"साध्वी मां,,,, एक लावारिस पार्थिव देह अपने अंतिम संस्कार की बाट जोह रही है......" संयासिनी के वेश में एक बालिका ने आकर हाथ जोड़कर, सूचित किया था।
आश्रम के एक कक्ष में स्वस्थ काया की , गौर वर्ण, लम्बे केशों का जूड़ा बनाए हुए,मस्तक पर चंदन तिलक लगाए हुए संयासिनी के वेश में आसन पर विराजमान नयन मूंदे,कर जोड़े हुए ईश्वर की वंदना कर रही थीं 'साध्वी मां'।
दाहिने हाथ में मोटा कलावा सुशोभित हो रहा थाऔर गले में तुलसी की माला पड़ी हुई थी ,कक्ष के बाहर उनकी खड़ाऊं रखी हुई थी।
साध्वी मां ने नयन मूंदे ही हाथ के संकेत दिया जिसका तात्पर्य था कि उन्होंने उसकी बात सुन ली है।
वो चली गई।
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ,,,,, कहते हुए साध्वी मां ने अपनी आंखें खोलीं और आसन को यथास्थान रख कर कक्ष से निकलकर बाहर खड़ाऊं पहनकर निकलीं।
कक्ष के बाहर बरामदा था और वहां से आश्रम से बाहर जाने का निकास।
"प्रणाम साध्वी मां, अंतिम संस्कार का सारा प्रबंध हो गया है,मैं साथ चलूं क्या!" आश्रम के एक कर्मचारी ने उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा था।
"ना , आवश्यकता नहीं है ...." कहते हुए साध्वी मां आश्रम से बाहर अपने धीमे सधे कदमों से बाहर निकल गई थीं।
साध्वी मां तो आगे बढ़ रही थीं, श्मशान घाट की तरफ जो उनके आश्रम से कुछ ही दूर था मगर अतीत उन्हें धकेल कर पीछे ले गया था,सदा की भांति,,,, जब भी कोई लावारिस पार्थिव देह शमशान घाट पर आती , उन्हें सूचित किया जाता और वे उसका अंतिम संस्कार करने जातीं तब तब अतीत उन्हें धकेल कर पीछे अवश्य ले जाता था,,,,।
आज भी उनके सामने वो दिन खड़ा हो गया था ----
शरण चाहिए,,, शरण चाहिए,, द्वार खोलिए ,, मुझे शरण चाहिए..... क्षुधा, तृषा से व्याकुल आर्त स्वर सुनकर आश्रम का द्वार खोलकर एक व्यक्ति जो संयासी वेश में था वो बाहर आया था और उसने देखा कि आश्रम की देहरी पर शीश रखे एक प्रौढ़ स्त्री बैठी हुई थी।
" देवी आप कौन कौन हैं?और रात्रि बेला में यहां आने का प्रयोजन!!!"उसने पूछा था।
"पानी मिलेगा?" उसने प्रश्न का उत्तर न देते हुए पूर्वत देहरी पर सिर टिकाए हुए ही पूछा था।
"अवश्य......" कहकर वो भीतर जाकर एक पीतल के ग्लास में जल ले आया और उसकी तरफ बढ़ाया।
जल लेकर वो गटागट पी गई और फिर बोली --" मेरे बाबा साहब यहां के संत महाराज का शिष्यत्व गृहण किए थे और अपने जीवन के अंतिम दिन संत महाराज के श्री चरणों की सेवा कर बिताए थे,,, मुझे भी शरण की आकांक्षा है ,,, कहीं किसी कोने में मुझे रहने को मिल सकता है!!...."उसने बहुत आशा के साथ अपनी नजरें उत्तर की प्रतीक्षा में उस व्यक्ति पर गडा़ दी थीं।
"संत महाराज तक आपकी याचना पहुंचाता हूं पर मुझे नहीं लगता है कि आपको यहां शरण मिलेगी ,, क्योंकि आप एक महिला हो और ......."कहते हुए वो रुक गया था और फिर भीतर चला गया था।
कुछ क्षणों बाद जब वो आया तो उसके एक हाथ में दरी थी और दूसरे हाथ में भोजन थाल...
"देवी,आप भोजन ग्रहण कर, यहीं रात्रि को शयन करें, रात्रि बेला होने के कारण संत महाराज से आपकी भेंट न हो पाएगी किंतु प्रातः काल आपसे वे भेंट करेंगे....." वह व्यक्ति वहीं बरामदे में दरी बिछाकर और उससे थोड़ा अलग हट कर भोजन थाल रख गया था।
जल्दी जल्दी भोजन कर वो दरी पर लेट गई थी पर नींद तो कोसों दूर थी,,
प्रातः काल संत महाराज ने बरामदे में आकर उससे कहा था -" देवी हमारे आश्रम में कोई स्त्री नहीं है, परंतु आपके बाबा साहब मेरे शिष्य थे अतः आपको शरण देने से इंकार नहीं कर सकता हूं,आप यहां बरामदे के बाद जो प्रथम कक्ष है उसमें निवास कर सकती हैं पर आपके एक स्त्री होने के कारण आपकी सेवा मैं या कोई भी संयासी नहीं लेगा , आश्रम के कार्यों के लिए सेवक हैं ,आप अपने कक्ष में ईश्वर की साधना करें और आश्रम के भोजनालय से आपको दोनों समय का भोजन प्राप्त होगा ......" संत महाराज अपनी बात पूरी कर भीतर जाने को मुड़े.....
"आपकी सदा आभारी रहूंगी महाराज पर बिना कर्म किए कैसे रह सकूंगी!!और बिना कर्म किए भोजन के लिए बैठ जाना!! उचित न होगा ,, आश्रम में सेवा दान कर लेने दीजिए।"उसने हाथ जोड़ लिए थे।
"किसको क्या करना है? ईश्वर स्वयं निर्धारित करता है,समय आने पर..... देवी के रहने का प्रबंध कर दो इस बरामदे से लगे प्रथम कक्ष में......" मुस्कुरा कर उससे कहते हुए वे किसी सेवक को आदेश देते भीतर चले गए थे।
बरामदे से लगे प्रथम कक्ष में उसके रहने की सारी व्यवस्था हो गई थी - रात्रि शयन हेतु एक तख्त , पूजा करने को आसन , एक घड़े में पानी और उसकी तश्तरी पर एक ग्लास इत्यादि।
संत महाराज तो अपनी बात कह गए थे मगर वो आश्रम के बगीचे से पूजा के लिए पुष्प चुनकर संत महाराज के कश्र के बाहर पड़े तख्त पर रख देती थी और अपने कक्ष में आकर पूजा करने में दिन व्यतीत करने लगी थी।
उसकी सुविधा के लिए फिर एक स्त्री को रखा गया था जो अनाथ थी।
समय बीतते वो अस्वस्थ होते हुए अपने जीवन के अंतिम दिन गिनते हुए इहलोक गमन कर गई और प्रश्न उठा कि इसका अंतिम संस्कार कौन करे !!
वो स्त्री अनाथ थी और आश्रम का कोई संयासी किसी स्त्री के अंतिम संस्कार को संपन्न नहीं कर सकता था।
"महाराज आपकी आज्ञा हो तो बहन का अंतिम संस्कार मैं कर दूं?" उसने महाराज के कक्ष के बाहर से हाथ जोड़कर पूछा था।
"कोई स्त्री अंतिम संस्कार कैसे संपन्न कर सकती है महाराज???" बाकी संयासियों ने हैरानी से संवेत स्वर में संत महाराज से कहा था।
"क्यों नहीं कर सकती!! जो स्त्री जन्म दे सकती है, पालन-पोषण कर सकती है वो अंतिम संस्कार भी कर सकती है,, स्त्री देवी स्वरूप है और कोई कार्य नहीं जिसे करने से उसे वंचित किया जाए !!....." संत महाराज ने कहते हुए उसे अनुमति प्रदान कर दी थी।
अब उसे संत महाराज के वो शब्द स्मरण हो आए थे --किसको क्या करना है,ये ईश्वर स्वयं निर्धारित करता है.......
एक महिला के द्वारा अंतिम संस्कार करना आसपास के लोगों को पच नहीं रहा था, कानाफूसी होने लगी थी कि महिला कैसे किसी का अंतिम संस्कार कर सकती है!! प्राणी को मोक्ष भी नहीं मिलेगा मगर संत महाराज के तर्कों ने सबकी जुबान बंद कर दी थी।
अपनी सेविका का अंतिम संस्कार करते हुए उसके मन में विचार उठे थे कि जाने कितने ऐसे होंगे जिनका कोई नहीं होगा और उनका अंतिम संस्कार कौन करता होगा भला!!
उसे उसके प्रश्न का उत्तर भी शीघ्र मिल गया था --
"महाराज आश्रम के लिए समिधा लाने गया था तो मार्ग में देखा कि एक लावारिस शव पड़ा हुआ था और उसे हर चील कौवे नोच नोच कर खा रहे थे!!
ऊंहूऊऊम मन खराब हो गया......" बड़ा ही विकृत मुखामुद्रा हो गई थी उसकी कहते हुए.....शेष अगले भाग में।
प्रभा मिश्रा ' नूतन '