त्याग, संघर्षपूर्ण जीवन, नि: स्वार्थ सेवा और निष्काम भक्ति
रामायण और रामचरित मानस में भगवान श्रीराम की वनयात्रा में माता शबरी का प्रसंग सर्वाधिक भावपूर्ण है। भक्त और भगवान के मिलन की इस कथा को गाते सुनाते बड़े-बड़े पंडित और विद्वान भाव विभोर हो जाते हैं। माता शबरी का त्याग और संघर्षपूर्ण जीवन, नि: स्वार्थ सेवा, निष्काम भक्ति और गुरू तथा श्रीराम के प्रति समर्पण दूसरी जगह देखने में नहीं आता इसलिए माता शबरी आज भी जीवंत है।
माता शबरी की सेवा से मुग्ध मतंग मुनि जी जब प्राण त्यागने लगे तब दुखी माता शबरी उनके साथ जाने की जिद करने लगी।
उस समय मतंग मुनि जी ने कहा:- शबरी, मेरी भक्ति अधूरी रह गई; मुझे श्रीराम के दर्शन नहीं हो पायेंगे किन्तु तेरी भक्ति पूर्ण होगी।
श्रीराम तुम्हें दर्शन देंगे, वे तुमसे मिलने जरूर आयेंगे; तुम श्रद्धा और धीरज रखकर उनकी प्रतीक्षा करना।
मतंग मुनि जी के वचनों माता शबरी ने पूर्ण विश्वास किया और माता शबरी ने भक्ति और संयम के साथ प्रभु की प्रतीक्षा की।
प्रतीक्षा के अंतिम दिनों में माता शबरी को ऐसा लगता था कि श्रीराम अब आये कि तब आये।
वह प्रतिदिन मार्ग की सफाई करती, ताजे फल, फूल तोड़ लाती और प्रभु के मार्ग को एकटक निहारती रहती, भगवान की प्रतिक्षा मे शबरी स्वयं प्रतिक्षा का प्रतिमान हो जाती है।
भगवान श्रीराम जब अनुज लक्ष्मण जी के साथ माता शबरी के आश्रम में पधारे तो माता शबरी धन्य हो गई। माता शबरी सुधबुध खोकर नाचने लगी, उन्हें दुनिया तो क्या अपने वस्त्रों का भी ध्यान न रहा।शायद यही श्री राम की सबसे बड़ी पूजा थी, क्योंकि आदर सत्कार तो वह भूल गई थी।
लक्ष्मण जी ने जब याद दिलाया तब माता शबरी एकदम भाव-विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गद्गद हो गयी, वह दौडकर अपने प्रभु श्री राम चरण कमलों से लिपट गयी।
इस भावनात्मक दृश्य को गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रकार रेखांकित करते हुए कहते है:-
सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई॥
भावार्थ:- कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी जी लिपट पड़ीं॥
माता शबरी ने मुग्धभाव से उनको बिठाया, चरण पखारे, पूजा की और फल, मेवे जो उसने संचित कर रखे थे, लाकर खिलाना शुरू किया। सभी फल पिछले दिनों के थे, केवल बेर के फल ताजे थे इसलिए उसने प्रभु को बेर खिलाना शुरू किया और भगवान बड़े प्रेम से बड़ाई करते हुए बेर खाने लगे।
श्रीराम की बेर खाती हुई मुद्रा देखकर माता शबरी पुन: मुग्ध हो गई, उसी मुग्धावस्था में छाँट - छाँटकर बेर प्रभु को दिए। श्री राम पुन: बार बार बेर मांगने लगे तो वह अति प्रसन्नता में बेर चख-चखकर देने लगी और भगवान वाह-वाह करते हुए बेर खाने लगे।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे।
पुनि सुंदर आसन बैठारे॥
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
भावार्थ:- वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता, बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं।फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया॥ माता शबरी ने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए, प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥
दोनों भाईयों को माता शबरी के जूठे बेर खाते देखकर देवगण आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे और दुन्दुभी बजाने लगे। भक्त और भगवान के इस भावपूर्ण मिलन को देखने आस पास के साधु-संत और महात्मा भी इकठ्ठे हो गये। अन्नदाता को शबरी से बार-बार मांग कर बेर खाने की यह लीला देखकर सब धन्य हो गये; सबके सब शबरी को धन्य-धन्य कहकर जय बोलाने लगे।
भगवान श्रीराम ने बाद में माता शबरी को धीरज से बैठाकर उनका कुशल-क्षेम पूछा और अपने विलंब से आने के लिए खेद भी व्यक्त किया। उन्होंने माता शबरी के त्याग, तप, संयम, श्रद्धा और भक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की। श्रीराम ने माता शबरी को नवधा भक्ति (नौ प्रकार की भक्ति) का उपदेश दिया जो उन्होंने बड़े-बड़े ऋषियों को भी नहीं दिया था।
माता शबरी दण्डकवन की कुशल जानकार थी, इतना ही नहीं शबरी दिव्य द्रष्टा भी थी इसलिए श्रीराम ने उनसे माता सीताजी का पता तथा आगे जाने का मार्ग भी पूछा। माता शबरी ने भी उन्हें पंपासर जाकर वानर राज सुग्रीव से मित्रता करके सहयोग से लंका विजय की सलाह दी।
भगवान श्रीराम ने माता शबरी से वर मांगने कहा तो शबरी जी ने जनम-जनम भगवान की भक्ति ही माँगी। भगवान जब जाने लगे तो माता शबरी ने भाव विह्रल होकर उन्हें बिदाई दी।
प्रभु चले गये तो शबरी ने स्वयं योग अग्रि पैदा कर अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया और माता शबरी अमर हो गई।
माता शबरी और श्रीराम का मिलन दक्षिण कौशल अब छत्तीसगढ़ के धार्मिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना है, इसलिए आज भी लोग इस कथा को पूरी श्रद्धा से गाते और सुनते हैं।
माता शबरी की कथा वर्णन रामायण और रामचरित मानस में ही नहीं अनेक प्राचीन ग्रंथों में है। महर्षि वेद व्यास जी ने शबरी का वर्णन पद्म पुराण में किया है। धर्म के उच्च मानदंडों पर माता शबरी का जीवन खरा उतरता है, इसका प्रमाण यह है कि स्वयं श्रीराम उससे मिलने आये और उसे इतना प्रेम और सम्मान दिया।
माता शबरी की भक्ती की जितना प्रशंसा की जाय कम है; माता शबरी इस धरती की प्रथम आदिवासी नारी है जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया।
तुलसीदास जी लिखते है:-
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
भावार्थ:- सब कथा कहकर भगवान् के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता।
तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं।
हे मनुष्यों, इनका त्याग कर दो और विश्वास करके (माता शबरी के जैसे) श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।