1947 से लेकर सत्तर के दशक के मध्य तक राष्ट्रीय राजनीति और प्रदेशों की राजनीति में कांग्रेस का दबदबा रहा। लेकिन उसी दौर में कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ पार्टी के अंदर और बाहर विरोध के सुर भी सुनने को मिलते थे। खासतौर से इंदिरा गांधी के खिलाफ समाजवादी नेताओं ने मोर्चा खोल रखा था। समाजवादी नेताओं ने भारतीय जनमानस को इस कदर झकझोरा कि इंदिरा गांधी उन लोगों को अपने लिए खतरा महसूस करने लगीं, नतीजा ये निकला कि देश को आपातकाल का दौर देखना पड़ा। लेकिन आपातकाल का एक दूसरा पक्ष ये भी रहा कि देश के राजनैतिक धरातल पर नौजवान समाजवादी नेताओं ने दस्तक दी। उस आंदोलन के ही उपज थे राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव। लालू प्रसाद का ठोस गवंई भाषण के अंदाज ने समाजिक व्यवस्था में पनप रहे सामंतवाद के विरूद्ध दबे कुचले की आवाज को मुखर बना दिया। बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेतृत्व करते हुये लालू को दूसरा मौका तब मिला जब भागलपुर दंगा भड़क गया। लालू ने दंगे में खुले तौर पर अल्पसंख्यकों को अपनाया और तत्कालीन बाह्राण वाद को आड़े हाथों लिया। बिहार में जातिवाद रूपी बीज तो पहले ही बोया जा चुका था, अब इस फसल को अपना बनाना था। लालू ने समय परिवर्तन को भांपकर सामंत बाद के खिलाफ 1978 में गठित मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने की मांग सार्वजनिक रूप से कर डाली। इसी बीच केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। ठीक उसी समय लालू प्रसाद यादव भी बिहार के मुख्यमंत्री के पद पर पहुॅंच गये। मंडल आयोग की सिफारिश लालू हुई। केन्द्र की सरकार गिर गयी। लेकिन लालू ने अपने इस स्टैंड को बनाये रखा। वर्ष 1997 में लालू चारा घोटाले में जेल जाने लगे तो उन्होनें अपनी पांचवी पास पत्नी को बिहार का सीएम बना दिया। तकरीबन 15 साल तक बिहार की सत्ता में बने लालू ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सामंती विचार धारा का विरोध करना नहीं छोड़ा। भ्रष्टाचार के दलदल में पुरे परिवार के साथ स्वयं फंस चुके लालू ने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी राजनीति में प्रवेश करा कर उसे विधायक एवं सांसद बना दिया। सीबीआई की स्पेशल कोर्ट, ईडी एवं अन्य जांच एजेंसियां आज उनकी संपति की जांच कर उसे जब्त करने में जुटी है। रांची की एक अदालत ने उन्हें दोषी करार दे दिया है। वे इन दिनों जेल में है। लेकिन राजनीतिक महारथ हासिल कर चुके लालू ने जेल जाने पर एक बार फिर से जातिगत राजनीतिक एजेंडा को भुनाने का सफल प्रयास किया। वे अपने वोटरों को यह बताने से परहेज नहीं कर सके कि वे एक पिछड़ा का बेटा है, इसलिए उन्हें जेल भेजा गया है। जबकि एक ही आरोप में बाह्रांण का बेटा दोष मुक्त हो गया है। अस्सी के दशक में सामंत वाद का विरोध कर सत्ता में आये लालू ने चालीस वर्ष बाद भी इसे भुनाने का प्रयास किया और इसे अपने दल के नेताओं की बदौलत प्रचारित करवाना आरम्भ कर दिया। बिहार में एक बार फिर अगड़ा बनाम पिछड़ा की धधकती आग की तिली गिरा दी गयी है़.....! अब देखना है कि यह सुलगती है या...बिखरती....!
संजीव कुमार सिंह
लेखक आईना समस्तीपुर मासिक पत्रिका एवं संजीवनी बिहार समाचार पत्र के
संपादकीय प्रभारी है आप इनसे सम्पर्क ९९५५६४४६३१ पर कर सकते है।