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अंग्रेजी ने बनाए 'नए वंचित' और 'नए ब्राह्मण'

7 अक्टूबर 2017

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मधु पूर्णिमा किश्वर असमानता, भेदभाव और पिछड़ेपन के हल के रूप में आरक्षण पर चल रही मौजूदा बहस कुल जमा एक बिन्दू पर सिमटा दी गई है-क्या शैक्षिक आरक्षण जाति आधारित होना चाहिए अथवा उसमें आर्थिक पक्ष भी शामिल किया जाना चाहिए? इन दोनों विकल्पों के पीछे एक गलत धारणा यह है कि भारत में किसी के लाभ से वंचित होने के दो ही आयाम हैं-एक, ऐसी जाति या जनजाति में पैदा होना जो सरकारी कागजों में पिछड़ी या वंचित, के रूप में दर्ज है, अथवा#और दूसरा एक गरीब परिवार में पैदा होना। इस पूरे मामले में हम आधुनिक भारत में महत्वपूर्ण अवसरों से वंचित होने अथवा किए जाने के पीछे विशेष पहलू को अनदेखा कर रहे हैं। आज हमारे समाज में विशेष शैक्षिक संस्थानों तक किसी व्यक्ति की पहुंच को निर्धारित करने वाला, और इस तरह आर्थिक और सामाजिक उन्नति का महत्वपूर्ण रास्ता, एकमात्र प्रभावी आयाम है अंग्रेजी भाषा को सुगमता से प्रयोग कर पाने की उसकी काबिलियत। ऊंचे रसूख वाले सामाजिक-आर्थिक दायरों से जुड़ने का यही एक करिश्माई तरीका है। केवल अंग्रेजी भाषा के जरिए ही भारत की आधुनिक अर्थव्यवस्था को चलाकर ब्रिटिश शासन में पनपे और आज सत्ता में बैठे मठाधीशों ने शेष समाज पर अपना सिक्का जमाए रखने कि लिए सुनिश्चित कर लिया है कि ज्यादातर भारतीय अंग्रेजी में महारथ हासिल न कर पाए जिसके परिणामस्वरूप फर्राटे से अंग्रेजी प्रयोग कर पाने वालों का हमेशा से अकाल ही रहा है। अंग्रेजी का थोड़े-बहुत ज्ञान होने पर भी कोई व्यक्ति रोजगार की प्रतियोगिता में खास लाभ पाता है जबकि वे चंद लोग जिनकी अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ है, वे शाही खानदान के लोगों जैसा बर्ताव करते हैं और उनके साथ भी शाही व्यवहार किया जाता है। उनके लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में ऊंचे वेतन के पसंदीदा रोजगार उपलब्ध रहते हैं, चाहे उनकी कैसी भी योग्यता, जाति या वर्ग हो। बाकी सबब जिनके पास यह कौशल नहीं होता, उन्हें नाकारा महसूस कराया जाता है, तब वे अपने पर से भरोसा ही खो बैठते हैं। यह जादुई कौशल हासिल करने में असफल रहने वाले न तो किसी उच्च शिक्षण संस्थान की प्रवेश परीक्षा पास कर सकते हैं, न ही कोई इज्जतदार रोजगार पा सकते हैं। कोई लड़का या लड़की मराठी, हिन्दी या असमिया की अच्छी विद्वान ही क्यों न हो, उसे महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश या असम की भाषायी सीमाओं के भीतर भी चपरासी से बेहतर काम के लिए उपयुक्त नहीं माना जाएगा। कोई व्यक्ति भले वनस्पति विज्ञान या भारतीय शिल्पकला या खगोल विज्ञान का गहन जानकार हो सकता है पर इससे वह किसी बड़े कालेज, महाविद्यालय में इन्हीं विषयों में दाखिला नहीं पा सकता। विशेषाधिकार का पासपोर्ट आखिर ऐसा क्यों है कि भेदभाव और खुद को कुछ खास मानने की सोच के इतने बेढब फैलाव को देखकर भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है जबकि इसके खिलाफ बढ़-चढ़कर भाषण देने वालों की बातों में हमेशा से ही, जाति और वर्ग प्रमुखता से सुनाई देते रहे हैं? जातिगत दुरावों के आम चलन के बावजूद हमें सरकारी और निजी क्षेत्र में ऊंचे पदों पर अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों के बैठे होने के अनेक उदाहरण दिख जाएंगे। लेकिन हमें यह कहीं सुनने को नहीं मिलेगा कि फलां फलां व्यक्ति ने अंग्रेजी में एक खास महारथ हासिल किए बिना किसी आई.आई.टी. या किसी अन्य ऊंचे दर्जे के मेडिकल, इंजीनियरिंग या प्रबंधन संस्थान में दाखिला पाया हो अथवा यह भी नहीं सुनाई देगा कि हमारी अर्थव्यवस्था के किसी आधुनिक क्षेत्र- सरकारी या निजी- में ऊंचा ओहदा पाया हो। अगर आपको मेडिकल स्कूल में सफलता चाहिए तो आपको अंग्रेजी आनी ही चाहिए-चाहे आप गांव में डाक्टरी करना चाहें या शहरी भारत में, जहां आपके बहुत कम मरीज शायद अंग्रेजी बोल पाएं। अगर आप वास्तुकार का प्रशिक्षण चाहते हैं तो अंग्रेजी की जानकारी होनी जरूरी है, यहां तक कि स्कूल आफ आर्किटेक्चर में दाखिले की अर्जी भरने के लिए भी। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते उन्हें ओछा माना जाता है जो आधुनिक समाज या अर्थव्यवस्था के खांचे में प्रवेश के लायक नहीं हैं। एक शैतानी विभेद भारतभर में अंग्रेजी बोलने वाला यह विशिष्ट वर्ग नौकरशाही, राजनीति, सशस्त्र बलों, उद्योग-व्यवसायों और अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में ऊंचे ओहदों पर बैठा है। इसी कारण यह बहुत छोटा सा विशिष्ट वर्ग ही ज्यादातर मुद्दों पर, चाहे सामाजिक हों, विधायी, रक्षानीति, कृषि नीति, शैक्षिक हों या चुनाव सुधार से जुड़े, हर तरह की बौध्दिक चर्चा-वार्ता पर छाया रहता है। वे ऐसा दिखाते हैं मानो राष्ट्रीय महत्व के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण ही समूचे देश की सोच की झलक है और क्षेत्रीय भाषाओं के विशिष्टजन एक संकुचित जातिगत और बांटने वाली सोच दर्शाते हैं। वे अंग्रेजी को आधुनिकता की भाषा के रूप में पेश करते हैं और जिनकी जड़ें स्थानीय भाषाओं में हैं उन्हें पूर्व-आधुनिक, परम्परावादी, प्रगतिविरोधी, यहां तक कि निराशावादी दृष्टिकोण के बचे-खुचे प्रतिनिधियों की तरह पेश किया जाता है। वे चाहे कितना ही खुद को राष्ट्रवादी दिखाते हों, भारत के आधुनिकीकरण के तमाम प्रकल्पों में उसी औपनिवेशिक भाषा के प्रयोग पर आमदा रहते हैं और खुद को राष्ट्रीय एकता और संस्कृति के रखवाले, और तो और, बौध्दिक प्रखरता और प्रगति के एकमात्र पुरोधा घोषित करते हैं। वे जनता के लिए एकमात्र भूमिका तय करते हैं कि वह प्रगति और आधुनिकता के उनके दृष्टिकोण को बिना चूं-चपड़ किए स्वीकार करे, जिसमें जनता की अपनी सांस्कृतिक विरासत का बड़ी मात्रा में क्षरण भी जुड़ा होता है। अंग्रेजीदां वर्ग का प्रभुत्व चूंकि केन्द्रीकृत राज्य ढांचे को बनाए रखने पर आधारित है, अत: राजनीतिक विकेन्द्रीकरण के सभी अभियानों को राष्ट्रीय एकता पर खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बहरहाल, चूंकि इस विशिष्ट वर्ग की भारतीय समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ें नहीं होतीं, उनकी जीवनशैली तथा इच्छाएं पश्चिमी दुनिया की तरफ झुकी रहती हैं, इस कारण हमारे जैसे विविध और जटिल समाज पर शासन करने की योग्यता उनमें नहीं होती। इसी वजह से जो कानून वे बनाते हैं, उनका पालन उल्लंघन करके होता है; जिस सरकार के तंत्र पर वे अधिष्ठित रहते हैं, वह भ्रष्टाचार, अयोग्यता और संकटों से भरा रहता है। चूंकि सामाजिक सुधार के उनके जुमले एक विदेशी भाषा में गुंथे रहते हैं और एक वैदेशिक ढांचे का प्रयोग करते हैं, सामाजिक सुधार के उनके सुझाए कदम आमतौर पर प्रतिरोध पैदा करते हैं या हद से हद कागज तक सीमति रहते हैं। 'नए ब्राह्मण' भारत की आजादी के बाद भी व्यावसायिक और सरकारी दफ्तरों की जरूरत के लिए विशिष्ट शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को बरकरार रखकर हमने अपने औपनिवेशिक आकाओं द्वारा जान-बूझकर पैदा की गई अंग्रेजी पढ़े-लिखे और शेष समाज के बीच खाई को और बढ़ाने की पक्की व्यवस्था कर ली है। यह प्रवृत्ति आगे चलकर हमारे अधिकांश लोगों की बुध्दि, आत्मा और स्वाभिमान को नष्ट करने जैसे खतरनाक आयाम ले चुकी है। अंग्रेजी आधारित शिक्षा जो खासियत उपलब्ध कराती है वह अधिकांशत: जाति और वर्ग के परम्परागत भेदों को भी पीछे छोड़ जाती है। पारम्परिक ब्राह्मण उच्च बौध्दिक ज्ञान के अर्जन में, देवी-देवताओं को समर्पित मंत्रोंच्चारण और कुछ धार्मिक अनुष्ठानों में मुख्यत: संस्कृत का प्रयोग करते थे। 'नए ब्राह्मण' अपने कुत्तों और नवजात शिशुओं से बात करते समय भी अंग्रेजी बोलते हैं। वे यही चाहते हैं कि उनके बच्चे अपनी नर्सरी की कविताएं अंग्रेजी में सीखें। स्थानीय भाषा का प्रयोग तो वे तभी करते हैं जब घर के नौकर-चाकरों को आदेश देना होता है। पुराने ब्राह्मण वर्ग की ताकत को प्रभावी रूप से उन महिलाओं और कथित छोटी जात के लोगों द्वारा चलाए विभिन्न भक्ति आंदोलनों से चुनौती मिली जो संस्कृतवादी वर्ग के प्रभुत्व को नकार कर अपने इष्ट से अपनी मातृभाषा में ही संवाद पर जोर देते हैं। आज उन्हीं जातियों के उत्तराधिकारी अंग्रेजी भाषा के प्रति इतना आकर्षण रखने लगे हैं कि उन्होंने भी इसके सामने दण्डवत करना सीख लिया है। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्यों कि वे देख रहे हैं कि अगर आप एक खास तरीके और अंदाज में अंग्रेजी बोल सकते हैं तो आपको विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक वर्ग के दायरे में तुरन्त प्रवेश मिलता है। दूसरी ओर भले ही आप किसी ऊंची जात से न आते हों, अगर अंग्रेजी नहीं बोल सकते तो आपके लिए सभी दरवाजे सदा बंद ही रहते हैं। उन्हें तो ओछे प्राणियों जैसा मान लिया जाता है। बहुत कम ऐसा होता है कि लोग मुझसे मेरी जाति के बारे में पूछते हैं। वे सीधे-सीधे मानकर चलते है कि चूंकि मैं पब्लिक स्कूल के अंदाज में अंग्रेजी में बोलती हूं तो मैं ऊंची जाति से ही हूं। यह विडम्बना ही है कि अंग्रेजी के बढ़ते बोलबाले द्वारा हो जा रहे नुकसान की ओर ध्यान खींचने के लिए मुझे अंग्रेजी में लिखना पड़ रहा है। अगर मैं यही चीज किसी स्थानीय भाषा में लिखती और अंग्रेजी में एक खास स्तर की योग्यता नहीं रखती तो मेरी यह आलोचना किसी अयोग्य व्यक्ति कीर् ईष्या से उपजी अभिव्यक्ति कहकर नकार दी गई होती। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी जाति कितनी ऊंची है, कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके परिवार के पास जमीन कितनी है, अगर आपके गांव में पड़ोस में कहीं अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं है, तो आपके बच्चे रोजगार के बाजार में सबसे पिछले छोर पर होंगे। यहीं कारण है कि पंजाब, उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के जाटों के बेटे, जो बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक हैं और इन प्रदेशों की राजनीति में बड़े वर्गों से जुड़े हैं, अगर उनके परिवार गांव में ही रह रहे हैं और वहां अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं हैं तो वे बस-कंडक्टर या ड्राइवर बनकर रह जाते हैं। यही कारण है कि गरीबी के मारे अपने गांवों, जहां अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं हैं, से शहरों में आने के बाद कई ब्राह्मण गलियों में सामान बेचते, पान-बीड़ी की दुकान लगाते, सब्जी या और कोई छोटी-मोटी चीजें बेचते हुए मिल जाते हैं। इससे उलट, रांची जैसे कुछ जिलों में, जहां मिशनरी गांव और शहरों में चलने वाले सरकारी स्कूलों से बेहतर स्कूल चलाते हैं, रहने वाले ईसाई लड़के-लड़कियों के पास उन ऊंची जात के युवा लड़के-लड़कियों की तुलना में बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार के अवसर होते हैं। कोई व्यक्ति जो भले ही किसी जाति में जन्मा हो, अगर मॉडर्न स्कूल या सेंट स्टीफन्स कालेज में पढ़ा-लिखा है तो आसानी से ऑल इंडिया सुपर कास्ट के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है और इस तरह उसके पास केवल जन्म से अपनी ऊंची जात की मुख्य योग्यता रखने वालों की तुलना में कई अधिक अवसर रहते हैं। ज्यादातर पढ़े-लिखे लोगों ने इस स्थिति को अब 'साधारण' मान लिया है और उनके लिए यह चिन्ता या चेतावनी जैसी बात नहीं है। बहरहाल, इस परिस्थिति की बुराई और अन्याय तब स्पष्ट दिखता है जब हम अपने आस-पास देखते हैं और पाते हैं कि दुनिया में ऐसे देश ज्यादा नहीं हैं जहां लोगों को एक विदेशी भाषा में शिक्षा न पाने के कारण अपनी ही मातृभूमि में इतने अधिक दुराव और अयोग्यता के आरोपों को झेलना पड़ता है। अंग्रेजी के ताले में बंद भारत का विकास मधु पूर्णिमा किश्वर संपादक, मानुषी यह सच है कि आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजी भाषा की महत्ता थोड़ी मात्रा में ही सही, हर देश में बढ़ गयी है। अधिकांश देशों में अंग्रेजी शेष दुनिया के देशों के साथ संवाद के लिए प्रयोग की जाती है, विशेषकर अन्तरराष्ट्रीय लेन-देन के मामलों में। हालांकि कुछ गिने-चुने देश ही अंग्रेजी को आन्तरिक प्रशासन, शिक्षा, तकनीकी शिक्षा या व्यावसायिक गतिविधियां चलाने के लिए प्रयोग करते हैं। चीन, कोरिया, थाइलैण्ड, जापान, फ्रांस, तुर्की, ईरान, चिली या जर्मनी आदि देशों में कोई व्यक्ति बिना अंग्रेजी जाने भी अधिवक्ता, चिकित्सक, वास्तुविद् या अभियन्ता बन सकता है। इसके विपरीत भारत में बिना अंग्रेजी जाने कोई व्यक्ति किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुंचने के योग्य ही नहीं माना जाता। जहां दुनिया के अधिकांश देशों में बिना स्थानीय भाषा के ज्ञान के किसी व्यक्ति को किसी सुयोग्य पद पर बैठने के योग्य नहीं समझा जाता, वहीं भारत सम्भवत: दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां ऊंचे पदों पर बैठे उच्च शिक्षा प्राप्त लोग, जिन्होंने देश में रहते हुए ही शिक्षा तथा पद पाया है, वे यह बताना सम्मानजनक समझते हैं कि उन्हें अपनी मातृभाषा नहीं आती। वह मातृभाषा हिन्दी हो, तमिल, तेलुगू अथवा अन्य कोई, वे दस वाक्य भी अंग्रेजी के शब्दों और लोकोक्तियों के प्रयोग किए बिना नहीं बोल सकते। बहुत से लोग यह कहकर इसका प्रतिवाद करेंगे कि- 1. अंग्रेजी भाषा सफलता की कुंजी नहीं है, इसके विपरीत अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग ऊंचे जातियों से आता है। और अंग्रेजी का बढ़ता महत्व इन्हीं ऊंची जातियों और इनके ऊंचे पदों के कारण है। अथवा 2. अंग्रेजी भाषा आसानी से सीखी जा सकती है क्योंकि इसके सीखने की कोई क्षेत्रीय सीमा नहीं है। लेकिन यह कहना पूरी तरह गलत है। पिछली एक शताब्दी से हमारी शिक्षा पध्दति पर अंग्रेजी की प्रभावी पकड़ होने के बावजूद बहुत छोटी-सी संख्या ऐसी है, जो प्रभावी एवं सही तरीके से यह भाषा बोल सकने में समर्थ है। यहां तक कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग की भी स्थिति बहुत सन्तोषजनक नहीं है। हमारे अधिकांश परास्नातक और शोध उपाधि प्राप्त लोग अंग्रेजी में सही तरीके से तीन वाक्य भी नहीं लिख सकते, यद्यपि उन्होंने अपनी सारी परीक्षा अंग्रेजी में ही दी होती है। फिर भी वे अंग्रेजी के पीछे भागते हैं, क्योंकि अंग्रेजी का दिखावा भारतीय भाषाओं की तुलना में ज्यादा प्रभावी है। यही कारण है कि आज देश के लोग मध्य एवं निम्न मध्य वर्ग अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा भी अंग्रेजी में दिलाने के लिए सभी प्रकार के सामाजिक व आर्थिक त्याग करने को तैयार हैं। वस्तुत: अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति भारतीय जनता के बढ़ते मोह के पीछे गैरअंग्रेजी माध्यम स्कूलों की गुणवत्ताहीन शिक्षा भी कम जिम्मेदार नहीं है। स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करना आज निम्न छोटे स्तर की बात मानी जाने लगी है। यदि आप अंग्रेजी भाषा न जानने के कारण अशिक्षित माने जा रहे हैं तो आपके पास कोई दूसरा चारा भी नहीं है, सिवाय इसके कि आप भी अंग्रेजी सीखें और वह भी अपनी सभी अन्य आवश्यक योग्यताओं की कीमत पर। गैर अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की तुलना में अंग्रेजी स्कूल आज अच्छे माने जाते हैं और यह भी कि जो इन स्कूलों में पढ़ते हैं उन्हें अधिक सभ्य माना जाता है। यह बात इस तथ्य के बावजूद मानी जा रही है कि अधिकांश अंग्रेजी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता बहुत निम्न स्तर की है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो इन स्कूलों में पढ़े-लिखे अधिकांश छात्र अखबारों की रपट को समझने की योग्यता तक नहीं रखते। अंग्रेजी की गम्भीर पुस्तकों को पढ़ने की बात छोड़ दें तो भी वे अंग्रेजी से जूझने में अपनी सारी शक्ति खर्च करते हैं और जानबूझकर अपनी मातृभाषा के ज्ञान के प्रति लापरवाही बरतते हैं। और इस प्रक्रिया में उन्हें अंग्रेजी और अपनी मातृभाषा की भ्रमित खिचड़ी के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। इसी के साथ उनकी सोचने की क्षमता पर भी बहुत गंभीर असर पड़ता है क्योंकि भाषा शब्दों को समझने, विचारों को गुनने और प्रभावी संवाद की अवधारणाओं के प्रयोग का प्राथमिक साधन है। किसी व्यक्ति की सोचने की क्षमता बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाती है यदि वह कम से कम एक भाषा का अच्छा जानकार नहीं है। यही एक प्रमुख कारण है जिसके कारण हमारे देश में बड़ी संख्या में पाठशालाओं व महाविद्यालयों में अच्छे अध्यापकों की कमी है। जो अच्छी अंग्रेजी जानते हैं, साधारणत: वे ऊंचे व ज्यादा वेतन वाले पदों पर पहुंच जाते हैं। जो थोड़े-बहुत अध्यापन क्षेत्र चुनते भी हैं तो वे बड़े विद्यालयों व विश्वविद्यालयों का रुख कर लेते हैं। दूसरी तरफ जो हिन्दी माध्यम या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा के विद्यालयों में पढ़े-लिखे होते हैं वे अंग्रेजी ज्ञान के अभाव में यहां तक नहीं पहुंच पाते। अंग्रेजी के वर्चस्व ने जो दुष्परिणाम पैदा किए हैं उसे हमें साहस के साथ स्वीकार करना चाहिए। वे जिन्होंने भारतीय भाषाओं में अध्ययन किया है और जिन्हें अंग्रेजी की सतही जानकारी है, उनकी विभिन्न विषयों से सम्बन्धित ज्ञान व सूचनाओं तक पहुंच नहीं हो पाती। कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे हमारे अंग्रेजी शिक्षित लोगों की संवेदनहीनता और अहंकार के कारण जन्मे अन्याय और विसंगतियों पर प्रकाश पड़ता है। देश में चिकित्सा, विज्ञान, तकनीकी या सामाजिक विज्ञान विषयक पत्रिकाएं किसी भारतीय भाषा में नहीं हैं। सभी वैज्ञानिक अपने निष्कर्ष अंग्रेजी में ही प्रकाशित करते हैं तथा सभी तकनीकी संस्थान अंग्रेजी में पढ़ाते हैं। मानो अंग्रेजी ही विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के लिए सहज व स्वीकार्य भाषा है। लेकिन थाइलैण्ड, कोरिया, चीन व जापान में ऐसा देखने को नहीं मिलेगा और न ही जर्मनी अथवा फ्रांस में।देश के सभी वास्तु तकनीक विद्यालयों में शिक्षण और परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। यद्यपि भारत की अपनी सुविकसित व विशेष वास्तु परम्परा रही है।यह असम्भव नहीं तो कठिन जरूर होगा कि हम अपने नल बनाने वाले, बिजली मिस्त्री तथा भवन बनाने वाले मिस्त्रियों के शिक्षण के लिए हिन्दी, मराठी व तमिल में कोई शिक्षण सामग्री तैयार कर सकें। इसी का परिणाम है कि जो लोग इन व्यवसायों को चुनते हैं उनका कौशल व ज्ञान आधा-अधूरा ही रहता है, क्योंकि उनके पास दूसरों के काम निरीक्षण अथवा उनसे बातचीत कर सीखने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।हमारे वकील अंग्रेजी में ही उनकी ओर से अंग्रेजी में याचिका तैयार करते हैं, जो अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं जानते। हमारे उच्च न्यायालयों की कार्यवाही तथा न्यायाधीशों के निर्णय भी अंग्रेजी में ही दिये जाते हैं।भारत ही एक ऐसा देश है जहां के प्रसिध्द इतिहासकार देश का इतिहास भी अंग्रेजी में लिखते हैं। सुप्रसिध्द समाजशास्त्री भी अपने सामाजिक अध्ययन के विवरण अंग्रेजी में ही प्रकाशित करते हैं। जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं उनके लिए यह नया ज्ञान पहुंच से परे है। आज भी हम अपने इतिहास को जानने के लिए औपनिवेशिक प्रशासनों, विदेशियों तथा विदेशी यात्रियों द्वारा लिखित विवरणों पर निर्भर रहते हैं। भारत के प्राचीन व धार्मिक ग्रन्थों का अनुवाद और उनका गहन अध्ययन भी विदेशी विद्वानों ने ही किया है परिणामत: उनकी पूर्वाग्रहपूर्ण व्याख्या तथा उनकी समालोचना को ही हम सत्य मानने को मजबूर हैं। हम अपनी सफलता तथा विफलता, अपनी समस्याएं और अपनी प्रेरणाओं को समझने के लिए भी बाहरी लोगों के मोहताज हैं। हम उसे ही मानते व बताते हैं जिन्हें पश्चिम ने मान्यता दी है। हम लोग अपनी सफलताओं, विफलताओं, समस्याओं की रूपरेखा और यहां तक कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को भी बाहरी व्यक्ति की आंखों से देखने लगे हैं। हम उसकी उपेक्षा करते हैं जिसको पश्चिम ने अस्वीकृत किया था या तिरस्कृत कर दिया है। आज यदि किसी अंग्रेजी शिक्षित संभ्रान्त व्यक्ति से आप किन्हीं तीन अच्छे भारतीय साहित्यिक लेखकों के नाम पूछें तो वह अपना पसंदीदा नाम विक्रम सेठ, शशि थरुर या अमिताभ घोष के नाम बताएगा। उनमें से बहुत कम ही ओ.वी. विजयन, जो कि मलयालम के एक बहुत ही अच्छे लेखक थे या विजय तेन्दुलकर, जिन्होंने मराठी में कुछ बहुत ही अच्छे नाटक लिखे का नाम लेंगे, क्यों? क्योंकि इन लेखकों को हम उतना महत्वपूर्ण नहीं समझते जितना कि उस लेखक को जो बुकर पुरस्कार जीत चुके हैं। भारत में अंग्रेजी कभी भी जन शिक्षा का माध्यम नहीं हो सकती है। अंग्रेजी में निपुणता बहुतों के लिए अप्राप्य है तथा एक विशाल जनसमूह को असामान्य प्रतिस्पर्धा की स्थिति प्रदान करती है। प्रशासन व संभ्रान्त पेशों की भाषा के रूप में भारतीयों पर अंग्रेजी थोपे जाने के डेढ़ सौ साल बीत जाने पर भी, हमारी आबादी के एक प्रतिशत लोग भी इसे प्रथम या द्वितीय भाषा के रूप में प्रयोग नहीं करते। यहां तक कि शिक्षित भारतीयों में भी अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है। भारत में लगभग 45 प्रतिशत लोग हिन्दी भाषी राज्यों से आते हैं जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, कश्मीर, असम, पंजाब, बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा में एक बड़ी संख्या में लोग हिन्दी का व्यवहारिक ज्ञान रखते हैं। यह सिर्फ संयोग ही है कि भारत के सभी राज्यों में से केवल उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ही ऐसे हैं, जो सहजता से अपने राज्य की भाषा नहीं बोल सकते। अपने पिता श्री बीजू पटनायक, जो उड़िया संस्कृति को गहराई से रचे बसे थे, की व्यापक मन छवि का लाभ उन्हें मिला। राजनीतिक महत्वाकांक्षा पनपने के बाद सोनिया और राहुल गांधी दोनों को अथक प्रयासों से हिन्दी सीखनी पड़ी है। जबकि भारत में अपने शुरुआती 30 सालों में सोनिया गांधी ने न स्वयं और न ही अपने बच्चों को कभी प्रयत्नपूर्वक हिन्दी सीखने व सिखाने की परवाह की। क्षेत्रीय भाषाओं की राजनीतिक शक्ति और राजनीतिक क्षत्रप इस बात के गवाह हैं कि कोई व्यक्ति, जो गहराई से अपने चुनाव क्षेत्र की भाषा और संस्कृति से नहीं जुड़ा है, के चुनाव जीतने की सम्भावना कम ही होती है, भले ही वह कितना ही योग्य क्यों न हो। जनता को जब अपने वोट देने का अवसर मिलता है तो इसमें भाषा का भी अप्रत्यक्ष संकेत रहता है। जो भी हो, न्यायपालिका, नौकरशाही तथा संभ्रान्त पेशों में आज भी वही लोग प्रभावी हैं, जो देश की भाषाओं में 5 वाक्य नहीं लिख सकते और ऐसा इसलिए है, क्योंकि जनता के पास इन क्षेत्रों में अपनी भाषा की पसंद बताने की कोई ताकत नहीं है, जैसे वह वोट के द्वारा राजनीति के क्षेत्र में रखती है। इसका मतलब यह भी है कि हमारी राजनीति में उन लोगों का प्रभुत्व हो चुका है जो गुणवत्तापरक शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये हैं। इसी के साथ हमारे बहुत से चुने हुए प्रतिनिधि उस पद के अयोग्य होते हैं जिसके लिए वे चुने जाते हैं जैसे कि कानून निर्माण की बात ही ले लें। इसलिए चुने हुए प्रतिनिधियों की जगह नौकरशाह और किराये के कानूनविद् ही अधिकांशत: कानूनों को लिखने, उसकी अवधारणा निर्मित करते हैं। अतएव हमारे राजनीतिक संस्थानों के प्रतिमानों और उपलब्धियों का क्षरण हमारी दोहरी भाषा नीति का ही परिणाम है। इसी के कारण देश की सामान्य जनता स्तरहीन शिक्षा पाने को विवश है।

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यूँ तो सब अपने अपने देश से प्रेम करते हैं। विश्व में बहुत कम लोग होंगे जिन्हें अपने देश,अपनी सभ्यता,अपनी संस्कृति से प्रेम न हो। आप नजर उठा कर देखेंगे तो उनका देशप्रेम देखने को मिल जायेगा जैसे कभी आप जापान के बारे में पता करें तो मालूम होगा कि वे इतने राष्ट्रवादी है कि दूसरे देश से आये फल तक नहीं खा

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भारत की भाषाओं का ऐसा अपमान..... वो भी भारत में...! क्यों...? सोचो...!

15 अगस्त 2017
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एक भाषा हमारे राष्ट्र को कैसे अवनति की ओर धकेल रही है इसका नूतन दृश्य रामजन्मभूमि विवाद है। जिसे शीघ्र सुलझाने के लिए नियमित कार्यवाही का अनुरोध किया गया था उसे पहले ही दिन तीन माह के लिए आगे बडा दिया गया। मात्र इसलिए क्यों कि विषय से सम्बन्धित पुरालेख अंग्रेजी में नहीं थे वो सभी स्थानीय भाषाओं में

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खता तो जब हो जब हाल ऐ दिल किसी से कहें...

18 अगस्त 2017
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किसी को चाहते रहना..... कोई.... खता... तो नहीं.....

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गीतों और नारों में राष्ट्रनिष्ठा खोजता भारत....!

19 अगस्त 2017
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हमारी गति भी अजीब हो रही है। जहाँ भारत के हर अंग में अंग्रेजीयत भरी है... गुलामी भरी है..... वहाँ हम नारों में राष्ट्र निष्ठा खोज रहे हैं... राष्ट्र गीत में राष्ट्रनिष्ठा खोज रहे हैं... राष्ट्रगान में राष्ट्रनिष्ठा खोज रहे हैं... जहाँ अंग्रेजी को अपनाने के लिए कानून बने हुये हैं जहाँ अंग्रेजीयत को म

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स्वदेशी है तो स्वाभिमान है..

20 अगस्त 2017
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हम लोगों की सोच पर पता नहीं कौन सा पत्थर पड गया है कि हमेशा हम गैरों को श्रेष्ठ मानते रहते हैं। और अपने आपको हीन। यह बहुत ही दुःखद है परन्तु सत्य है। कोई चीज आयातित है विदेशी है तो वो श्रेष्ठ ही है श्रेष्ठ होगी ही.... हमारा अक्सर यही मानना रहता है। फिर चाहे बात भाषा की हो, साहित्य की हो, संस्कृति की

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मेरे प्रिय

21 अगस्त 2017
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मित्र अच्छे हो या बुरे जीवन में बहुत से मित्र होने चाहिए। उनके विना जीवन बदरंग है।

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तलाक एक कुरीति

22 अगस्त 2017
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कुरीति को मिटाने के प्रयास चाहे कोई भी करे कैसे भी करे हम सबको उसका साथ देना ही चाहिए। जो लोग इस कुरीति पर हो रही कार्यवाही को अपनी क्षुद्र बुद्धि के कारण गलत बता रहे हैं वे समाज के शत्रु हैं। कोई दल, कोई व्यक्ति यदि हमें पसन्द नहीं तो क्या हम उसके हर उचित काम में बाधा बने? नहीं..! सभ्य जन तो ऐसा कभ

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हिंदी में उपलब्‍ध वि‍ज्ञान, तकनीकी साहि‍त्‍य, पाठ्यक्रम और रोजगार के अवसर

23 अगस्त 2017
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राहुल खटे (Rahul Khate)इस वेबसाईट का नि‍र्माण हिंदी के ज्ञानवर्धक पक्ष के प्रचार-प्रसार के लि‍ए कि‍या गया है। इसमें दी गई सामग्री का उपयोग शि‍क्षा-अनुसंधान और हिंदी के प्रचार-प्रसार के लि‍ए किया जा सकता हैं।Tuesday, December 6, 2016हिंदी में उपलब्‍ध वि‍ज्ञान, तकनीकी साहि‍त्‍य, पाठ्यक्रम और रोजगार के

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जय पराजय

25 अगस्त 2017
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"जय पराजय महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है तो ये कि हमारा संघर्ष किन सिद्धान्तों/उद्देश्यों के लिए है।"ट्वीटर के स्थान पर स्वदेशी मूषक पर मिलें मेरा मूषक पता- @अजीतसिंहः

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प्रतीकों के सहारे गुमराह होते लोग....

25 अगस्त 2017
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एक तरफ तो भारत की भाषाओं पर हिन्दी सहित कानूनी तैर पर प्रतिबन्ध लगा रखा है और दूसरी ओर हमारे नेता संस्कृत में पद व गोपनीयता व राष्ट्र सेवा के लिए दिखावे की शपथ ले कर स्वंय को भारतीयता का,भारत की संस्कृति का रक्षक बता रहे हैं। और जनता को मूर्ख बना रहे हैं। क्या कभी ऐसे बहरूपियों को राजनीति से भगाया

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अतिवादी समाज के अज्ञानी.....

26 अगस्त 2017
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गुरमीत रामरहीम इंसा के केस को लेकर हरियाणा,पंजाब,दिल्ली, उत्तरप्रदेश व राजस्थान में उनके समर्थकों ने तोड फोड मचा रखी है जिससे अन्य लोगों को अनावश्यक कष्ट उठाना पड रहा है क्यों कि यातायात के सार्वजनिक साधनों पर रोक लगा दी गई है कुछ की दिशा बदल दी गई है। कई क्षेत्रों में निषेधाज्ञा लगा दी गई है। दूसरी

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मनुस्मृति से.......

26 अगस्त 2017
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यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।।मनुस्मृतिजिस सभा में बैठे हुए सभासदों के सामने अधर्म से धर्म और झूठ से सत्य का हनन होता है,उस सभा में सब सभासद मरे-से ही हैं।

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महाभारत से....

27 अगस्त 2017
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न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धावृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्तिन तत् सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।-महाभारतअर्थ- वह सभा नहीं है,जिसमें वृद्ध पुरूष न हों। वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म ही की बात नहीं बोलते। वह धर्म नहीं है, जिसमें सत्य नहीं और न वह सत्य है जोकि छल से युक्त हो।।

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रोहिंगिया पीडित या पीडक...?

27 अगस्त 2017
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कश्मीर में बसे रोहिंगिया खुद को मजबूर और पीडित बता रहे हैं और म्यामार में वही रोहिंगिया मासूम लोगों का और सैनिकों का खून बहा रहे हैं।

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वर्तमान भारत हजारों प्रतिरोधों से संघर्षरत

27 अगस्त 2017
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वर्तमान भारत हजारों प्रतिरोधों से संघर्षरत है। राजनेता दलों से दवे हुये हैं और दल जातीय, सांप्रदायक दलदल में फसे हुये हैं जिसके कारण राष्ट्र हित पीछे छूटता जा रहा है। तो ऐसे में हम सामान्य जनों पर कर्तव्य और अधिक बड जाता है। उसी सन्दर्भ में मेरा मत है कि यदि भारत की भाषाई समस्या का समाधान कर लिया जा

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भारत में भाषायें एक भ्रम.......

28 अगस्त 2017
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भारत को खण्ड-खण्ड करने की सोच रखने वाले भाषाशास्त्रियों के बस में होता तो वे भारत के हर नागरिक के नाम पर उसके बोलने के उतार चढाव को आधार मानकर भाषाओं का नामकरण कर देते। यद्यपि वे इस स्थिति पर तो नहीं पहुँचे कि एक व्यक्ति एक भाषा को साकार करते फिर भी उन्होंने क्षेत्रों को अलग-अलग कर दिया, जातियों को

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भारत,म्यामार और बाकी दुनिया

28 अगस्त 2017
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भारत में कुछ अजीबकिस्म के एकता वादी जन्म लेते हैं जो हमेशा यहाँ की वैचारिक परम्पराओं को ही हर घटना के लिए उत्तरदायी ठहराते रहते हैं। चाहे उसमें उसका लेशमात्र भी हिस्सा न हो। और भारत से बाहर जन्मे विचार तो ऐसे हैं उनके लिए कि पूँछो ही मत एक तरफ स्वंय ईश्वर आकर खडा हो जाये तो ये ईश्वर में दोष निकाल सक

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अंग्रेजी की महानता.....

29 अगस्त 2017
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क्या आपको पता है कि गवर्नमेंट, क्राउन, स्टेट, एँपायर, रॉयल, कोर्ट, काउंसिल, पार्लियामेंट, असेंबली, स्टैच्यूट, वॉर्डन, मेयर, प्रिंस, प्रिंसेस, ड्यूक, मिनिस्टर, मैडम, जस्टिस, क्राइम, बार, एडवोकेट, जज, प्ली, सूट, पेटिशन, कंप्लेंट, समन, एविडेंस, प्रूफ, प्लीड, वारंट, प्रॉपर्टी, इस्टेट, आर्ट, पेंटिग, म्यू

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देश से प्रेम करो देशप्रेम के सिर्फ भाषण मत दो.....

31 अगस्त 2017
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दिन रात मेरा भारत मेरा देश जपने वालो अगर तुम्हारी आँखों में जरा भी शर्मोहया बाकी है तो विदेशी फेसबुक/वाट्सऐप/ट्वीटर को बन्द करो...! और स्वदेशी शब्दनगरी/हाइक/मूषक चलाओ...! स्वदेशी विकल्प मौजूद है ये जानने के बाद भी जो फेसबुक/वाट्सऐप/ट्वीटर पर चिपके हैं वो किसी भी तरह से गद्दार से कम नहीं हैं। क्या तु

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एकजुट रहो.....

1 सितम्बर 2017
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शक्तिशाली व्यक्ति भी अहंकार में जब स्वजनों से वैर करता है तो वह झुण्ड से अलग हुये मैमने की भाँति अनायास ही काल का ग्रास बन जाता है।

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राष्ट्र की उन्नति का आधार स्वदेशी

3 सितम्बर 2017
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राष्ट्र की उन्नति का आधार स्वदेशी हमें यह समझना होगा कि देश में जो भी विकास अभी तक हुआ है, वह वास्तव में स्वदेशी के आधार पर ही हुआ है। कुल पूंजी निवेश में विदेशी पूंजी का हिस्सा २ प्रतिशत से भी कम है और वह भी गैर जरूरी क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश जाता है। आज चिकित्सा के क्षेत्र में भारत दुनिया

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मूषक भारत का अपना सोसल नेटवर्क

3 सितम्बर 2017
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मूषक एक वेब/एप एप्लीकेशन/सोसल नेटवर्क है जो एक विदेशी सोसल नेटवर्क ट्वीटर का उत्तम विकल्प है। इसका निर्माण पुणे के बन्धु श्री अनुराग गौड़ जी के द्वारा किया गया है। आप इस तक गूगल प्लेस्टोर पर 'मूषक' या रोमन में 'mooshak'

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मूषक भारत का अपना सोसल नेटवर्क

3 सितम्बर 2017
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मूषक एक स्वदेशी सोसल नेटवर्क है जो विदेशी सोसल नेटवर्क ट्वीटर का उत्तम विकल्प है आप इसे बहुत ही आसानी से प्रयोग में ला सकते हैं। इसके मोबाइल एप वर्जन डाउनलोड करने के लिए गूगल प्लेस्टोर में जाकर मूषक या mooshak लिख कर कर सकते हैं या कम्प्यूटर पर www.mooshak.in टाइप करें। इस पर खाता अपने मेल आईडी से

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अंग्रेजी हटाओ

4 सितम्बर 2017
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अपनी भाषा अपना देशअंग्रेजी की वहिष्कार करो

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रोहिंगिया

6 सितम्बर 2017
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जो अपने समाज में औरों को स्वीकार्य नहीं करते वे भारत से स्वंय को स्वीकार्य करने के लिए दबाव बना रहे हैं। और कुछ निहायत ही घटिया और टुच्चे लोग उन्हें पीडित बता रहे हैं। और आँसू बहा रहे हैं और भारत को भारत की सरकार को गरिया रहे हैं।

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गौरी लंकेश

7 सितम्बर 2017
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जो दूसरों के लिए जाल बिछाते हैं उन्हें भी कभी-कभी उसी जाल में फस कर प्राणों का त्याग करना पडता है।#गौरीलंकेश#हत्यापरराजनीति

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म्यांमार से रोहिंग्या मुस्लिमों क्यों भगाया जा रहा है? जानिये पूरा इतिहास…

7 सितम्बर 2017
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जब सोमालिया में जन्मे और पाकिस्तान में आठ वर्ष बिता चुके अब्दुल रज्जाक आर्तन ने अमेरिका की ओहायो यूनिवर्सिटी में मौजूद भीड़ में अपनी कार तेजी से घुसा दी और फिर उस भीड़ में से बचे हुए लोगों पर चाकुओं से हमला किया, तब वह चीख रहा था, “अमेरिका दूसरे मुस्लिम देशों में दखल देना बंद करे, म्यांमार के रोहिंग

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Conspiracy बनाम Victim

11 सितम्बर 2017
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कम स्तर की, अचानक, लेकिन सतत हिंसा: इस्लाम का सबसे ख़तरनाक हथियार (Low level, random, but unceasing violence: the deadliest weapon of Islam)एक विडीओ वाइरल है सोशल मीडिया पर। कुछ मुसलमान बच्चे गणेश जी की प्रतिमा पर पत्थरबाज़ी करते CCTV कैमरे में रिकार्ड हुए है। ये तो बच्चे है, कुछ समय पहले एक अन्य वि

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पंजाब के अमृतसर में मुगल......

11 सितम्बर 2017
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पंजाब के अमृतसर में मुगलों का राज था।तारू सिंह अपनी माता के साथ पहूला गांव में रहते थे। वे सिख थे। धर्म ही उनका सब कुछ था। एक दिन तारू सिंह के यहां रात्रि में विश्राम के लिए जगह खोजते हुए रहीम बख्श नाम का एक मछुआरा आया। तारू सिंह ने ना केवल उसकी सहायता कि बल्कि उसे पेट भर भोजन भी कराया।रात्रि के दौर

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डेरा सच्चा सौदा को नष्ट करने का हरियाणा सरकार का रवैया गलत अवधेश कुमार

11 सितम्बर 2017
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हरियाणा पुलिस और प्रशासन जिस तरह डेरा सच्चा सौदा को खत्म करने पर तुली है उसका समर्थन नहीं किया जा सकता है। डेरा के वर्तमान प्रमुख पर न्यायालय में यौन शोषण और बलात्कार का मामला प्रमाणित हुआ है और उन्हें उतनी सजा मिली है जितनी हम आप कल्पना भी नहीं कर रहे थे। दो दोषों की अलग-अलग सजा। अगर उपर के न्यायाल

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विदेशी भी या पूर्ण स्वदेशी....!

15 सितम्बर 2017
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यदि हम विदेशी भी अपनायें और स्वदेशी का भी ढोल पीटते रहें तो यह एक विशुद्ध पागलपन और नौटंकी है, वैसे ही जैसे हमारे नेता/अभिनेता/समाजसेवी नौटंकी बाज है। भाषण हिन्दी में काम अंग्रेजी में। रोटी हिन्दी की चाकरी अंग्रेजी की। बात स्वदेश गर्व की गुलामी औरों की।मित्रों स्वदेश पर गर्व है स्वदेशी से प्रेम है त

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ओ३म्.....

16 सितम्बर 2017
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 "वेदों मे वर्णित सार का पान करनेवाले ही ये जान सकते हैं कि  'जिन्दगी' का मूल बिन्दु क्या है।" -स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

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पढो....

19 सितम्बर 2017
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"पढो, लिखो, कर्म करो, आगे बढो, कष्ट सहन करो, एकमात्र मातृभूमि के लिए, माँ की सेवा के लिए"-अरबिन्दो घोष

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🌷मनुस्मृति और धर्म 🌷

20 सितम्बर 2017
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वास्तविक धर्म क्या है और धर्म कैसा होना चाहिए।धर्म क्या है इस पर वैषेशिक के महर्षि कणाद कहते हैं:-*'यतोऽभ्युदय निःश्रेयस्सिद्धि स धर्मः'।*अर्थात् जो कर्म हमारा अपना उद्धार अरें और प्राणी मात्र को जिससे सुख मिले वह धर्म है।परमात्मा ने संसार रचा।उसमें नाना प्रकार के फल फूल,वनस्पतियाँ,औषधियाँ,अन्न,आदि

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ब्राह्मण शब्द को लेकर भ्रांतियां एवं उनका निवारण डॉ विवेक आर्य

20 सितम्बर 2017
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ब्राह्मण शब्द को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं। इनका समाधान करना अत्यंत आवश्यक है। क्यूंकि हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी जातिवाद है। ब्राह्मण शब्द को सत्य अर्थ को न समझ पाने के कारण जातिवाद को बढ़ावा मिला है।शंका 1 ब्राह्मण की परिभाषा बताये?समाधान-पढने-पढ़ाने से,चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत

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विजयी के सदृश्य जियो रे.......

23 सितम्बर 2017
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वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालोचट्टानों की छाती से दूध निकालोहै रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ोपीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ोचढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रेयोगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रेजब कुपित काल धीरता त्याग जलता हैचिनगी बन फूलों का पराग जलता हैसौन्दर्य बोध बन नई आग जलता हैऊँचा उठकर काम

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धुँधली हुई दिशाएँ...

23 सितम्बर 2017
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धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासाकुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसाकोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा हैमुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा हैदाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला देबुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला देप्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँचढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँबेचैन हैं हवाएँ

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हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है

24 सितम्बर 2017
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हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी हैबहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवालीगहने गढ़ाते जाओसर पर चढ़ाते जाओवह मुटाती जाएपसीने से गंधाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाएपड़ोसिनों से जलेकचरा फेंकने को ले कर लड़ेघर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठताऔरतों को जो चाहिए घर ही में हैएक महाभारत है एक रामा

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नीरज बधवार की कलम से....

24 सितम्बर 2017
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हिंदी दिवस हिंदी भाषियों के लिए रोना रोने का मौका बनकर रह गया है। जबकि ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया को हिंदी भाषा की महानता के बारे में बताया जाए। उन गुणों के बारे में बताया जाए जो किसी और भाषा में नहीं है। जैसे-1. उदारता- पूरी दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां लोग अपनी राष्ट्र भाषा के लिए

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गुलामों का देश भारत...

26 सितम्बर 2017
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भारत के लोगो..! क्या अब भी बहाने बनाओगे..? चीन वाट्सऐप ट्वीटर फेसबुक/ट्वीटर/वाट्सऐप सब बन्द कर देता है राष्ट्र की सुरक्षा के लिए। और एक हम हैं और हमारे महान राष्ट्रवादी नेता हैं जो एक टुच्चे फेसबुक संस्थापक के पास मिलने जाते हैं। शर्म करो..! शर्म करो...!! भारत के लोगो शर्म करो.....!!! तुम्हारे पास स

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आचार्य विनोबा भावे.....

30 सितम्बर 2017
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"मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता।" - विनोबा भावे।ये शब्द आचार्य ने अपने समय में कहे... क्या आज हम में से कोई है जो इन शब्दों का पुनरावर्तन कर सके..... और उनका मान रख सके...!

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रवीन्द्रनाथ ठाकुर

1 अक्टूबर 2017
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"अंग्रेजी सीखकर जिन्होंने विशिष्टता प्राप्त की है, सर्वसाधारण के साथ उनके मत का मेल नहीं होता। हमारे देश में सबसे बढ़कर जातिभेद वही है, श्रेणियों में परस्पर अस्पृश्यता इसी का नाम है।" - रवीन्द्रनाथ ठाकुर।

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एकता का बल....

1 अक्टूबर 2017
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एकत्व के बल का प्रदर्शन करती चीटियाँ जो एक विशालकाय कीट को जमीन पर खीचने के बजाय दीवार पर चड़ा लिए जा रहीं हैं। आप भी देखें...

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क्रांतिकारी की कथा  हरिशंकर परसाई

2 अक्टूबर 2017
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‘क्रांतिकारी’ उसने उपनाम रखा था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही। मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे ग्वेवारा का खास भक्त। कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बातें करता। हमेशा क्रांतिकारिता के तनाव में रहता। सब उलट-पुलट देना है। सब बदल देना है। बाल बड़े, दाढ़ी करीने से बढ़

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हिन्दी....

4 अक्टूबर 2017
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बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्यसुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्यहै हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचाकहँ ‘ काका ' , जो ऐश कर रहे रजधानी मेंनहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी मेंपुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूसहिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूसजाओ बेटे

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अंग्रेजी के ताले में बंद भारत का विकास

6 अक्टूबर 2017
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यह सच है कि आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजी भाषा की महत्ता थोड़ी मात्रा में ही सही, हर देश में बढ़ गयी है। अधिकांश देशों में अंग्रेजी शेष दुनिया के देशों के साथ संवाद के लिए प्रयोग की जाती है, विशेषकर अन्तरराष्ट्रीय लेन-देन के मामलों में। हालांकि कुछ गिने-चुने देश ही अंग्रेजी को आन्तरिक प्रश

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अंग्रेजी ने बनाए 'नए वंचित' और 'नए ब्राह्मण'

7 अक्टूबर 2017
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मधु पूर्णिमा किश्वरअसमानता, भेदभाव और पिछड़ेपन के हल के रूप में आरक्षण पर चल रही मौजूदा बहस कुल जमा एक बिन्दू पर सिमटा दी गई है-क्या शैक्षिक आरक्षण जाति आधारित होना चाहिए अथवा उसमें आर्थिक पक्ष भी शामिल किया जाना चाहिए? इन दोनों विकल्पों के पीछे एक गलत धारणा यह है कि भारत में किसी के लाभ से वंचित हो

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हम हैं भारत....!

12 अक्टूबर 2017
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यदि राष्ट्र का पतन होता है तो ये स्वाभाविक है कि उसके नागरिकों का भी पतन होगा.! तब न तो कोई सुखमय जीवन बिता सकेगा और न ही उसकी कोई इच्छा अनइच्छा ही रहेगी। हर सुख हर सुविधा हम आज जिसभी रूप में भोग रहे हैं वो सब राष्ट्र का है। और इसके लिए हमारे लाखो पूर्वजों ने स्वंय को बलिदान किया है। आपके सुख के लिए

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काका हाथरसी को एक बार तो पढिये....

11 नवम्बर 2017
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काका हाथरसी-रिंग रोड पर मिल गए नेता जी बलवीर।कुत्ता उनके साथ था पकड़ रखी जंजीर॥     पकड़ रखी जंजीर अल्शेशियन था वह कुत्ता।     नेता से दो गुना भौंकने का था बुत्ता॥हमने पूछा, कहो, आज कैसे हो गुमसुम।इस गधे को लेकर कहाँ जा रहे हो तुम॥     नेता बोले क्रोध से करके टेढ़ी नाक।     कुत्ता है या गधा है, फूट

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गूगल गुरु को देखिए.....

1 दिसम्बर 2017
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कांग्रेस अब राहुल की...

4 दिसम्बर 2017
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वर्षो ं से खबर चल रही थी राहुल जी अब अध्यक्ष बन रहे हैं अगले माह बन रहे हैं अगली तिमाही में बन रहे हैं। लेकिन तब सबका इन्तजार खत्म हो गया जब उन्होंने नामांकन फार्म भर दिया। अब कांग्रेस हुई राहुल की.... साथ ही विदेशीमूल का प्रधानमन्त्री बनेगा या नहीं ये प्रश्न भी हमेशा के लिए शान्त हो गया। #अ

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स्वभाषी मेल डाटामेल.......!

5 दिसम्बर 2017
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यह मात्र हिन्दी नहीं हिन्दी सहित अन्य भारतीय व विश्व भाषाओं में मेल पता उपलब्ध कराती है इसके सृजक अजय डाटा जी हैं और यह वर्षों पुराना समाचाा है। हमारा ईमेल पता - अजीतसिंह1@डाटामेल .भारत है। आप भी अपना जीमेल छोडकर स्वदेशी और स्वभाषी डाटामेल अपनायें।DataMailGet FREE email address like mine अज

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राहुल गाँधी......

11 दिसम्बर 2017
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कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी निर्विरोध चुन लिए गए हैं.सोमवार को पार्टी अध्यक्ष पद के प्रस्तावित चुनाव के लिए नामांकन की आखिरी तारीख थी और किसी ने भी राहुल गांधी की उम्मीदवारी को चुनौती नहीं दी थी.कांग्रेस नेता मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने इसकी घोषणा करते हुए कहा, "नामांकन के 89 प्रस्ताव

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मैकाले और भारत के लोग...

1 जनवरी 2018
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“मैंने पूरे भारत की लगभग सभी दिशाओं में यात्राएँ की हैं और मुझे इस पूरे दौर में न तो कोई भिखारी व्यक्ति दिखा और न कोई चोर। मैंने इस देश की अमूल्य संपन्नता को देखा है, जहाँ गहरे नैतिक मूल्य व्याप्त हैं और लोग क्षमताओं से लबरेज हैं और इसलिए मैं समझता हूँ कि इस देश पर विजय पाना हमारे लिए तब तक सम्भव नह

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हाइक चलाओ

4 जनवरी 2018
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मेरे साथ Hike पर चैट करें! बस @ajeetsingh1 की खोज करें या यहाँ टैप करें https://hike.li/@ajeetsingh1

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हमारे भोजन पर नियंत्रण के प्रयास -थेरेसा क्रिनीनगर

10 जनवरी 2018
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हमारे भोजन पर नियंत्रण के प्रयास-थेरेसा क्रिनीनगरकॉर्पोरेट एटलस-2017 की रिपार्ट यह दर्शाती है कि दुनियाभर में खाद्य उद्योगों का हो रहा विकास किस प्रकार सामान्य जनता को प्रभावित कर रहा है। उभरते एवं तेजी से फैलते बाजार से विकासशील देशों में खाद्य व्यवस्था की कमजोर कड़ी माने जाने वाले कृषक तथा खेतिहर म

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षड्यंत्रों से संघर्ष करती हिंदी

11 जनवरी 2018
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षड्यंत्रों से संघर्ष करती हिंदीसंवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा होने के बावजूद हिंदी षड्यंत्रों का शिकार रही है। स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिंदी के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं। उन्ही का परिणाम है कि हिंदी आजतक अपना अनिवार्य स्थान नह

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बदलने होंगे गुलामी के समय के प्रशासन, शिक्षा और राजनैतिक सिस्टम

14 जनवरी 2018
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बदलने होंगे गुलामी के समय के प्रशासन, शिक्षा और राजनैतिक सिस्टमएक आजाद देश को अपना सिस्टम बनाना चाहिए था, लेकिन हमने अपने पुराने सिस्टम में बस बहुत थोड़ा सा बदलाव कर लिया। इसी वजह से कई मायनों में हमने खुद को पंगु बना लिया है।जो लोग हम पर बाहर से शासन करना चाहते थे, उन्होंने कुछ खास तरह का तंत्र व स

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बदलने होंगे गुलामी के समय के प्रशासन, शिक्षा और राजनैतिक सिस्टम

14 जनवरी 2018
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बदलने होंगे गुलामी के समय के प्रशासन, शिक्षा और राजनैतिक सिस्टमएक आजाद देश को अपना सिस्टम बनाना चाहिए था, लेकिन हमने अपने पुराने सिस्टम में बस बहुत थोड़ा सा बदलाव कर लिया। इसी वजह से कई मायनों में हमने खुद को पंगु बना लिया है।जो लोग हम पर बाहर से शासन करना चाहते थे, उन्होंने कुछ खास तरह का तंत्र व स

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भारत में अंग्रेजी कलैण्डर क्यों भारतीय पंचांग क्यों नहीं.....

19 जनवरी 2018
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भारत में अंग्रेजी कलैण्डर क्यों भारतीय पंचांग क्यों नहीं..!भारतीय वृत,पर्व व विवाह आदि सभी शुभ कार्य भारतीय पंचांग के अनुसार ही होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से यह पंचांग भारत सरकार के द्वारा प्रयोग में नहीं है। वह अंग्रेजी कलैण्डर का प्रयोग करती है। दूसरा जिसे मान्यता प्राप्त है वह है शक सम्वत जो विक्र

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चीन ने बनाया हिन्दी को हथियार

29 जनवरी 2018
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चीन ने बनाया हिंदी को हथियार वेद प्रताप वैदिकचीन हमें आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर ही मात देने की तैयारी नहीं कर रहा है बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी वह हमें पटकनी मारने पर उतारु है। उसने चीनी स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए अब हिंदी को अपना हथियार बना लिया है। इस समय चीन की 24 लाख जवानों की फौज में हज

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मूर्खों का पुलिन्दा (भारत का तथाकथित संविधान) और झण्डा प्रेम.....!

1 फरवरी 2018
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मूर्खों का पुलिन्दा (भारत का तथाकथित संविधान) और झण्ड़ा प्रेम.... "याद रखिए 1 भूल कई सारी उपलब्धियों पर पानी फेर देती है।" क्या यह सही नहीं है कि भारत का संविधान भारतजन विरोधी नहीं है? क्या जनता की जुबान पर लगे प्रतिबन्ध उचित हैं? उन्हें अपनी बात रखने के लिए विदेशी भाषा को सीखने पर मजबूर करना उचित

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पिछडे होने का एक ही कारण वो है अंग्रेजी

11 फरवरी 2018
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विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है.

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इंटरनेट पर हिन्दी....!

18 फरवरी 2018
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भारत में अंग्रेजी अब इंटरनेट पर प्रयोग में लाई जाने वाली प्रमुख भाषा नहीं रह गई है। बड़े पैमान पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग ने देश में अंग्रेजी के प्रयोग को पछ़ाड दिया है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक देशी भाषाओं का प्रयोग साइबर स्पेस में लगातार बढ़ता जा रहा है। हिंदी इनमें सबसे आगे

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भारत में अंग्रेजी क्यों?

20 फरवरी 2018
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यदि नौवेल पुरूस्कार आदर्श गुलामों को देने की प्रथा बन जाये तो सारे नौवेल पुरूस्कार भारतीय ही जीतेंगे।#भारत-में-अंग्रेजी-क्यों?

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मूर्ख हिन्दुओं की मसीहा सरकार.....

20 फरवरी 2018
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सरकार ने कोर्ट में कहा- ताजमहल नहीं है शिवालय, शाहजंहा ने मुमताज की याद में बनवाया आगरा। कार्यालय संवाददाताUpdated: Tue, 20 Feb 2018 12:18 ताज या तेजोमहालय मामले में सोमवार को भारत सरकार व पुरातत्व विभाग ने अपना जवाब कोर्ट में दाखिल कर दिया है। इसमें पुन: एक बार कहा है कि ताजमहल शिवालय नहीं है। ऐसा

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गुलाम भारत....!

22 फरवरी 2018
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जो मूर्ख भारतीय संविधान को अपना माई-बाप कहते हैं वो संविधान भारत की किसी भी जन भाषा में कानून/न्याय/शिक्षा का अधिकार नहीं देता। इसलिए हम इसके व इसकी रक्षा करने वालों के विनाश की कामना करता हूँ ।अनुच्छेद 348. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली

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