खोल दूं यह आज का दिन
जिसे-
मेरी देहरी के पास कोई रख गया है,
एक हल्दी-रंगे
ताजे
दूर देशी पत्र-सा।
थरथराती रोशनी में,
हर संदेशे की तरह
यह एक भटका संदेश भी
अनपढा ही रह न जाए-
सोचता हूँ
खोल दूं।
इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र-को
जो द्वार पर गुमसुम पडा है,
खोल दूं।
पर, एक नन्हा-सा
किलकता प्रश्न आकर
हाथ मेरा थाम लेता है,
कौन जाने क्या लिखा हो?
(कौन जाने अंधेरे में- दूसरे का पत्र मेरे द्वारा कोई रख गया हो)
कहीं तो लिखा नहीं है
नाम मेरा,
पता मेरा,
आह! कैसे खोल दूं।
हाथ,
जिसने द्वार खोला,
क्षितिज खोले
दिशाएं खोलीं,
न जाने क्यों इस महकते
मूक, हल्दी-रंगे, ताजे,
किरण-मुद्रित संदेशे को
खोलने में कांपता है।
-डॉ. केदारनाथ सिंह