shabd-logo

मैं दिन सी रोज़

30 मार्च 2022

15 बार देखा गया 15
empty-viewयह लेख अभी आपके लिए उपलब्ध नहीं है कृपया इस पुस्तक को खरीदिये ताकि आप यह लेख को पढ़ सकें

मीनाक्षी वर्मा की अन्य किताबें

81
रचनाएँ
मनमीत
5.0
इस पुस्तक के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया है कि जीवन मूल्यों में सार्थक और अल्प शब्दों का प्रयोग करके अच्छे विचार प्रस्तुत किए जा सकते हैं | मेरा यह प्रथम संकलन समर्पित है उसको जिसके सानिध्य में रह कुछ मोती पाए हैं | आशा करती हूं कि आपका सहयोग मुझे आगे बढ़ने में मील का पत्थर साबित हो सके | इसी अनुरोध के साथ आपकी मीनाक्षी!
1

आरम्भ

30 मार्च 2022
13
3
0

‘‘स्वर सरिता सी बह रही थी बिन उददे्श्य तुम्हारा स्पंदन मेरी अंतशः सुगबुगाहट निष्प्राण तन में चेतना भर‘‘ {1}  

2

प्रेम का मर्म

30 मार्च 2022
9
2
0

‘‘प्रेम का मर्म समझता है त भी तो सोलह कलाओं से सपूंर्ण है अभिव्यक्ति का प्रतीक बन सूरज में किरण सा चमकता है  ढ़ाई अक्षर का आधार लिए अखिल बह्रामंड पर राज करताहै जीवन के मूल उद्गम द्वेत को ‘राधा‘ रूपी

3

चाँद सी दूरी

30 मार्च 2022
4
1
0

"फासलों का सफर इतना ज्ञात होगा  मैंने चाँद से सीख लिया है दूर से नजदीकियाँ बनाना" {4}  “जमीं भी तेरी आसमां भी तेरा  पर तेरे साथ बिताया वो एक याद गार लम्हा ही मेरा  जिसके बाद कुछ न पाने की

4

सब्र का बाँध

30 मार्च 2022
4
1
0

“सब्र का जब भी   बाँध बहा पीछे   एक सन्नाटा छोड़” {6}  ”रात भर जलता रहा   ये सोच कर की   सुबह उसकी तनहा न होगी” {7} 

5

तनहा

30 मार्च 2022
3
1
0

"इक दिन होना था ये तो तय था    बेचैनी तब हुई जब खुद को तनहा पाया" {8}  ‘‘बिहड़ताओं में जंगल पनपते देखा है    हां मैंने तुम्हारी आँख में समुद्र देखा तुम में संतप्त हो जाती है सब संवेदनाएं

6

चाँद पर नूर

30 मार्च 2022
2
0
0

“ये चाँद पर आज नूर कैसा है   मुद्द्तों बाद जैसे किसी ने चेहरा पढ़ा है” {10}  “मेरे प्यार की यही परवरिश होगी की  कि तुम्हारी सासों में वो धड़कता रहे” {11}     

7

अस्त होता सूरज

30 मार्च 2022
1
0
0

"अस्त होता सूरज आज फिर प्रेरणा  दे गया था पार नदी के उतर” {12} “दरम्या तुम में और मुझ में कुछ ना था एक हवा चली और रूख बदल गया” {13}

8

सिलसिला जज्बातों का

30 मार्च 2022
1
0
0

“सिलसिला जज्बातों का जब भी  चला दर्द हर दिल में इक सा मिला” {14} “सांझ पेड़ की शाख पर ढल रही थी    निस्तेज तेरे चेहरे पर पढ़” {15}

9

सिलवटें

30 मार्च 2022
2
1
0

“संबधों का ताना-बाना    इतना बुना गांठ खुलने  पर सिलवटें सी पड़ गई” {16}  “माझी इतना ही था वो सामने आया   पर वक्त बीत गया“ {17}  

10

रोज़ आवाज़ देती हू़ं

30 मार्च 2022
2
0
0

“कूचे से तुझे रोज़ आवाज़ देती हू़ं   हल्क सी पड़ जाती है तुझ तक पहुंचने में” {18} “तुझे स्वीकार कर रही हूँ ये मत समझ कि  खुद को दर किनार कर रही हूँ” {19}

11

दृष्टिकोण

30 मार्च 2022
1
0
0

“दृष्टिकोण का ही बदलाव था तेरे त्रिकोण अब  मेरे आयताकार रास्ते से मिलते नहीं” {20} “दरख्त तेरे इतने ऊंचे होगें छाया तक पनाह लेने के लिए” {21}

12

झील सी गहराई

30 मार्च 2022
1
1
1

“झील सी गहराई थी उसकी आँखों में  डूबने के लिए   एक आँसू बहुत था” {22} “चार-दिवारी के बाहर भी  एक दुनिया है अंदर-बाहर इक जैसी” {23}

13

शबनम

30 मार्च 2022
1
0
0

“छाया अपनी दे रहा था  घेराव एक बना” {24} “शबनम जब भी गिरी   तेरे सीप में ढ़ल कर मोती बनी” {25}

14

प्रकृति

30 मार्च 2022
2
0
0

“प्रकृति कुछ यूही मन में उलझ रहा था विचार शब्दों से अलग चल रहा था चेतना सी पल्लवित हो रही थी    भौतिकता से परे प्रकृति हँस रही थी एक समाजिक प्राणी के बौने पन पर   अट्टाहास कर रही थी अपनी सीमाएं लां

15

नारी

30 मार्च 2022
1
0
0

“शिलान्यास सी खड़ी एक नार अपने समय की प्रतीक्षा कर आज भी जड़ है अपने चेतन मन के अंतर मे कब होगा उसका भी प्रार्दुभाव पुरुषों की इस विसंगति में  ‘राम’ उद्धारक केवल तुम बने अनुसरण हुई केवल ठोकर में

16

रोशनी

30 मार्च 2022
1
0
0

“बादलों की ओट में जब से चाँद छुपा है  गहनता की चादर में कुछ और ढला है  मद्धिम रोशनी जब भी जगमगाई है  असंख्य जुगनुओं का इक झुंड चला है  कोलाहल करती नदी की धार संग  दूर बस्ती में एक दिया“ {30} 

17

हिम्मत

30 मार्च 2022
1
0
0

“रास्तों पर जबसे चलना शुरु किया है  रुकावटों ने अपना परिचय दिया है  आसां होता इतना जो सफर  मैंने भी बंजरों पर उगना शुरु किया है  लक्षित कामना लिए मन में  मंजिलों को मुकाम देने के लिए  हमने भी सम

18

जीवन मंथन

30 मार्च 2022
1
0
0

“सागर मंथन सा जब भी जीवन हुआ  अनंत दिन और रात में तब्दील हुआ  झुलसती मानव श्रृंखला में तब  सत्य सा कुछ प्रतीत हुआ  मथ-मथ कर जो कुंदन हुआ  वही मन का ‘मोती’ हुआ“ {34}  “यादें जब भी साझा हुई 

19

बेगुनाह

30 मार्च 2022
1
0
0

“एक ही रास्ता था चलने का तू खींचता गया  और मैं बढ़ती गई” {36}  “बेगुनाह होने का इतना ही सबूत काफी था कि वो नज़रे मिला के चल दिया” {37}

20

लम्बा सफर

30 मार्च 2022
1
0
0

“जिंदगी जीना एक सबक था अनुभव उसका एक लम्बा सफर था” {38}   “मिल जाता सब कुछ  फिर तलाश क्यों रहती जीने का सबब पाना नहीं महसूस भी हो जाए गर जिंदगी” {39} 

21

साजिश

30 मार्च 2022
1
0
0

“साजिश सी खूब उसने रची थी भिगोने की रंग एक चटक“ {40}   “चौखट पर रोज़ इंतजार करती हूँ तारो सी बिखर आसमां में“ {41}   

22

मेरे दिल से गुजरा है

30 मार्च 2022
1
0
0

“महज एक बहाना था ता-उम्र की खींचा-तानी हो गई” {42}   “काँच सा जब भी वो बिखरा है एक टुकड़ा उसका मेरे दिल से गुजरा है” {43}   

23

बगावत

30 मार्च 2022
1
0
0

“तमाम उम्र वो वफा करता रहा पर उसमें दरियादिली आई नहीं समुद्र लबालब भरता रहा पर रेत में नमीं आई नहीं” {44} “भूलने की चेष्टा में खुद से बगावत की है” {45}  

24

काँच सा दिल

30 मार्च 2022
1
0
0

“काँच सा दिल लिए वो चलता है ठेस न लगे फांसला दे रही थी” {46}   “रोज़ नई उलझने रोज़ वहीं कश्मकश  पर केवल एक रात ही बचती है जो तुममें बीत जाती है एक सन्नाटे की तरह” {47}   

25

जब भी वो नज़दीक आता है

30 मार्च 2022
1
0
0

“टकटकी लगाए बैठा था देख चाँद के बहाने” {48}   “आँखें वो मेरी पढ़ रहा था अंदाजा अपना लगा रहा था” {49}    “जब भी वो नज़दीक आता है मुझमें कुछ छूट जाता है” {50}  

26

काँच सा मन

30 मार्च 2022
1
0
0

“जिंदगी के फलसफे पर  ठहरता है पृष्ठ्भूमि एक बना” {51}    “काँच सा मन बना लिया था उसने चटकने का गम नहीं  दिल पत्थर सा दिल  लिए फिरते हैं लोग” {52}  

27

परिवर्तन

30 मार्च 2022
1
0
0

“ठहराव जब भी जडे़ अपनी जमाने लगा खिसकते वक्त की परत बन धुंधलाने लगा सब कुछ तो अस्थिर है अनभिज्ञ आत्मा को कर स्ंवय का आधिपत्य मनाने लगा खुद का ढ़लना जब स्वीकृति है मन की आँख पर गांधारी सी पट्ट

28

भावनाएं

30 मार्च 2022
1
0
0

“एक झरोखा खिड़की का आर-पार दिखता है अपनी जगह से” {55}   “भावनाएं अक्सर गौण हो जाती है मस्तिश्क की दख्लअदांजी सुन” {56}    “पिंजरे में कैदी सा छटपटा रहा था उड़ान जब एक लंबी भर” {57}   

29

गंतव्य

30 मार्च 2022
1
0
0

“निश्कटंक पथ गेह असहनीय वेदना लिए चराचर इस जगत में अन्वेश्ण दिषा लिए सजल छवि में भावना सुदृढ़ कर दृश्टिपात हो सकल ब्रांहृाण में अविरल धारा लिए पहुंच अपने सगर तक” {58}    "पुष्प से वो रोज

30

मैं दिन सी रोज़

30 मार्च 2022
1
0
0

“चौखट से बाहर कदम क्या रखा  कि खिड़कियों सी तेरे चटकने की आवाज़ सुनी" {60}   “मैं दिन सी रोज़ उठती हूँ तू रात लिबास सी पहना देता है" {61}   “आज कुछ फूल स्वयं झरे थे           लेने का हक

31

सर्द रात

30 मार्च 2022
0
0
0

“सर्द रातों में अक्सर ठिठुरती है          आंच सी लकडी़ पर सुलग” {63}    “किनारे से बह गया था सुना है लहर भी अक्सर डूब जाया करती है” {64}    

32

स्त्री

30 मार्च 2022
0
0
0

“स्त्री मिल जाए तो पनाह सी और न मिले तो तलाश सी” {65}    “ठूंठ सा वो खड़ा था बीच नदी के” {66}    “कहते-सुनते दिन सा बीत गया था रात के सिरहाने खोल” {67}  

33

महसूस

30 मार्च 2022
0
0
0

“कुछ अनछुआ सा तुम्हें देखा है चाँद पर फिर नाकाब सा देखा है मिलने की हसरतें यूं बढ़ती रही घिसती आँखों ने भी एक ख्वाब देखा है शाजं नहीं कि तुम्हें पा सकूं महसूस हर धड़कन में रहूं तेरे नाम की” {68}

34

उफ़ान सी लहर

30 मार्च 2022
0
0
0

“सागर भी किनारे लगते है देख मर्यादा” {70}    “चंदन सी महक उठी थी जबसे तेरे पत्थर में घिसी हूँ” {71}  “ख़ामोशी तेरी अक्सर जर्जर करती है उफ़ान सी लहर जब चुपचाप लौटती है” {72}  

35

मिज़ाज

30 मार्च 2022
0
0
0

“कौन कहता है बोलना अच्छा नहीं होता चुप रहने से मिज़ाज पता चल जाते हैं” {73} “आसमां सा वो छाया रहा नींद सी खुली जब जमीं पर” {74}  

36

कर्ज

30 मार्च 2022
0
0
0

“झाड़ियां समझ जब भी उखेड़ा है दूब सा वो उग आता है” {75}    “हंस कर वो यूं टाल जाता है कर्ज दूसरे के कंधे पर चढ़ा” {76}  “नदी को को ज्ञात था चल कर ही किनारे लगूंगी” {77}  

37

अल्फ़ाज़

30 मार्च 2022
0
0
0

“दरवाज़े के बाहर झांक रहा था कान खिड़की पर लगाए” {78}  “हर शब्द के अल्फ़ाज़ हो जरूरी तो नहीं  कुछ पन्ने किताब में मुडे़ रह जाते है” {79}  

38

मिट्टी

31 मार्च 2022
0
0
0

“गौर से वो मुझे देखरहा था ध्यान मेरा हटाकर” {80}  “रत्ती भर ज़मीन मुकम्मल हुई  वो भी मिट्टी बन” {81}   “रात की ख़ामोशी बयां कर रही थी तेरे दिनभर का बड़बडाना” {82}  

39

सत्य

31 मार्च 2022
0
0
0

“ध्यान में थी या खुद की सतह ढूंढ रही थी पर कुछ सोचते आगे बढ़ रही थी न दिशा थी न दयार अज्ञात सी भटक छूटते रस्तों को अंगीकृत का मषाल सी भीतर जल रही थी जीवन पथिक कर धूप-छाँव की कटिका से उपरत ‘सत्

40

नाराज़गी

31 मार्च 2022
0
0
0

“खत आज भी उसके महकते है खुशबू अपनी छोड़” {85}   “नाराज़गी थी तो बाँट लेता हिस्सा अपना छोड़ गया” {86}  “रात ने आँख मिच ली उजाले की पीठ देखकर” {87}  

41

टूटने की हसरतें

31 मार्च 2022
0
0
0

“संगमरमर सा चमकता है अमावस की रात में” {88}   “टूटने की हसरतें कुछ यूं बोई है कि  चटके गिलास में पौधा उगा” {89}   “अकेली रात सी खडी़ दरवाजे़ पर खुलने पर तेरा दीदार होगा सूरज़ सा जज्

42

मैं नदी सी

31 मार्च 2022
0
0
0

“तू समुद्र हो करभी खाली है और मैं नदी सी भरी हूं” {91}  “ख़्वाहिश सी रह गई  तूझे छूने की पर तू भी चाँद था कैसे पता चलता” {92}  

43

रेहगुज़र

31 मार्च 2022
0
0
0

“कुछ यूं तेरी रेहगुज़र से गुजरी हूं परछाई सी जमीं पर चलती रही” {93}  “रात सी मैं गुजरती रही और तू ओढ़ कर सोता रहा” {94} 

44

कश्मकश

31 मार्च 2022
0
0
0

“बिखरते वक्त की तालिम लिख रहा था काँपते हाथों से” {95}  “दरम्या इतनी कश्मकश होगी साँस सिगरट सी फूंक” {96}  “भोर की दहलीज पर कदम रख रही थी रात की सीढ़ी चढ़” {97}  

45

तकल्लुफ

31 मार्च 2022
0
0
0

“जिंदगी का हिसाब लिख रहा था खर्च अपना जोड़” {98}  “टूटते तारे से मांगने की गुंजाइश न रही खुले आसमान में भी जब जगह न मिली” {99}   “तुम तकल्लुफ भी करते हो तो संजीदा हो जाती हूं कि सब

46

नसीहत

31 मार्च 2022
0
0
0

“सोलह कलाओं से संपूर्ण है एक प्रेम में बह” {101}  “उम्र सी सींचता है नसीहत एक बन” {102}  “रात तुम खड़ी रही अपलक अपनी वीरानियों का सृजन कर फैले अभ्यारण में कुछ जुगनुओं ने साहस कर तुम्हे

47

दरिया

31 मार्च 2022
0
0
0

“बहते दरिया का रूख नहीं मोड़ा करते अक्सर वहीं तट बह जाते है जहाँ सीढ़ियाँ बनी होती है” {104}  “ख्वाब एक संभावना धरती से कुछ ऊपर उठ आसमां में सितारे टाकने जैसी” {105}  

48

रात की तन्हाई

31 मार्च 2022
0
0
0

“कुछ खत आज भी अधूरे छूट जाते है एकतरफा का अहसास लिए” {106} “रात की तन्हाई में दोनों साथ चल रहे थे वो सितारों के बीच अकेला और वो छत के नीचे” {107} 

49

रूह

31 मार्च 2022
0
0
0

“मेरी रूह की तहरीर (लिखावट) मत बन ग़र खुदा समझ तुझे पढ़ाया है” {108}  “मयखाने से अक्सर गुजरता है रात तन्हा कर” {109}   “जुम्मे रात में मिलता है (पूर्णता) एक लिए” {110} 

50

मुसलिफ़

31 मार्च 2022
0
0
0

“जीवन-दर्शन समझा रहा था दृष्टांत एक बन” {111}  “मुसलिफ़ (तन्हा) इतना हुआ कि सितारों में भी रात दिख” {112}  “बंटवारा सा जब भी हुआ टुकडे़ एक दिल के कर” {113} 

51

इश्क़-ए-मोहब्बत

31 मार्च 2022
0
0
0

“इश्क़-ए-मोहब्बत रफ्ता-रफ्ता चले थे वो सादगी को कैफ़ियत (विवरण) समझ” {114}   “बीज़ से जो इस जमीं पर बोए है पकने का इंतजार कर” {115}   “वो बेवक्त यूंही चला आता है अपना जबसे कहा है” {116} 

52

तफ़्तीश

31 मार्च 2022
0
0
0

“वहषते ग़म इतना मलान था  तू धूप सीं गुजरती रही चाँद से माथे पर” {118}   “तेरी तफ़्तीश (तलाश)   में यूं गुजर होती रही रात बढ़ती रही चाँद ढ़लता गया” {119}  

53

मुस्तहक़म

31 मार्च 2022
0
0
0

”इक लम्हा सा फ़क्त  चुराया था  ज़माने भर की नज़र लग गयी” {120}  ”मुस्तहक़म (निंरतर) तुम्हें तलाश   कुछ यूं निकल वीराने से बनते गए रात बसर होती रही” {121}  

54

प्रेमास्पद स्पंदन

31 मार्च 2022
0
0
0

”वो तुम्हारा प्रेमास्पद स्पंदन भाव के धरातल पर ठहर मनोभावों में इंगित हो” {122}   ”कुछ यूं तुम्हें नज़रों से पढ़ा है किताब सी गयी  हाथ से छूट” {123}   ”एक रात सी खनकती है सुबह नीलाम क

55

मुमताज़ एक बिठा

31 मार्च 2022
0
0
0

”बौछारों सी है अब जिंदगी कहीं सूखा कहीं गीला” {125}  ”महल बना रहा था मुमताज़ एक बिठा” {126}   ”लरज़ते शब्दों ने अर्थ की उपयोगिता को संवारा था इंगित कर” {127} 

56

खिड़कियां

31 मार्च 2022
0
0
0

”ख़ुशबू सी पसर गई थी आशियानें में वो मुस्कुराहट छोड़ गया था” {128}   ”खिड़कियां सी चटकती हैं रेल सा जब भी गुजर” {129}  

57

तपिश

31 मार्च 2022
0
0
0

”वृक्ष गुमां न करते यदि जमीं न होती चाँद यूं न इतराता ग़र सूरज की तपिश न होती प्रेम यूं न ठहरता औरत थमी न होती” {130}  ”बेरुखी से खौफ नहीं लगता शख्सियत जब अपनी बदल” {131}  

58

पडा़व

31 मार्च 2022
0
0
0

”विस्मृतियों का यूं पडा़व बना घर बनता रहा लोग आते-जाते रहे” {132}  ”समुद्र लियाकत सी ओढ़ लौटा देता है जो भी दे शायद तभी सूखता नहीं है” {133}  

59

मुसलसल

31 मार्च 2022
0
0
0

”मुसलसल (लगातार) यूं बरसता रहा उजाले में शारिक हो रात खड़ी भीगती रही” {134}  ”मौसमे गुलज़ार यूं महकता रहा धूप-छाँव पड़ती रही पुष्प पल्लवित होता गया” {135} 

60

एतबार

31 मार्च 2022
0
0
0

”कुछ खता अपनी भी होगी एतबार खुद से ज्यादा कर” {136}   ”दायरा सा खींचा था उसने रास्ता ही बदल डाला” {137}  ”उड़ान लंबी भरी थी आंसमा छोटा पड़ गया” {138}  

61

वज़ह

31 मार्च 2022
0
0
0

”आदमी आदमी को ढ़ूढंता है भीड़ में गुम हो” {139}   ”रात की लिखावट पर सुबह के हस्ताक्षर मिलें” {140}   ”आज वो खुल के हँसा था वजह खुद बन गई थी” {141}  

62

फांसला

31 मार्च 2022
0
0
0

”कायनात सा मिलता है निस्वार्थ” {142}   ”एक उम्र का ही फांसला था समझ के दायरे बदल” {143}  ”गैर नज़र आता है जब खुद को छोड़ मेरे पास आता है” {144}  

63

उलीच

31 मार्च 2022
0
0
0

”गहराई में उतर रहा था समुद्र एक उलीच” {145}  ”तेरे अनुभव इतने पुख्ता होगें  संजीदा दिल को कर” {146}   ”दीवार सी अक्सर टूटती है जब भी टेक लगाता हैं” {147}    

64

टकटकी

31 मार्च 2022
0
0
0

”सूखे फूलों सा किताब में पढ़ा था कुछ जीवित यादों सा” {148}  ”टहनी से सट के लगा था पत्ता  एक टकटकी लगाए” {149}   ”मौजूदगी अपनी बता रहा था तीली एक जला” {150}      

65

कुछ

31 मार्च 2022
0
0
0

”कुछ यूं पाने की चाह जगी है छूटना महज़ एक भ्रम निकला जमीं पर खडी़ आसमाँ में दिख इशारा चाँद को कर चंद सिक्कों में जिंदगी गुजार सब कुछ पाकर अनायास ही सिंकदर याद आ गया खाली लौटने का सार पकड़ देना

66

टपकती बूंदें

31 मार्च 2022
0
0
0

”मुसलिफ़ (तन्हा) इतना हुए कि सितारों में भी रात दिख” {153}   ”वो टपकती बूंदें और तेरी आँखों का कह जाना” {154}   ”नित्य नए रूप सा भासित होता है कलाएं  चंद्रमा से सीख” {155} 

67

संतुलन

31 मार्च 2022
0
0
0

”दो पैरों के बीच चल रहा था संतुलन एक बना” {156}  ”एक समूह में उड़ता है बन इक जैसा” {157}  ”मैं रात होने का दावा कर रही थी तू चाँद सा घिर गया” {158} 

68

चाँदनी

31 मार्च 2022
0
0
0

”चाँदनी रात भर आँगन में छिटकती रही झांक तेरे अधखुल किवाड़ से” {159}   ”टप-टप कर बूंदे पड़ रही थी गलियारे चाय के कुल्हड़ मे उबल” {160} 

69

दृष्टिकोण

31 मार्च 2022
0
0
0

”एक नज़रिया मुझसे तुम तक पहुँचने का दृष्टि एक सी पर विचारों में जाकर विस्तृत हो जाती है अपने तर्क पर बिठा पक्षी की आँख साधने जैसी विचारधारा की अनन्त यात्रा कर  सर्वसम्मति सी चुनी जाती है अपने वि

70

अस्तित्व

31 मार्च 2022
0
0
0

”समेटने लगी हूं खुद को आस-पास से बिखरने की आवाज़ सुन” {163}   ”फूल सा कीचड़ में खिला था अस्तित्व अपना बचा” {164}   ”बिखरे रंगों में वो उभर आया था ‘रंगरेज’ सा” {165}  

71

शर्मिंदगी

31 मार्च 2022
0
0
0

”एक तलाश सी जारी थी खुदी सम्भलने तक” {166}  ”खुली किताब सा मिलता है दिल हल्का कर” {167}   ”बेबसी की फितरत गुलाम बन गई थी शर्मिंदगी जमींर की लिए” {168}  

72

पशेमा

31 मार्च 2022
0
0
0

”बूझते दिए बता रहे थे एक रात जलाई है फ़ना कर” {168}   ”एक हाथ से जब भी पकडा़ है दूसरा छूट” {169}   ”वो आज भी कुछ पशेमा था बात का रूख बदल” {170}  

73

लिबाज़

31 मार्च 2022
0
0
0

”खरपतवार सा उग जाता है जब भी  उपजाऊ कर छोड़ा है” {171}  ”खाली लिबाज़ सा मिलता है शब्द अपने भर” {172}  ”खाव्हिशें अब भी आवाज़ देती है उम्र का रास्ता रोक” {173} 

74

सिलवट

31 मार्च 2022
0
0
0

”एक इंतजार का ही फर्क था तेरे जाने और मेरे ठहर जाने में” {174}  ”समुद्र का वेग था वो थम लहरों में” {175}  ”एक सिलवट सी पड़ जाती है रात जब भी उठ कर आती है” {176} 

75

शब-ए-रात

31 मार्च 2022
0
0
0

”गहराई में उतर रहा था समुद्र एक उलीच” {177} ”शब-ए-रात सा (पूर्णिमा का चाँद) मिलता है कसौटी पर खरा उतर” {178}  ”सूरज रोज़ उगता है दास्तां रात की सुन” {179}  

76

क्षणभंगुर

31 मार्च 2022
0
0
0

”एक पड़ाव सा जब भी आया  गन्तव्य सामने कर” {180}   ”जीवन क्षणभंगुर था पिपासा गहरे  सागर सी लिए” {181}  ”प्रेम का वो अतिक्रमण कर रहा था पहल एक कर” {182}  

77

फ़रिश्ते

31 मार्च 2022
0
0
0

”एक शाम सा फैल जाता है काजल आँखों में बिखर” {183}  ”फ़रिश्ते भी कदम चूमते होगे जब वो मुस्कुराते हुए पार आता है” {184} 

78

समझ

31 मार्च 2022
0
0
0

”समझ अथाह समुद्र सी जिसका कोई छोर नहीं आ जाए तो परिपक्व नहीं तो व्यक्तिगत नज़र आती नहीं कहीं उम्र की गोद में भी दिखती नहीं अपने पैमाने लिए खुद ही हाँकती है। विचारों में बँट आश्रय सी भटकती वक

79

मौन

31 मार्च 2022
0
0
0

”मौन स्वयं अपनी भाषा  बिन बोले अपना परिचय  गूढ़ रहस्यों में कह जाता है।  शब्द पर आधिपत्य कर  अपनी मुहर लगा जाता है।  विराट शब्दावली को झंकृत कर  एक मूक सा उत्तर दे जाता है।  कहे-अनकहे शब्दों के

80

दायरा

31 मार्च 2022
0
0
0

”दायरा विशालता समुद्र सी ओढ़ किनारे से समेट लेता है असंख्य छीटों की वेदना बाहर कर अंदर मोती समेट लेता है कभी लक्ष्मण-रेखा को पार कर जब भी अट्टाहस झेलता है एक कड़वा अनुभव समझ उम्र में जोड़ लेता ह

81

प्रकृति

31 मार्च 2022
2
1
0

”प्रकृति घने जंगलों सी निष्प्राणहर साँस में जीवित दिखाई देती है अपने अभ्यारण में व्याप्त संचरित सी हर परिस्थिति में क्षणभंगुर जीवन की सतत प्रक्रिया का आह्वान देती है तुम्हारी रस छत्रछाया को आतुर

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए