' की व्यवस्था नहीं थी। कमरे में थोड़ी महक भरी हुई थी। लोहे की चारपाई पर सिर्फ गद्दा बिछा हुआ था। बाद में बिना आवरण की एक रजाई आयी, जिसे मैंने वापस भेजवायी। गद्दे पर मैंने अपनी दरी और चादर बिछायी, तब जाकर थोड़ा अच्छा लगा। ओढ़ने के लिए
शॉल और चादर काफी थे। बाजार से अगरबत्ती लाकर कमरे में जलाया। 

 जब मैं दियासलाई और अगरबत्ती लेकर आया, उसी समय बिजली भी गयी। संयोगवश, कमरे में टेबल की दराज में एक एक मोटी मोमबत्ती पड़ी हुई मिल गयी- उसे मैंने जला लिया। वैसे, बिजली जल्दी ही आ गयी।  

 एक स्टुडियो से 35 एम.एम. का श्वेत-श्याम रोल लेकर आया- कैमरे में लोड करने के लिए। दरअसल, यहाँ
का वातावरण देखकर मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि यहाँ 'ब्लैक एण्ड व्हाइट' फोटोग्राफी ही अच्छी रहेगी। बाद में स्टुथ्डयो के मालिक ने एक लड़के को धर्मशाला में भेजा- रोल वापस मँगवाने के लिए। उसके पास ब्लैक एण्ड व्हाइट रोल एक ही था। उसका कहना था कि मैं इस रोल को वापस कर दूँ और रंगीन रोल खरीद लूँ। मैंने- पता नहीं क्यों- झूठ बोल दिया कि रोल को मैंने कैमरे में लोड कर दिया है। बाद में अनुभव हुआ कि मुझे रंगीन रोल ही लेना चाहिए था- ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटोग्राफी के लिए जितना अनुभव चाहिए, वह मुझमें नहीं था।  खैर, अब सोने का इरादा है। काफी देर हो गयी- साढ़े नौ बज रहे हैं। इस सफर में इतनी रात तक शायद ही मैं अब तक जागा था।  

(क्रमशः) 

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रचनाएँ
ग्वालियर से खजुराहो: एक साइकिल यात्रा
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बात 1995 के फरवरी की है, जब मैंने ग्वालियर से खजुराहो तक की यात्रा साइकिल से की थी- अकेले। लौटते समय मैं ओरछा और दतिया भी गया था। कुल 8 दिनों में भ्रमण पूरा हुआ था और कुल-मिलाकर 564 किलोमीटर की यात्रा मैंने की थी। इसे एक तरह का सिरफिरापन, दुस्साहस या जुनून कहा जा सकता है, मगर मुझे लगता है कि युवावस्था में इस तरह का छोटा-मोटा ‘एडवेंचर’ करना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। खजुराहो के इतिहास का जिक्र करते समय दो-एक पाराग्राफ मैंने बाद में जोड़े हैं; बाकी सारी बातें लगभग वही हैं, जो मैंने यात्रा के दौरान अपनी डायरी में लिखी थीं। (सचित्र ई'बुक पोथी डॉट कॉम पर उपलब्ध है।)
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झाँसी (होटल अशोक) 15 फरवरी' 95 (शाम 07:45)

5 नवम्बर 2021
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<p>इस वक्त झाँसी के एक होटल 'अशोक' में बैठकर यह लिख रहा हूँ।</p> <p>आज सुबह करीब सात बजे ग्वालियर (

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छतरपुर (शहर से बाहर) 17 फरवरी' 95 (दिन 11:00 बजे)

5 नवम्बर 2021
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<p> छतरपुर शहर अभी कोई दस-बारह किलोमीटर दूर है। सड़क के किनारे एक छोटे-से जंगल में बैठकर यह लिख

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खजुराहो (होटल 'राहिल') 17 फरवरी' 95 (रात 08:30 बजे)

5 नवम्बर 2021
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<p> इस वक्त खजुराहो में मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के होटल राहिल के डोरमिटरी के एक गद्देदार बेड प

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खजुराहो 18 फरवरी' 95 (शाम 07:15 बजे)

5 नवम्बर 2021
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<p> यह समय जबकि जगमगाते बाजार में रहने का है, मैं होटल के बिस्तर पर लेटे-लेटे यह लिख रहा

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बमीठा कस्बे से 4-5 किमी बाहर 19फरवरी' 95 (दिन 12:15बजे)

5 नवम्बर 2021
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<p> आज सुबह दस बजकर दस मिनट पर होटल राहिल से रवाना हुआ। इसके पहले सुबह साढ़े छः बजे उठकर तैयार ह

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नवगाँव (एवरेस्ट लॉज) 19 फरवरी'95 (रात्रि 8:15)

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<p> खजुराहो से चलते वक्त मेरा पक्का इरादा था, छतरपुर में ही रात बितानी है; चाहे शाम के चार बजे

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ओरछा (श्रीराम धर्मशाला) 20 फरवरी' 95 (रात्रि 9:00 बजे)

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<p> कल एवरेस्ट लॉज में मुझे ऐसा अनुभव हुआ था, जैसे मैं पुराने जमाने का एक मुसाफिर हूँ और लम्बी

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ग्वालियर (वायु सेना स्थल, महाराजपुर) 22 फरवरी' 95

5 नवम्बर 2021
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<p>ओरछा के श्रीराम धर्मशला में सुबह नीन्द खुलते ही विचार आया, क्यों न नदी के किनारे जाकर सूर्योदय<br

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दतिया

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<p>साढ़े चार बजते-बजते मैं दतिया पहुँच गया था। यूँ तो वहाँ का महल शाम पाँच बजे बन्द हो जाता है, मगर व

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वापस ग्वालियर

5 नवम्बर 2021
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<p>सुबह काफी सुबह- साढ़े पाँच बजे ही- मेरी आँखें खुल गयीं। 'रोजे' से सम्बन्धित निर्देश तथा गाने कुछ द

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