मौन की महिमा अपरंपार है, इसके महत्व को शब्दों के जरिए अभिव्यक्त करना संभव नहीं है।
प्रकृति में सदैव मौन का साम्राज्य रहता है। पुष्प वाटिका से हमें कोई पुकारता नहीं, पर हम अनायास ही उस ओर खिंचते चले जाते हैं। बड़े से बड़े वृक्षों से लदे सघन वन भी मौन रहकर ही अपनी सुषमा से सारी वसुधा को सुशोभित करते हैं। धरती अपनी धुरी पर शान्त चित्त बैठी सबका भार सम्भाले हुए है। पहाड़ों की ध्वनि किसी ने सुनी नहीं, पर उन्हें अपनी महानता का परिचय देने के लिए उद्घोष नहीं करना पड़ा। पानी जहाँ गहरा होता है, वहाँ अविचल शान्ति संव्याप्त होती है।
मौन की क्षमता वस्तुतः असीम है। महर्षि रमण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे मूक भाषण देते थे। आश्रम पर आदमी तो क्या पशु पक्षी भी आकर सदा उनके चारों ओर मंडराते रहते थे। हिरन और शेर एक साथ उनके सत्संग का लाभ लेकर चुपचाप चले जाते। यह मौन साधना की चरम परिणति है। एकाकी, मौन बने रहकर बड़ी से बड़ी सृजनात्मक कल्पनाओं को मूर्त रूप दिया जा सकता है तथा अपार आनन्द की अनुभूति की जा सकती है। वाणी में तेज एवं ओज, शान्ति बनाये रखने पर ही आता है और यह सम्भव है मात्र मौन साधना से। संचित कमाई को अच्छे प्रयोजन में कभी-कभी खर्च करने पर काम तो सफल होता ही है आत्मिक शान्ति भी प्राप्त होती है। ठीक वैसे ही मौन रहकर वाणी को नियन्त्रित किया जा सकता है। विद्वानों ने शान्ति को ‘जीवन का हीरा’ जिसे कभी नष्ट नहीं होने देना चाहिए तथा वाणी से अभिव्यक्त एक-एक शब्द को मोती की संज्ञा दी है। हमें उसी रूप में इसे खर्च करना चाहिए। वाणी मौन के अभ्यास से ही प्रखर होती तथा प्रभावोत्पादक बनती है।
व्यावहारिक जीवन में भी मौन विशेष महत्वपूर्ण है। जीवन मार्ग में आयी बाधाओं को मौन रहकर ही चिन्तन कर टालना सम्भव हो पाता है। योगी राज भर्तृहरि ने मौन को ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों का आभूषण बताया है।
कबीर कहते हैं-वाद विवादे विषघना, बोले बहुत उपाध।
आध्यात्मिक साधनाओं में मौन का अपना विशेष महत्व है क्योंकि उसके सहारे अंतर्मुखी बनने का अवसर मिलता है। निरर्थक चर्चा में जो शक्ति का अपव्यय होता है उससे बचने की स्थिति सहज ही बन जाती है।