तुलसी दास कहते हैं- 'भाव-अभाव, अनख-आलसहुं, नाम जपत मंगल दिषी होहुं।' भाव से, अभाव से, बेमन से या आलस से, और तो और, यदि भूल से भी भगवान के नाम का स्मरण कर लो तो दसों दिशाओं में मंगल होता है। भगवान स्वयं कहते हैं, भाव का भूखा हूं मैं, और भाव ही इक सार है, भाव बिन सर्वस्व भी दें तो मुझे स्वीकार नहीं! ऐसे परम कृपालु भगवान की भक्ति को प्राप्त करने के लिए अपने हृदय के कोमल भावों के पुष्प अर्पित करने होंगे। शबरी ने झूठे बेर खिलाए सच्चे भाव के कारण। और दुर्योधन की मेवा त्यागकर विदुर के यहां केले के छिलके खाए। विदुर भाव के सागर में इतना डूब गए कि अपने भगवान को अपने ही हाथों से खिलाने का सुख पाने हेतु केला फेंकते रहे और छिलका खिलाते रहे। जो विदुर थमाते हैं भगवान को, उसे वे प्रेम से खा रहे हैं। जब होश आता है तो पछतावा करता हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं, 'कोई बात नहीं, मैंने तो बडे़ ही आनंद से खाया और तृप्त हुआ तुम्हारी भावना से!
भगवान भाव के भूखे हैं - यह कभी नहीं भूलना चाहिए। उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धा, आस्था और प्रेम के पुष्प अर्पित करना चाहिए। दिखावे, ढोंग व आडंबर से बचना चाहिए, क्योंकि भगवान को धन नहीं चाहिए। वे तो खुद ही लक्ष्मी पति हैं। उन्हें अन्न नहीं चाहिए, क्योंकि उसे तो वही उपजाते हैं। उन्हें आपसे वस्त्र नहीं चाहिए, क्योंकि आपके पास जो है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ है। ईश्वर न काठ में रहता है, न पत्थर में, न मिट्टी की मूर्ति में, वह तो भावों में निवास करता है।.
पागल प्रेमी की भांति अपने प्रिय के प्रति लालसा रखने की तरह भक्त ईश्वर के प्रति लालसा रखता है | वह हर समय ईश्वर के प्रति सोंचता है और यह स्मरण जारी रहता है | ईश्वर के प्रति लालसा में कोई अंतराल नहीं होता है | सोने में जाग्रत अवस्था में, कार्य में, घर में, भोजन के दौरान, टहलने के दौरान, भक्त ईश्वर के प्रति सोंचता है | यह एक जूनून होता है और यह जूनून ईश्वर को भक्त से बांधे रखता है |
जब भक्त को अपने प्रिय ईश्वर से सहायता की आवश्यकता होती है, सर्वोच्च शक्ति भक्त की तत्काल सहायता के लिए दौड़ पड़ती है |