तकरीबन पंद्रह – सोलह साल पहले ऐसे ही किसी फ़रवरी के महीने में पहली
बार मौसम की विविधता को समझा और महसूस किया था । उस समय शहर छोटा था या हम कहना
मुश्किल है लेकिन अखबारों और हिंदी फ़िल्मो की बदौलत हम जान चुके थे कि फ़रवरी की
चौदहवी तारीख को आसमान में चौदवी का चाँद निकले या ना निकले ज़मी पर चाँदनी पुरे
शबाब पर होती है । हमउम्रों के साथ-साथ हमारे मां-बाप भी वैलेंटाइन डे के बारे में
जान चुके थे । उन दिनों बाबा राम देव नहीं थे और अपने शहर में मैंने किसी और बाबा
का नाम नहीं सुना था । क्रिसमस के सांता क्लॉज के बाद हम किसी और बाबा को जानते थे
तो बस वो वेलेंटाईन बाबा थे । प्यार के मसीहा । उन दिनों वेलेन्टाइन वीक नहीं होते
थे और सभ्यता-संस्कृति के जिस केंद्र में ये वीक थे मेरा शहर और मैं उससे कोसो दूर
थे, इसलिए रोज-डे, प्रपोज-डे , आदि के हमें कोई ज्ञान नहीं था । इसका एक और कारण
यह भी था कि ऐसा विशेष ज्ञान हमेशा से आपकी जेब के वजन के समानुपाती होता है और
हममे से अधिकतर कि जेब शुरू होते ही खत्म हो जाती थी, और ऐसी हल्की जेब वाली
स्थिति में रेनोल्ड्स या मिसुबिसी कि कलम लगा हम दार्शनिक हो जाते थे लेकिन उस
स्थिति में भी मन यही कहता कि प्रेम से बड़ा कोई दर्शन नहीं । दरअसल ये उम्र का दोष नहीं था , सारा दोष बसंती
हवाओं का था । एक तो बसंत का मौसम , चारों और यूँ ही प्रेम फैला रहता है उसपर
फरवरी का महिना , अब बेचारा दिल क्या कर सकता है ।
उन दिनों शहर में आर्चिज की एक दूकान खुली थी ।
पहली बार जाना था न्यू ईयर के अलावा भी कार्ड लेने और देने का काम होता है । बड़ी
मुश्किल से तुम्हारे लिए एक कार्ड पसंद आया था । उस कार्ड को मैने नहीं उसने मुझे
पसंद किया था , मेरी जेब को देखते हुए । बसंत की हवाओं ने अपना असर करना शुरू कर
दिया था लेकिन इसके साइड इफ़ेक्ट के बारे में सोच कर दिल बैठा जा रहा था . प्यार
में मार खाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन कुटाई के बाद होने वाला दर्द हर बसंत में उभर
आता है , ऐसा किसी से सुन रखा था , साथ ही यह ज्ञान भी मिला कि “बेटा कोई भी ऐसा
नहीं जिसका दिल इस उम्र में न धड़का हो,” । ये बात तो सच थी , दिल तो धड़क रहा था ,
यह सोच कर कि आर्चिज का ये कार्ड सही दिन और तारीख को उसके हकदार तक कैसे पहुचेगा ।
समस्या गंभीर थी और मेरी तरह हर कोई ऐसी ही किसी समस्या से ग्रसित था । मदद करने
को कोई न था क्योकि डर के आगे जीत है का स्लोगन नहीं निकला था, पर जिसका कोई नहीं
उसका तो खुदा है यारों, ऐसा मैं नहीं बोल रहा , अमित जी में बोला है और जब इतने
लम्बे और बड़े आदमी बोल रहे तो गलत होने का सवाल ही नहीं होता । उस साल बसंत पंचमी
१४ फरवरी के आस-पास पड़ी थी, बिलकुल इस साल की तरह , सबने तय किया कि अपने अपने कार्ड
उनके असली मालिकों की किताबों में किसी छुपा देना है , क्योकि यह तय था कि भक्ति
हो या न हो बोर्ड एग्जाम्स में फेल करने के डर से हर कोई अपनी एक किताब तो जरुर
मां सरस्वती के चरणों में रखेगा , जिसमे वो कमजोर हो ताकि कृपा दृष्टि बन जाये और
बेड़ा पार हो जाये । तय हुआ कि इसी योजना को अमलीजामा पहनाना है , पर ऐन मौके पर
मैने तुम्हारी किताब में सिर्फ लिफाफा रख दिया था , इतना लिख कर कि अगर कार्ड कि
जरुरत महसूस हो तो बता देना . पता नहीं ये बेवकूफी थी या कुछ और , बेवकूफी ही होगी
तभी तो सब आज भी हसते है , तुम्हें कार्ड कि कभी जरुरत नहीं पड़ी , अलबत्ता एक साल
बाद जाते हुए तुमने एक कार्ड ये लिख कर दिया था कि कभी इसका लिफाफा मत मांगना ,
लिफाफे में डाल देने से प्यार बंद हो जाता है , बंध जाता है । पता नहीं तुमने मेरा
लिफाफा रखा है या नहीं पर मेरे पास दोनों कार्ड आज भी रखे हुए हैं , बिना लिफाफे
के ।
अभिजीत