कबीर परमेश्वर जी ने फिर बताया है कि:-
बिन उपदेश अचम्भ है, क्यों जिवत हैं प्राण।
भक्ति बिना कहाँ ठौर है, ये नर नाहीं पाषाण।।
भावार्थ:- परमात्मा कबीर जी कह रहे हैं कि हे भोले मानव! मुझे आश्चर्य है कि बिना गुरू से दीक्षा लिए किस आशा को लेकर जीवित है। न तो शरीर तेरा है, यह भी त्यागकर जाएगा। फिर सम्पत्ति आपकी कैसे है?
कबीर, काया तेरी है नहीं, माया कहाँ से होय।
भक्ति कर दिल पाक से, जीवन है दिन दोय।।
जिनको यह विवेक नहीं कि भक्ति बिना जीव का कहीं भी ठिकाना नहीं है तो वे नर यानि मानव नहीं हैं, वे तो पत्थर हैं। उनकी बुद्धि पर पत्थर गिरे हैं।
कबीर जी ने फिर कहा है कि:-
बेगार की परिभाषा
अगम निगम को खोज ले, बुद्धि विवेक विचार।
उदय-अस्त का राज मिले, तो बिन नाम बेगार।।
भावार्थ:- पुराने समय में पुलिस थानों में जीप-कार आदि गाड़ियाँ नहीं होती थी। जब पुलिस वालों को कहीं रेड (छापा) मारनी होती तो किसी प्राइवेट थ्री व्हीलर या फोर व्हीलर वाले को जबरदस्ती पकड़ लेते और उसके व्हीकल (थ्री व्हीलर या फोर व्हीलर) में बैठकर जहाँ जाना होता, ले जाते। ड्राईवर भी थ्री व्हीलर वाला होता था तथा पैट्रोल-डीजल भी वही अपनी जेब से डलवाता था। उस दिन की दिहाड़ी भी नहीं कर पाता था। पुलिस वाले उसको सारा दिन इधर-उधर घुमाते रहते थे। आम व्यक्ति तो यह विचार करता था कि ये थ्री व्हीलर वाला आज तो बहुत ज्यादा कमाई करेगा। सारा दिन चला है, परंतु उसका मन ही जानता था। उस दिन उसके साथ क्या बीती होती थी। ऐसे ही राजा लोग इस जन्म में भक्ति ना करके केवल राज्य व्यवस्था को बनाए रखने में जीवन समाप्त कर रहे हैं तो वे बेगार करके जाते हैं। पूर्व जन्म के धर्म-कर्म से राजा बनता है। वर्तमान जन्म में उसी पुण्य को खर्च-खा रहा होता है। जनता को तो लगता है कि राजा बड़ी मौज कर रहा है। आध्यात्मिक दृष्टि से वह बेगार कर रहा है। भक्ति कमाई नहीं कर रहा है। यदि व्यक्ति पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर भक्ति नहीं करता है तो उसको चाहे उदय-अस्त का यानि पूरी पृथ्वी का राज्य भी मिल जाए तो भी वह थ्री व्हीलर वाले की तरह व्यर्थ की मारो-मार यानि गहमा-गहमी कर रहा है। उसे कुछ लाभ नहीं होना। इसलिए राजा हो या प्रजा, धनी हो या निर्धन, सबको नए सिरे से भक्ति करनी चाहिए। उसी से उनका भविष्य उज्जवल होगा।
परमात्मा कबीर जी ने अपने शिष्य संत गरीबदास जी को तत्वज्ञान समझाया जो इस प्रकार है:- (राग आसावरी शब्द नं. 1)
मन तू चलि रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर। (टेक)
कोटि जन्म तोहे मरतां होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर-सुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।(1)
कोटि जन्म तू राजा किन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिल्या न निर्गुण रासा।।(2)
इन्द्र कुबेर ईश की पद्वी, ब्रह्मा, वरूण धर्मराया।
वष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।(3)
असँख्य जन्म तोहे मरते होगे, जीवित क्यूं ना मरै रे।
द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देह धरै रे।।(4)
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राज-पाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।(5)
सतगुरू मिलै तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदै समाना।
चल हँसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।(6)
चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिलै राम अविनाशी।।(7)
सूक्ष्मवेद की वाणी का भावार्थ:-
वाणी का सरलार्थ:- आत्मा और मन को पात्र बनाकर संत गरीबदास जी ने संसार के मानव को समझाया है। कहा है कि ‘‘यह संसार दुःखों का घर है। इससे भिन्न एक और संसार है। जहाँ कोई दुःख नहीं है। वह स्थान (सनातन परम धाम = सत्यलोक) है तथा वहाँ का प्रभु (अविनाशी परमेश्वर) सुखों का सागर है।