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जे.एन.यू. में हिंदी

24 फरवरी 2016

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जी, यही मेरा घर है

और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी

वह पहली कुल्हाड़ी

जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था


इस पत्थर से आज भी

एक पसीने की गंध आती है

जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की

गंध है--

जिससे खुराक मिलती है

मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को


इस घर से सटे हुए

बहुत-से घर हैं

जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर

और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह

कि हर घर अपने में बंद

अपने में खुला


पर बगल के घर में अगर पकता है भात

तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है

मेरे किचन में

मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक

साफ़ सुनाई पड़ती है

और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ

अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर

इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी

कि यहाँ किसी का नम्बर

किसी को याद नहीं !


विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है

और बिच्छू भी एक सवाल

मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी

जिसके कंधे पर अंगौछा था

और हाथ में एक गठरी

‘अंगौछा’- इस शब्द से

लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ

और वह भी जे. एन. यू. में !


वह परेशान-सा आदमी

शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था

और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद

वह हो गया था निराश

और लौट रहा था धीरे-धीरे


ज्ञान की इस नगरी में

उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा

जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्

कुछ देर मैंने उसका सामना किया

और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--

‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो

वह जा रहा है

कुछ पूछना चाहता था

कुछ जानना चाहता था वह

रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...


और यह तो बाद में मैंने जाना

उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद

कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था

असल में मैं चुप था

जैसे सब चुप थे

और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी

जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी ।

-डॉ. केदारनाथ सिंह 

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शाम बेच दी है

24 फरवरी 2016
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शाम बेच दी हैभाई, शाम बेच दी हैमैंने शाम बेच दी है!वो मिट्टी के दिन, वो धरौंदों की शाम,वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम,मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम,वो घर भर में गोरस की गंधों की शामवो दिनभर का पढना, वो भूलों की शाम,वो वन-वन के बांसों-बबूलों की शाम,झिडकियां पिता की, वो डांटों की शाम,वो बंसी,

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खोल दूं यह आज का दिन

24 फरवरी 2016
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खोल दूं यह आज का दिनजिसे-मेरी देहरी के पास कोई रख गया है,एक हल्दी-रंगेताजेदूर देशी पत्र-सा।थरथराती रोशनी में,हर संदेशे की तरहयह एक भटका संदेश भीअनपढा ही रह न जाए-सोचता हूँखोल दूं।इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र-कोजो द्वार पर गुमसुम पडा है,खोल दूं।पर, एक नन्हा-साकिलकता प्रश्न आकरहाथ मेरा थाम लेता है,क

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जे.एन.यू. में हिंदी

24 फरवरी 2016
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जी, यही मेरा घर हैऔर शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थीवह पहली कुल्हाड़ीजिसने पहले वृक्ष का शिकार किया थाइस पत्थर से आज भीएक पसीने की गंध आती हैजो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर कीगंध है--जिससे खुराक मिलती हैमेरे परिसर की सारी आधुनिकता कोइस घर से सटे हुएबहुत-से घर हैंजैसे एक पत्थर से सटे हुए बह

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नदी

24 फरवरी 2016
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अगर धीरे चलोवह तुम्हे छू लेगीदौड़ो तो छूट जाएगी नदीअगर ले लो साथवह चलती चली जाएगी कहीं भीयहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भीछोड़ दोतो वही अंधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकरवह चुपके से रच लेगीएक समूची दुनियाएक छोटे से घोंघे मेंसच्चाई यह हैकि तुम कहीं भी रहोतुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भीप्यार

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दिशा

24 फरवरी 2016
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हिमालय किधर है?मैंने उस बच्‍चे से पूछा जो स्‍कूल के बाहरपतंग उड़ा रहा थाउधर-उधर-उसने कहाँजिधर उसकी पतंग भागी जा रही थीमैं स्‍वीकार करूँमैंने पहली बार जानाहिमालय किधर है?-डॉ. केदारनाथ सिंह 

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