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21वीं सदी का पहला वेलेंटाइन डे

31 मई 2016

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तकरीबन पंद्रह – सोलह  साल पहले ऐसे ही किसी फ़रवरी के महीने में पहली बार मौसम की विविधता को समझा और महसूस किया था । उस समय शहर छोटा था या हम कहना मुश्किल है लेकिन अखबारों और हिंदी फ़िल्मो की बदौलत हम जान चुके थे कि फ़रवरी की चौदहवी तारीख को आसमान में चौदवी का चाँद निकले या ना निकले ज़मी पर चाँदनी पुरे शबाब पर होती है । हमउम्रों के साथ-साथ हमारे मां-बाप भी वैलेंटाइन डे के बारे में जान चुके थे । उन दिनों बाबा राम देव नहीं थे और अपने शहर में मैंने किसी और बाबा का नाम नहीं सुना था । क्रिसमस के सांता क्लॉज के बाद हम किसी और बाबा को जानते थे तो बस वो वेलेंटाईन बाबा थे । प्यार के मसीहा । उन दिनों वेलेन्टाइन वीक नहीं होते थे और सभ्यता-संस्कृति के जिस केंद्र में ये वीक थे मेरा शहर और मैं उससे कोसो दूर थे, इसलिए रोज-डे, प्रपोज-डे , आदि के हमें कोई ज्ञान नहीं था । इसका एक और कारण यह भी था कि ऐसा विशेष ज्ञान हमेशा से आपकी जेब के वजन के समानुपाती होता है और हममे से अधिकतर कि जेब शुरू होते ही खत्म हो जाती थी, और ऐसी हल्की जेब वाली स्थिति में रेनोल्ड्स या मिसुबिसी कि कलम लगा हम दार्शनिक हो जाते थे लेकिन उस स्थिति में भी मन यही कहता कि प्रेम से बड़ा कोई दर्शन नहीं ।  दरअसल ये उम्र का दोष नहीं था , सारा दोष बसंती हवाओं का था । एक तो बसंत का मौसम , चारों और यूँ ही प्रेम फैला रहता है उसपर फरवरी का महिना , अब बेचारा दिल क्या कर सकता है ।

उन दिनों शहर में आर्चिज की एक दूकान खुली थी । पहली बार जाना था न्यू ईयर के अलावा भी कार्ड लेने और देने का काम होता है । बड़ी मुश्किल से तुम्हारे लिए एक कार्ड पसंद आया था । उस कार्ड को मैने नहीं उसने मुझे पसंद किया था , मेरी जेब को देखते हुए । बसंत की हवाओं ने अपना असर करना शुरू कर दिया था लेकिन इसके साइड इफ़ेक्ट के बारे में सोच कर दिल बैठा जा रहा था . प्यार में मार खाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन कुटाई के बाद होने वाला दर्द हर बसंत में उभर आता है , ऐसा किसी से सुन रखा था , साथ ही यह ज्ञान भी मिला कि “बेटा कोई भी ऐसा नहीं जिसका दिल इस उम्र में न धड़का हो,” । ये बात तो सच थी , दिल तो धड़क रहा था , यह सोच कर कि आर्चिज का ये कार्ड सही दिन और तारीख को उसके हकदार तक कैसे पहुचेगा । समस्या गंभीर थी और मेरी तरह हर कोई ऐसी ही किसी समस्या से ग्रसित था । मदद करने को कोई न था क्योकि डर के आगे जीत है का स्लोगन नहीं निकला था, पर जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों, ऐसा मैं नहीं बोल रहा , अमित जी में बोला है और जब इतने लम्बे और बड़े आदमी बोल रहे तो गलत होने का सवाल ही नहीं होता । उस साल बसंत पंचमी १४ फरवरी के आस-पास पड़ी थी, बिलकुल इस साल की तरह , सबने तय किया कि अपने अपने कार्ड उनके असली मालिकों की किताबों में किसी छुपा देना है , क्योकि यह तय था कि भक्ति हो या न हो बोर्ड एग्जाम्स में फेल करने के डर से हर कोई अपनी एक किताब तो जरुर मां सरस्वती के चरणों में रखेगा , जिसमे वो कमजोर हो ताकि कृपा दृष्टि बन जाये और बेड़ा पार हो जाये । तय हुआ कि इसी योजना को अमलीजामा पहनाना है , पर ऐन मौके पर मैने तुम्हारी किताब में सिर्फ लिफाफा रख दिया था , इतना लिख कर कि अगर कार्ड कि जरुरत महसूस हो तो बता देना . पता नहीं ये बेवकूफी थी या कुछ और , बेवकूफी ही होगी तभी तो सब आज भी हसते है , तुम्हें कार्ड कि कभी जरुरत नहीं पड़ी , अलबत्ता एक साल बाद जाते हुए तुमने एक कार्ड ये लिख कर दिया था कि कभी इसका लिफाफा मत मांगना , लिफाफे में डाल देने से प्यार बंद हो जाता है , बंध जाता है । पता नहीं तुमने मेरा लिफाफा रखा है या नहीं पर मेरे पास दोनों कार्ड आज भी रखे हुए हैं , बिना लिफाफे के । 


अभिजीत 

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रचनाएँ
kuchtumhareliye
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लिखने को बहुत कुछ है और बताने को सैकड़ों किस्से , कमी है तो बस एक वक्त की ... जानता हूँ जितना मेरे पास है उससे कही कम तुम्हारे पास पर ये बाते सिर्फ मेरी तो नहीं इसमें काफी कुछ तुम्हारा भी है ,तो अब जब हम साथ बैठ नहीं पाते, चाय पर गप्पे नहीं लड़ा सकते तो क्या उन अनगिनत शामों के हवाले से मैं इतनी सी गुजारिश नहीं कर सकता की तुम अपनी सहूलियत से अपने वक्त पर आओ और फिर से सुनने सुनाने का रूठने मनाने का वो सिलसिला चालू करो जो बंद है महज रोटी के चक्कर में ...
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कोई मेरी किताब क्यों पढ़े ?

27 मई 2016
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कल रात जब मैंने एक फेसबुक मित्र से "कुछ तुम्हारेलिए" के बारे में पूछा तो जवाब एक सवाल के रूप में आया....'मैं/कोईतुम्हारी किताब क्यों पढ़े ?इस सवाल ने उन दिनों कीयाद दिला दी जब प्रतियोगी परीक्षाओं के इंटरव्यू की तैयारी कर रहा था और इंटरव्यूदे भी रहा था । इसी सवाल से मिलता जुलता एक सवाल वहां भी पूछा जा

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क्योंकि लिखना जरुरी है

29 मई 2016
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फेसबुक या कम्प्यूटर पर कीबोर्ड की सहायता से लिखना अलग बात है औरअसल जिंदगी में कागज पर कलम चलना अलग । आज तकनीकी तौर पे हम जितना दक्ष होते जा रहे उतना ही पीछे हम व्यवहारिक तौर पे होते जा रहे । आज बरसों बाद जब ख़त लिखने को कागज़ और कलम ले कर बैठा तब एहसास हुआ कि असल जिंदगी में मैंने आख़री ख़त लखनऊ से लिखा

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‪#‎जवाबी_चिट्ठी‬

31 मई 2016
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इधर कुछ नहीं लिख पाया हूँ । ऐसा नहीं है कि मेरे शब्दों खत्म होगए है, बहुत कुछ कहना चाहता हूँ , अपनी मुलाक़ात के बारे में लिखनाचाहता हूँ, वो इंतज़ार , वो बेकरारी , तुम्हारी सलाह सब कुछ उतार देना चाहता हूँ कागज पे; पर समझ नहीं पारहा शुरुआत कहाँ से करूँ और कहाँ पर अधूरा छोड़ दूँ । हाँ , मैं कुछ अधूरालिखना

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21वीं सदी का पहला वेलेंटाइन डे

31 मई 2016
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तकरीबन पंद्रह – सोलह  साल पहले ऐसे ही किसी फ़रवरी के महीने में पहलीबार मौसम की विविधता को समझा और महसूस किया था । उस समय शहर छोटा था या हम कहनामुश्किल है लेकिन अखबारों और हिंदी फ़िल्मो की बदौलत हम जान चुके थे कि फ़रवरी कीचौदहवी तारीख को आसमान में चौदवी का चाँद निकले या ना निकले ज़मी पर चाँदनी पुरेशबाब प

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एक चिट्ठी तुम्हारे नाम

7 जुलाई 2016
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माय डियर मोटी (मेरे जान की दुश्मन)हफ़्तों बाद आज सोचता हूँ तुम्हें ख़त भेज ही दूँ पर उसके लिए जरूरी है पहले उसे लिख डालूँ । जानता हूँ नाराज़ हो । होना भी चाहिए पर अब अगर हर ख़त का जवाब ख़त मिलते ही लिख दूँ तो फिर वो बात नहीं होगी जो अभी है । हमारे लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप में जरूरी है कि तुम लगातार लिखती

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दोस्त तुम्हारे लिए

13 जुलाई 2016
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आज फ्रेंडशिप डे नहीं पर ना जाने क्यों तुम्हे याद करने का बड़ा मन हो रहा । शायद मैं एक बुरा दोस्त हूँ या फिर स्वार्थी या दोनों जो तुम्हारी खबर नहीं लेता । पर यार तुम किस मिट्टी के बने हो जो मेरी आवाज पर दौड़ पड़ते हो । मुझसे जुड़ा हर दिन , समय और जगह तुम्हे आज भी बखूबी याद है और मैं फेसबुक के भरोसे रहता

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कुछ तुम्हारे लिए : प्रेम रंग में डूबी हुई कविताएँ । जयेन्द्र कुमार वर्मा की समीक्षा

26 जुलाई 2016
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प्रेम जीवन का आधार है। प्रेम के अभाव में जीवन की कल्पना ही व्यर्थ है। प्रेम ही व्यक्ति में जीवन के प्रति मोह उत्पन्न करता है। प्रेम ही व्यक्ति में सपने जगाता है। रंग-विरंगे सपने। और उन सपनों में डूबकर मन अनायास ही गाने लगता है, गुनगुनाने लगता है, मचलने लगता है, चहचहाने लगता है, फुदकने लगता है। और यह

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छह महीन में टूट गई सात जनमों की डोर

28 अगस्त 2016
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इलाहाबाद से सटे कौशाम्बी जिले के पूरामुफ्ती के मनौरी की सोनी और इलाहाबाद के रोहन के घर में उस वक्त काफी खुशियां थीं। खुशी लाजिमी भी है। क्योंकि दोनों जल्द ही एक-दूसरे की जिंदगी का अहम हिस्सा बनने वाले थे। यानि की दोनों की शादी तय हो चुकी थी। आखिकार होते-करते वो रात भी आ ग

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