लिखते हैं दर्द सर फिरे आशिक का..
जैसे किसी साली ने जूता चुरा लिया हो जीजे का..
कैसे बताए उस बेचारे का दर्द..
काश कोई बनता उसका हम दर्द..
हमेशा रहता था मुंह लटका कर..
मानो गुस्सा रहता था हमेशा नाक पर..
लगी रहती थी जोरों कि..
मगर बहाने बनाता औरों कि..
अंदर ही अंदर करता डोस्को भांगडाई..
दिखता था जैसे ले रहा हैं अंगडाई..
कब जा कर आ जाता..
किसी को पता नहीं चलता..
भूख लगी रहती थी..
टेस्टी खानों की प्लेट सजी थी...
मुंह से पानी रहा था टपक..
जैसे खाना को लेगा लपक..
जैसे दिखा रहा था नहीं हैं भूख...
कितने हैं जिंदगी मे दुख..
सभी गये थे बाहर लगा था मेला..
इधर भूख लगी थी इतनी सारा खाना खा गया अकेला..
फिर से चेहरे पर मायुसी छा गई..
जैसे किसी बहु की सास आ गई..
लिखते हैं दर्द सर फिरे आशिक का...