जब सोमालिया में जन्मे और पाकिस्तान में आठ वर्ष बिता चुके अब्दुल रज्जाक आर्तन ने अमेरिका की ओहायो यूनिवर्सिटी में मौजूद भीड़ में अपनी कार तेजी से घुसा दी और फिर उस भीड़ में से बचे हुए लोगों पर चाकुओं से हमला किया, तब वह चीख रहा था, “अमेरिका दूसरे मुस्लिम देशों में दखल देना बंद करे, म्यांमार के रोहिंग्या मुस्लिमों को मारा जा रहा है… हम मुसलमान कमज़ोर नहीं हैं, हम अमेरिका को दिखा देंगे कि हम क्या हैं…”. इस अनोखे आतंकी हमले में एक अमेरिकी छात्र की मृत्यु हुई जबकि ग्यारह घायल हुए. हमले से पहले अब्दुल रज्जाक ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा था कि “..जो मुस्लिम आज मेरी इस कार्रवाई का विरोध करेंगे, वे भी वास्तव में “स्लीपर सेल” हैं और समय आने पर वे अमेरिका में तबाही मचाएँगे..”. FBI की जाँच में अब्दुल रज्जाक की फेसबुक वाल पर इस्लामिक स्टेट से सम्बंधित कई पोस्ट्स भी पाई गईं. बाद में अब्दुल रज्जाक आर्तान को विश्वविद्यालय में मौजूद एक पुलिस अधिकारी ने गोली से उड़ा दिया.
अब्दुल रज्जाक का जन्म सोमालिया में हुआ था, फिर एक शरणार्थी के रूप में अमेरिका आने से पहले उसने 2007 से 2014 तक का समय पाकिस्तान में बिताया था. पिछले दो वर्ष से वह अमेरिका में रह रहा था और यहाँ की कोलंबस स्टेट कॉलेज से मई में ही गेजुएशन किया था. हालाँकि वह अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों की नियमित निगरानी में भी था, परन्तु उसके खिलाफ कोई विशेष संदिग्ध नहीं पाया गया था. ज़ाहिर है कि इस्लामिक स्टेट के स्लीपर सेल्स बड़ी सफाई से काम कर रहे थे. रज्जाक के सहपाठी बताते हैं कि वह दुनिया भर में मीडिया द्वारा मुस्लिमों के बारे में पेश की जाने वाली ख़बरों से विचलित होता था, परन्तु हमने कभी सोचा नहीं था कि वह रोहिंग्या मुस्लिमों के मुद्दे पर इतना भड़क जाएगा, क्योंकि उसका म्यामांर से कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा. अलबत्ता वह प्रतिदिन इलाके में मौजूद मस्जिद में नियमित रूप से जाता था. अमेरिका में हुई इस घटना की वहां के कई मुस्लिम नेताओं और मौलवियों ने आलोचना की है परन्तु विश्लेषक मानते हैं कि ये सब केवल दिखावा मात्र है. अब्दुल रज्जाक के भड़कने का एकमात्र कारण है “इस्लाम” नामक अवधारणा, जिसमें देश, काल, परिस्थिति, सीमाएँ कोई मायने नहीं रखता. डेनमार्क में बनने वाले कार्टून को लेकर भारत में प्रदर्शन होता है, ऑस्ट्रेलिया के मुस्लिम नागरिक पर हुए अत्याचार पर अफ्रीका में लोग भड़क जाते हैं, जबकि रोहिंग्या मुस्लिमों को मार भगाने के मुद्दे पर हजारों किमी दूर बैठा अब्दुल रज्जाक अपनी कार भीड़ पर चढ़ा देता है…. यह है पूरे विश्व को “दारुल इस्लाम” में बदलने की आतंकी जिद, जो मस्जिदों में मौलवियों की तकरीरों से निकलती है. लेकिन यदि अब्दुल रज्जाक ने म्यांमार का इतिहास पढ़ा होता, और यह समझा होता कि वास्तव में बर्मा में इस्लाम के कट्टर रुख ने वहां के बौद्ध निवासियों के साथ क्या-क्या क्रूर हरकतें की हैं तो वह ऐसा नहीं करता. इस इतिहास को जानने के लिए हमें बर्मा के रोहिंग्या मुस्लिमों, रखिने प्रांत और वहां के स्थानीय निवासियों के बारे में समझना होगा.
अब्दुल रज्जाक ने शायद ये नहीं पढ़ा होगा कि पंद्रहवीं शताब्दी से ही बर्मा के राखिने प्रांत में रोहिंग्या मुस्लिमों और मूल निवासियों का संघर्ष चल रहा है. तत्कालीन बंगाल (बंगप्रदेश) जो कि मुस्लिम सुल्तानों द्वारा शासित था, हजारों मुस्लिम परिवारों ने पड़ोस के बर्मा में घुसपैठ शूरू कर दी थी. पंद्रहवीं सदी के आरम्भ में रखिने प्रांत के राजा कमज़ोर हो गए थे, इस कारण पड़ोस के दो राज्य आवा तथा पेगू की नज़र रखिने प्रांत पर लगी हुई थी. इन दोनों शक्तिशाली राजाओं की आपसी लड़ाई और रखिने पर वर्चस्व की यह लड़ाई लगभग चालीस वर्ष तक चली. और अंततः सन 1406 में रखिने नरेश सू मून को भागकर पड़ोस के बंगाल में शरण लेनी पडी. बंगाल के तत्कालीन सुलतान जलालुद्दीन मोहम्मद शाह ने सू मून को अपने यहाँ न सिर्फ शरण दी बल्कि अपनी युद्ध कौशल से प्रभावित होकर सेना में कमांडर भी बनाया. सू मून ने अपनी प्रतिभा के बल पर सुलतान के मन में स्थान बना लिया. 1429 में उसने अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए बंगाल के सुलतान को उकसाया और समझाया कि रखिने प्रांत पर कब्ज़ा किया जाए. सुलतान इस योजना पर राजी हो गया और उसने कुछ अफगान लड़ाके भी सू मून को दिए. सू मून के नेतृत्व में जलालुद्दीन की सेना ने अराकान (अर्थात रखिने) प्रांत के राजाओं को परास्त कर दिया और सू मून को वहां का राजा घोषित कर दिया गया.
सू मून ने मारुक राज्य की स्थापना की, परन्तु सुलतान के अहसान तले दबे होने के कारण वह एक तरह से जलालुद्दीन का गुलाम बन गया था. बंगाल के सुल्तान ने सू मून पर दबाव बनाकर हजारों बंगाली मुस्लिमों को रखिने प्रांत बसाने का आदेश दिया. इतना ही नहीं सुलतान ने रखिने प्रांत में इस्लामी सिक्के चलाने का आदेश भी दिया, यह साफ़-साफ़ स्थानीय बौद्धों का अपमान था. रखिने प्रांत में तभी से इन बंगाली मुस्लिमों के खिलाफ आक्रोश पनपने लगा था. 1531 तक रखिने प्रांत एक तरह से बंगाल के सुल्तान का अधीन ही रहा. 1531 से 1629 तक अर्थात लगभग सौ वर्ष के दौरान पुर्तगाली लुटेरों से त्रस्त बंगाल के तटवर्ती इलाके में बड़ी संख्या में पलायन हुआ और वे सब भागकर बर्मा की दिशा में गए, इस प्रकार सत्रहवीं शताब्दी में रखिने प्रांत की आबादी में इन रोहिंग्या मुस्लिमों की आबादी का प्रतिशत बहुत बढ़ गया था. जैसे ही ये मुस्लिम बहुमत में आने लगे, वैसे ही उन्होंने स्थानीय शांतिपूर्ण बौद्ध समुदाय पर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया. बौद्ध महिलाओं के बलात्कार एवं बौद्ध भिक्षुओं के अपमान की ख़बरें लगातार आने लगीं.
इसके बाद रखिने प्रांत को 1785 में बर्मा के कोंबांग राजवंश ने अधिगृहीत कर लिया और रखिने के स्थानीय बौद्ध निवासियों का एक और बुरा दौर शुरू हो गया. बामर राजवंश ने रोहिंग्या मुस्लिमों के साथ मिलकर रखिने के बौद्ध लोगों पर कहर बरपाया. रोहिंग्या मुस्लिम भी खुलकर बामरों का साथ देते थे, ताकि उन्हें सुरक्षा मिलती रहे. इस प्रकार जल्दी ही लाखों की संख्या में रखिने के निवासी पलायन करके चिटगांव प्रांत में जा बसे. लेकिन अंततः वे भागकर जाते कहाँ, बर्मा से बचकर भागे तो चटगाँव पहुंचे, जहां स्थानीय मुस्लिमों ने रोहिंग्या मुस्लिमों के साथ मिलकर रखिने के बौद्धों के साथ नए सिरे से लूटपाट, मारपीट और हत्याएं कीं. पहले बर्मा-अंग्रेज युद्ध (1824-1826) तक रखिने के बौद्ध तेजी से अल्पसंख्यक होने की कगार पर पहुँच गए. जब एक बार इलाके में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया तब उन्होंने किसी को नहीं बख्शा. अंग्रेजों को गुलाम और कामगार मजदूर चाहिए थे, रोहिंग्या मुस्लिमों और पीड़ित राखिने बौद्धों से अच्छे गुलाम भला उन्हें कहाँ मिलते. अराकान प्रांत में अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद अंग्रेजों ने चतुराई से बौद्धों और मुस्लिमों को आपस में भिडाए रखा, लेकिन इस बीच मुस्लिमों की जनसंख्या लगातार बढ़ती चली गई और पूरे क्षेत्र का जनसंख्या संतुलन बिगड़ गया.
अत्यधिक पीड़ित होने और अत्याचार सहने के बाद अराकान के बौद्धों ने पलटवार करने का निश्चय किया और दुसरे विश्व युद्ध से पहले जल्दी ही क्षेत्र में भीषण दंगे फ़ैल गए. अंग्रेज घबरा गए और उन्होंने दंगे शांत करने के लिए एक आयोग गठित किया जिसके सदस्य थे जेम्स ईस्टर तथा टिन टूट (जो आगे चलकर स्वतन्त्र बर्मा के पहले विदेश मंत्री भी बने). आयोग ने सुझाव दिया कि जनसँख्या संतुलन बनाए रखने के लिए रोहिंग्या मुस्लिमों को इधर आने से रोकना होगा. इसके लिए बंगाल को अराकान प्रांत से जोड़ने वाली सीमा को सील किया जाए., लेकिन यह प्रस्ताव केवल कागजों तक ही सीमित रहा, क्योंकि दुसरे विश्व युद्ध के कारण अंग्रेजों ने अराकान प्रांत को उसके हाल पर छोड़कर जाने का फैसला कर लिया. बस फिर क्या था, रोहिंग्या मुस्लिमों को मानो मनमुराद स्थिति मिल गई. अंग्रेजों की अनुपस्थिति ने इस क्षेत्र में इतिहास के सबसे भीषण दंगे फैला दिए. रोहिंग्या मुस्लिमों और स्थानीय रखिने बौद्धों के बीच लगभग छः माह तक चले दंगों में हजारों लोग मारे गए. मार्च 1942 में रोहिंग्या मुस्लिमों ने लगभग बीस हजार बौद्धों का क़त्ल कर दिया था (शायद ये बात अमेरिका के इस्लामिक हमलावर अब्दुल रज्जाक को पता भी नहीं होगी).
जब जापानियों ने बर्मा के बड़े इलाके पर कब्ज़ा कर लिया तब उन्होंने न केवल रोहिंग्या मुस्लिमों पर बल्कि स्थानीय बर्मी (जिसमें रखीने भी शामिल थे) पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. इसलिए एक बार फिर लगभग 22,000 रोहिंग्या परिवारों ने बंगाल में शरण ली. अंग्रेजों ने मौका साधा और रोहिंग्या मुसलमानों को जापानियों के खिलाफ खड़ा करने के लिए उन्होंने इन्हें हथियार दिए. लेकिन रोहिंग्या मुस्लिम जापानियों से लड़ने की बजाय फिर से रखीने बौद्धों पर टूट पड़े और इस बार उन्होंने सैकड़ों बौद्ध आश्रमों तथा पगोड़ा को तोड़फोड़ दिया, स्त्रियों से बलात्कार किया. ज़ाहिर है कि रोहिंग्याओं के प्रति बौद्धों के मन में क्रोध और घृणा बढ़ती ही जा रही थी. यह घृणा उस समय और बढ़ गई, जब 1940 में रोहिंग्या मुस्लिमों ने मोहम्मद अली जिन्ना की माँग का समर्थन करते हुए, अराकान प्रांत को पूर्वी पाकिस्तान से मिलाने की माँग रख दी. हालाँकि खुद जिन्ना ने रोहिंग्या मुस्लिमों को यह कहते हुए झिडक दिया कि वे फिलहाल पाकिस्तान पर ध्यान देना चाहते हैं और बर्मा के अंदरूनी मामले में दखल देने में उनकी रूचि नहीं है.
इससे भी रोहिंग्या मुस्लिमों को कोई खास फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने 1948 में अराकान प्रांत में “मुजाहिद पार्टी” का गठन कर लिया, जिसका एकमात्र उद्देश्य अराकान प्रांत को बंगाल से मिलाकर एक इस्लामिक राज्य बनाना. अभी भी रखीने प्रांत के बौद्धों, भिक्षुओं एवं बौद्ध मंदिरों पर उनके हमले जारी रहते थे. रोहिंग्या मुस्लिमों के आतंक का खात्मा होना उस समय शुरू हुआ, जब बर्मा की सेना की कमान जनरल ने विन ने संभाली. ने विन ने 1962 में फ़ौजी शासन से सत्ता हथियाई और आते ही रोहिंग्या मुस्लिमों को खदेड़ना और मारना शुरू किया. इसके बाद रोहिंग्या मुस्लिमों ने बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान, जो 1971 में बांग्लादेश बना) में शरण लेना शुरू कर दिया. समय ने फिर पलटी खाई, 1971 के शुरुआती दिनों में पाकिस्तानी सेना ने बंगाली भाषा बोलने वाले लोगों पर बेहद ज़ुल्म करना शुरू कर दिया, इसमें रोहिंग्या मुस्लिम भी चपेट में आए. जिन्ना पहले ही इन मुसलमानों से अपना पल्ला झाड़ चुके थे, इसलिए पाकिस्तानी सेना ने भी इनके साथ कोई नरमी नहीं बरती और इन पर जमकर अत्याचार किए. 1971 से 1973 के बीच लगभग साढ़े सात लाख रोहिंग्या मुस्लिम, बर्मा की सीमा में घुसपैठ कर गए. बर्मा के बौद्ध भिक्षु और जनता इन मुस्लिमों से पहले ही परेशान थी, वहाँ की स्थानीय जनता के दबाव में जनरल ने विन ने 1978 में दो लाख से अधिक रोहिंग्या मुस्लिमों को मार-मारकर जबरन बांग्लादेश में धकेल दिया. बांग्लादेश ने इसका पुरज़ोर विरोध किया, क्योंकि वास्तव में उपद्रवी और हिंसक रोहिंग्या मुस्लिमों को कोई नहीं चाहता था, न बांग्लादेश न पाकिस्तान. बांग्लादेश के विरोध के पश्चात संयुक्त राष्ट्र इस मामले में कूदा और उसने बर्मा पर दबाव डालकर इन मुस्लिमों को वापस लेने के लिए कहा. जनरल ने विन को संयुक्त राष्ट्र के दबाव और प्रतिबंधों के आगे झुकना पड़ा. लेकिन वे इन मुस्लिमों की हकीकत जानते थे, इसलिए उन्होंने ऐसा क़ानून बनाया कि रोहिंग्या मुस्लिमों को बर्मा कीं नागरिकता नहीं मिल सके. इसके बावजूद रोहिंग्या मुस्लिमों ने न सुधरने की कसम खा रखी थी. इन्होंने शांतिप्रिय बौद्धों पर हमले जारी रखे, सैकड़ों बौद्ध भिक्षुओं को मारा और “रोहिंग्या सॉलिडेरिटी ऑर्गनाइजेशन नामक आतंकी संगठन भी बना लिया. अंततः शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले बौद्धों का धैर्य जवाब दे गया और बर्मा की सेना के साथ मिलकर पिछले कुछ वर्षों में रोहिंग्या मुस्लिमों पर ऐसा करारा जवाबी प्रहार किया गया कि लाखों की संख्या में रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार छोड़कर बांग्लादेश, असम, त्रिपुरा और अब दिल्ली और कश्मीर तक शरणार्थी बनकर पहुँच चुके हैं.
कहने का तात्पर्य यह है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया और तथाकथित सेकुलर बौद्धिक समुदाय, रोहिंग्या मुस्लिमों को लेकर जैसी छाती कूट रहा है, उन्हें “पीड़ित”, “शोषित” और “उपेक्षित” बता रहा है, वे उतने सीधे-भोले-मासूम भी नहीं हैं. उन्होंने इतिहास में जैसा बर्ताव किया है, उसकी वैसी ही भरपाई कर रहे हैं. अमेरिका में जिस हमलावर ने भीड़ पर चाकुओं से हमला किया, उसे इतिहास से कोई लेना-देना नहीं था, वह तो केवल मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाली बौद्ध भिक्षुओं की कथित अत्याचारी कहानियों से प्रेरित था. दूसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि “आतंकी माइंडसेट” वाले इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सीमाएँ अथवा नागरिकता कोई मायने नहीं रखतीं. सोमालियाई मूल के, पाकिस्तान में आठ वर्ष बिता चुके लेकिन अब अमेरिका में सेटल हो चुके अब्दुल रज्जाक के लिए म्यांमार के “मुसलमानों” का दुःख उसे अपना लगता है. बर्मा में वर्षों बिता चुके, वहाँ के मूल निवासियों से घुलमिल चुके रोहिंग्या मुस्लिमों को पूर्वी पाकिस्तान और इस्लामिक राज्य अधिक प्यारा लगता है. यह वैसा ही है, जैसे डेनमार्क अथवा फ्रांस में बनाए गए किसी कार्टून को लेकर इधर सुदूर भारत के जयपुर या कटक में मुसलमान दंगा मचाने लगें. इस “इस्लामी मानसिकता” को समझने और इसका “सही उपचार” करने की जरूरत है.
संक्षेप में बात समझ लीजिए कि तथाकथित उदारवादी प्रेस अथवा स्वयं को दयालु अथवा सताए हुए(??? हा हा हा हा) मुस्लिमों का प्रतिनिधि बताने वाले सेकुलर बुद्धिजीवियों की बातों एवं मिथ्या प्रचार पर अधिक ध्यान देने की जरूरत नहीं है. “मानवाधिकार हनन”, “गरीब और मासूम रोहिंग्या” जैसे शब्दों से आपको भरमाने की भरपूर कोशिश की जाएगी. परन्तु म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिमों के साथ जो हो रहा है, वह ना कोई नई बात है और ना ही अनोखी. उन्होंने जो किया है, वही उन्हें वापस मिल रहा है.
हमारे लिए चिंता की बात केवल यह है, कि कुछ हजार रोहिंग्या मुस्लिम दिल्ली में भी आन बसे हैं, जो यहाँ पहले से अड्डा जमाए बैठे लाखों बांग्लादेशियों के साथ मिलकर किसी भी आपात स्थिति में उत्पात मचा सकते हैं… सूचनाएँ हैं कि कुछ रोहिंग्या मुस्लिम कश्मीर में भी जा बसे हैं… यानी कोढ़ में खाज. हमें भी बहुत ध्यान रखना होगा और सरकार को भी बहुत सतर्कता बरतनी होगी ।