फेसबुक या कम्प्यूटर पर कीबोर्ड की सहायता से लिखना अलग बात है औरअसल जिंदगी में कागज पर कलम चलना अलग । आज तकनीकी तौर पे हम जितना दक्ष होते जा रहे उतना ही पीछे हम व्यवहारिक तौर पे होते जा रहे । आज बरसों बाद जब ख़त लिखने को कागज़ और कलम ले कर बैठा तब एहसास हुआ कि असल जिंदगी में मैंने आख़री ख़त लखनऊ से लिखा था । ज़मानों पहले । तब पच्चीस पैसे का पोस्टकार्ड मिलता था और उसी पर अपनी उबड़ खाबड़ हैंडराइटिंग मन का हाल लिख दिया करता था । शुरुआत होती थी 'आदरणीय माँ एवम् पिता जी, चरण स्पर्श' ..... ' लखनऊ छूटने के बाद फिर सिर्फ वही चिट्ठियाँ लिखीं जिनके बारे में परीक्षा में पूछा गया । असल जिंदगी में तो नई तकनीक ने नए तरीके ईजाद कर दिए थे । आज ईमेल और चैट के समय जब आदरणीय जैसे शब्द कहीं खो गए हैं तब किसी को इसका मतलब पता न होना वाजिब है । सच में बड़ी मुश्किल हो रही है फिर से नई शुरुआत करने में । एक बार तो मन में आया की कोरा कागज ही भेज देता हूँ । दस्तख़त करके । "तुम्हारा अभिजीत" फिर ख्याल आया कि ये तो किसी के इंतजार की तौहीन होगी । चलो एक बार फिर से कोशिश करता हूँ । नए सिरे से लिखने की । आप भी लिखिए किसी को , महीने में एक बार ही ,क्योकि जरूरी है ख़तों का मौसम और माहौल जिन्दा रहे । #अभिजीत
लिखने को बहुत कुछ है और बताने को सैकड़ों किस्से , कमी है तो बस एक वक्त की ... जानता हूँ जितना मेरे पास है उससे कही कम तुम्हारे पास पर ये बाते सिर्फ मेरी तो नहीं इसमें काफी कुछ तुम्हारा भी है ,तो अब जब हम साथ बैठ नहीं पाते, चाय पर गप्पे नहीं लड़ा सकते तो क्या उन अनगिनत शामों के हवाले से मैं इतनी सी गुजारिश नहीं कर सकता की तुम अपनी सहूलियत से अपने वक्त पर आओ और फिर से सुनने सुनाने का रूठने मनाने का वो सिलसिला चालू करो जो बंद है महज रोटी के चक्कर में ...