आज सुबह दस बजकर दस मिनट पर होटल राहिल से रवाना हुआ। इसके पहले सुबह साढ़े छः बजे उठकर तैयार होकर मैं कैमरा लेकर निकल गया था। किसी मन्दिर के साथ सूर्योदय का फोटो मैं लेना चाहता था। सूर्यास्त का फोटो पश्चिमी समूह के मन्दिरों के साथ लिया जा सकता था, पर कल वराह व ब्रह्मा मन्दिरों से लौटते समय देर हो गयी थी। फिलहाल मैं अनुमान से बाय पास रोड की ओर चला। मेरा
अन्दाज सही निकला। उधर ही पूर्वी समूह के वराह और ब्रह्मा मन्दिरों के पीछे की पहाड़ियों के पीछे से सूर्य उदय हो रहा था। मैंने फोटो लिया- आखिरी स्नैप था। कुछ और आगे बढ़ा तो पता चला मैं मार खा गया। कोई सौ मीटर आगे जाकर फोटो लेना चाहिए था। इससे मन्दिरों का साईड व्यू आता, जिस पर सूर्य की रोशनी पड़ रही थी। मैंने बिलकुल रियर व्यू से फोटो लिया था, जिसमें मन्दिर काला दिखेगा और शिखर ही
बतायेंगे कि ये कोई मन्दिर हैं। खैर।
जैन मन्दिर वाले रास्ते से बाजार में आया और झील के किनारे बैठ गया। हल्की ठण्ड थी। वापसी की योजना बनाने लगा। चार रातें रास्ते में बितानी हैं- छतरपुर, मऊरानीपुर, ओरछा, दतिया या डबरा। पाँचवी शाम ग्वालियर पहुँचने की उम्मीद थी।
होटल में आठ बजे लौटा। नहा-धोकर तैयार हुआ। हल्का नाश्ता किया। सामान पैक किया और जब वापसी यात्रा के लिए पैडल मारा तब घड़ी में दस बजकर दस मिनट हो रहे थे। यह समय प्रसिद्ध है। घड़ियों के चित्रों या विज्ञापनों में आम तौर पर यही समय दर्शाया जाता है।
बाजार में उसी कैफेटेरिया (रिमझिम) में चाय पी। साइकिल में हवा तथा पहियों में तेल डलवाया और चल पड़ा।
सड़क उतनी सुन्दर नहीं थी, जितनी 17 की रात लग रही थी। अक्सर चीजें अन्धेरे या कम रोशनी या कृत्रिम
रोशनी में खूबसूरत लगती हैं, मगर दिन के उजाले में उनकी पोल खुल जाती है।
कल 'विदेशी' बनने में जो कसर बाकी रह गयी थी, आज वह भी पूरी कर दी। बिना बाँह वाली काली टी शर्ट और (वायु सेना का पुराने मॉडल वाला) काला चश्मा मैंने लगा लिया। बमीठा में पौने बारह बजे पहुँचा। मलाई-राबड़ी खाकर फिर चला। आज बमीठा भी दोपहर में वीरान और सूना लगा, जबकि 17 की शाम यह भी खूबसूरत कस्बा लग रहा था। यानि किसी भी चीज के सुन्दर लगने में बहुत सारे फैक्टर काम करते
हैं। एक भी फैक्टर घटा, तो सुन्दरता कम हो जाती है।
(क्रमशः)