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ग्वालियर (वायु सेना स्थल, महाराजपुर) 22 फरवरी' 95

5 नवम्बर 2021

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ओरछा के श्रीराम धर्मशला में सुबह नीन्द खुलते ही विचार आया, क्यों न नदी के किनारे जाकर सूर्योदय
का दो-एक चित्र खींचा जाय। वैसे, यहाँ का सूर्यास्त सुन्दर होता होगा। क्योंकि मन्दिर नदी के पश्चिमी किनारे पर हैं- सूर्य मन्दिरों के पीछे डूबता होगा। तब नदी, सूर्य तथा मन्दिर मिलकर सुन्दर दृश्य उपस्थित करते होंगे।

इन दिनों ओरछा में 'राधेकृष्ण यज्ञ' चल रहा था। इस यज्ञ के कारण श्रद्धालुओं की भीड़ अच्छी-खासी थी। रास्तों पर अक्सर ही "राधे-राधे" का जयघोष सुनाई पड़ जाता था।

जब मैं नदी के किनारे गया, तब सूर्य उगने में देर थी, मगर उजाला फैल चुका था। नदी के तरफ
जत्थे के जत्थे लोग चले जा रहे थे- सम्भवतः नित्यक्रिया से निबटने। जत्थों में बच्चे-बूढ़े-महिलायें सभी थीं।

तस्वीर खींचकर मैं धर्मशाला में लौटा। नहा-धोकर, नाश्ता करके फिर मैं घूमने निकला।

पहले महल की ओर गया। 'जहाँगीर का महल' अभी बन्द था- दस बजे खुलने वाला था। अभी साढ़े आठ ही बज रहे थे। मैं पीछे 'दाऊजी की कोठी' के खण्डहरों की ओर चला गया। खण्डहरों के प्रति बचपन से ही मेरे मन में आकर्षण रहा है। वहाँ कई तस्वीरें उतारीं मैंने। वहाँ से मन्दिर, नदी, राम राजा मन्दिर, चतुर्भुज
मन्दिर, जहाँगीर का महल- सब दीख रहे थे- सबका एक-एक फोटो लिया। खण्डहर बड़े हिस्से में फैला हुआ था।

खण्डहरों से निकलकर मैं यज्ञ-मण्डप होते हुए नदी के किनारे वाले मन्दिरों के तरफ गया। ये मन्दिर दूर से
अच्छे लग रहे थे- और जब नदी पर इनका प्रतिबिम्ब पड़ता था, तो और भी अच्छे लगते थे, मगर पास जाने पर पता चला, सबकी बनावट एक-जैसी है और पास से देखने लायक कुछ खास नहीं है। ऊपर से, अभी
ये मन्दिर तरह-तरह की जटा-जूटधारी साधू-सन्यासियों के निवास बने हुए थे। वातावरण में गाँजे की महक फैली हुई थी।

गाँजे की महक पर याद आया कि धर्मशाला का व्यवस्थापक भी रात अपने दोस्तों के साथ चिलम में दम लगा रहा था। गनीमत थी कि मैं अगरबत्ती ले आया था। सुबह-सुबह जब मैं धर्मशाला से बाहर आ रहा था, तब भी देखा- चिलम का दौर शुरु हो गया था।

वहाँ से लौटकर ओरछा के प्रसिद्ध राम राजा मन्दिर में आया। यहाँ राम की प्रतिमा स्थापित है- ओरछा की रानी द्वारा स्थापित। इसके पीछे एक किंवदन्ती है। रानी ने अपने महल के पास चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण करवाया था- रामजी की प्रतिमा को स्थापित करने के लिए। मन्दिर बहुत ही विशाल आकार का बन रहा था। रानी अयोध्या गयीं रामजी की प्रतिमा लाने के लिए- तब मन्दिर निर्माण का काम चल ही रहा था। इसी दौरान एक युद्ध के कारण मन्दिर निर्माण का काम रूक गया। उधर रानी रामजी को लेकर आ गयीं। रानी ने रामजी को अपने महल में ही प्रतिष्ठित कर दिया। जब मन्दिर निर्माण का काम पूरा हुआ, तब रामजी की प्रतिमा को स्थानान्तरित करने की कोशिश की गयी। मगर जैसी कि किंवदन्ती है- प्रतिमा टस से मस नहीं हुई। इस
प्रकार, कालान्तर में चतुर्भुज मन्दिर की वेदी सूनी रह गयी और रानी का महल राम राजा मन्दिर बन गया।

यह एक विशाल मन्दिर है- मन्दिर क्या, यह एक महल है। कल्पना कर के देखिये कि इसका आधार ही जमीन से कोई बीस फीट ऊँचा होगा! चार-पाँच मंजिलों तक बरामदे, झरोखे, इत्यादि बने हैं। इसके बाद शुरु होते हैं शिखर। शिखरों में भी सीढ़ियाँ बनी हैं। अन्तिम सीढ़ियों तक पहुँचते-पहुँचते मैं डरने लगा था और बिलकुल आखिरी सात-आठ सीढ़ियाँ मैं नहीं ही चढ़ा। वैसे, ये आखिरी सात-आठ सीढ़ियाँ पत्थर की 'स्लेटें' थीं, जिन्हें शिखर की दीवार पर चुन दिया गया था- इनकी मजबूती पर सन्देह होना स्वाभाविक था। वहाँ दो-एक फोटो खींचकर मैं नीचे उतर आया। मैं वाकई काफी ऊँचाई पर था।

समय दस से ऊपर हो रहा था। मुझे दतिया भी पहुँचना था। मैं धर्मशाला लौट आया। अभी हालाँकि जहाँगीर महल जाया जा सकता था, पर और देर करना उचित न जानकर मैं धर्मशाला में अगली यात्रा के लिए तैयार होने लगा। साढ़े ग्यारह बजते-बजते मैं सफर के लिए तैयार था।

पिछली यात्रा में, यानि कल मैंने ध्यान दिया था कि दो-एक बार मेरा कण्ठ सूखा था और हाथ काले पड़ रहे थे- यानि गर्मी थी। आज मौसम ठीक था।

झाँसी में बिना रुके मैं ग्वालियर रोड पर बढ़ गया। आगे एक फेरीवाले से कुछ अमरूद और एक पपीता लिया, जिन्हें कुछ और आगे जाकर मैंने खाया।  मेरा अगला पड़ाव दतिया था, जहाँ मुझे वहाँ का प्रसिद्ध महल देखना था और जो मेरा अगला तथा इस सफर का अन्तिम रात्रि-पड़ाव भी था।

(क्रमशः)

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रचनाएँ
ग्वालियर से खजुराहो: एक साइकिल यात्रा
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बात 1995 के फरवरी की है, जब मैंने ग्वालियर से खजुराहो तक की यात्रा साइकिल से की थी- अकेले। लौटते समय मैं ओरछा और दतिया भी गया था। कुल 8 दिनों में भ्रमण पूरा हुआ था और कुल-मिलाकर 564 किलोमीटर की यात्रा मैंने की थी। इसे एक तरह का सिरफिरापन, दुस्साहस या जुनून कहा जा सकता है, मगर मुझे लगता है कि युवावस्था में इस तरह का छोटा-मोटा ‘एडवेंचर’ करना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। खजुराहो के इतिहास का जिक्र करते समय दो-एक पाराग्राफ मैंने बाद में जोड़े हैं; बाकी सारी बातें लगभग वही हैं, जो मैंने यात्रा के दौरान अपनी डायरी में लिखी थीं। (सचित्र ई'बुक पोथी डॉट कॉम पर उपलब्ध है।)
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झाँसी (होटल अशोक) 15 फरवरी' 95 (शाम 07:45)

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<p>इस वक्त झाँसी के एक होटल 'अशोक' में बैठकर यह लिख रहा हूँ।</p> <p>आज सुबह करीब सात बजे ग्वालियर (

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छतरपुर (शहर से बाहर) 17 फरवरी' 95 (दिन 11:00 बजे)

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<p> छतरपुर शहर अभी कोई दस-बारह किलोमीटर दूर है। सड़क के किनारे एक छोटे-से जंगल में बैठकर यह लिख

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खजुराहो (होटल 'राहिल') 17 फरवरी' 95 (रात 08:30 बजे)

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<p> इस वक्त खजुराहो में मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के होटल राहिल के डोरमिटरी के एक गद्देदार बेड प

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खजुराहो 18 फरवरी' 95 (शाम 07:15 बजे)

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<p> यह समय जबकि जगमगाते बाजार में रहने का है, मैं होटल के बिस्तर पर लेटे-लेटे यह लिख रहा

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बमीठा कस्बे से 4-5 किमी बाहर 19फरवरी' 95 (दिन 12:15बजे)

5 नवम्बर 2021
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<p> आज सुबह दस बजकर दस मिनट पर होटल राहिल से रवाना हुआ। इसके पहले सुबह साढ़े छः बजे उठकर तैयार ह

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नवगाँव (एवरेस्ट लॉज) 19 फरवरी'95 (रात्रि 8:15)

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<p> खजुराहो से चलते वक्त मेरा पक्का इरादा था, छतरपुर में ही रात बितानी है; चाहे शाम के चार बजे

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ओरछा (श्रीराम धर्मशाला) 20 फरवरी' 95 (रात्रि 9:00 बजे)

5 नवम्बर 2021
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<p> कल एवरेस्ट लॉज में मुझे ऐसा अनुभव हुआ था, जैसे मैं पुराने जमाने का एक मुसाफिर हूँ और लम्बी

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ग्वालियर (वायु सेना स्थल, महाराजपुर) 22 फरवरी' 95

5 नवम्बर 2021
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<p>ओरछा के श्रीराम धर्मशला में सुबह नीन्द खुलते ही विचार आया, क्यों न नदी के किनारे जाकर सूर्योदय<br

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दतिया

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<p>साढ़े चार बजते-बजते मैं दतिया पहुँच गया था। यूँ तो वहाँ का महल शाम पाँच बजे बन्द हो जाता है, मगर व

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वापस ग्वालियर

5 नवम्बर 2021
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<p>सुबह काफी सुबह- साढ़े पाँच बजे ही- मेरी आँखें खुल गयीं। 'रोजे' से सम्बन्धित निर्देश तथा गाने कुछ द

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