षड्यंत्रों से संघर्ष करती हिंदी
संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा होने के बावजूद हिंदी षड्यंत्रों का शिकार रही है। स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिंदी के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं। उन्ही का परिणाम है कि हिंदी आजतक अपना अनिवार्य स्थान नहीं पा सकी है। हम अपनी मानसिक गुलामी की वजह से यह मान बैठे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। अंग्रेजी के नाम पर जितनी अनदेखी और दुर्गति हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की हुई है उतनी शायद ही कहीं भी किसी और देश में उसकी राष्ट्रभाषा की हुई हो। अंग्रेजों के समय अंग्रेजी भाषा की जितनी महत्ता थी, उससे अधिक आज है। अपने ही

देश में हिंदी मातहत भाषा बन गयी है। प्रत्येक विकसित तथा स्वाभिमानी देश की अपनी एक भाषा अवश्य होती है जिसे राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त होता है। शायद भारत इकलौता ऐसा देश है, जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, यह राष्ट्रीय शर्म की बात है।
किसी भी स्वाधीन राष्ट्र में उसकी राष्ट्रभाषा इतने समय तक उपेक्षित नहीं रही है। आजादी के साढ़े छह दशक से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी हमारी सरकारी सोच पर अंग्रेजी हावी है। तुर्की जब आजाद हुआ तो एक हफ्ते में वह विदेशी भाषा के चंगुल से मुक्त हो गया था। मुस्तफा कमाल पाशा की इच्छाशक्ति ने अविश्सनीय समय में तुर्की को राष्ट्रभाषा बना दिया। मुस्तफा कमाल पाशा का मानना था कि राष्ट्र निर्माण के लिए पहली आवश्यकता यह है कि अंग्रेजी के स्थान पर तुर्की भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाए। इससे ठीक उलट 15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस देश के 30 करोड़ लोगों को अंग्रेजी में संबोधित किया। उसी दिन यह तय हो गया था कि देश उस भाषा में चलेगा, जिस भाषा में नेहरू सोचते हैं। नेहरू के अंग्रेजी प्रेम की वजह से राजकाज में हिंदी का उपयोग शुरू नहीं हो सका। नेहरू के विचार में राजव्यवहार के लिए अंग्रेजी अनिवार्य थी। बाद की सरकारें इसी नजरिये से सोचती रहीं। शासन की जिम्मेवारी संभालनेवालों ने षड्यंत्र के तहत अंग्रेजी को तवज्जो देना शुरू किया और यह धीरे-धीरे व्यापक रूप लेता गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा की सोच पीछे छूट गयी। हमारी राष्ट्रभाषा लगातार कमजोर पड़ती गयी। यह दुर्भाग्य है कि अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान का एक स्वर सुनाई नहीं दे रहा है। राष्ट्रभाषा से लगाव या उसपर गौरव करना तो अपराध करने जैसा प्रतीत होता है। कैसा अजब लगता है कि अपने ही देश में अपनी भाषा के लिए जब आवाज कोई उठाता है तो उसकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है। अपनी भाषा के पक्ष में बोलनेवालों की आलोचना होती है। उसकी सोच को मध्यकालीन करार दिया जाता है। हमारी सरकार कहती कुछ और है करती कुछ और है। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही हिन्दी भाषा पर जोर दिया था। यहां तक कि मंत्रालयों को भी हिन्दी में काम करने की नसीहत दी गई थी। लेकिन हुआ कुछ नहीं, सबकुछ पूर्ववत चल रहा है।
लोकभाषा को महत्व दिए बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई भी अंग संतोषजनक ढंग से तब तक काम नहीं कर सकता जब तक की उसकी भाषा लोकभाषा के अनुरूप नहीं हो। न्यायपालिका लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है। विडंबना है कि न्यायालयों में हिंदी को मान्यता देने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। राज्यभाषा पर संसदीय समिति ने वर्ष 1958 में यह अनुशंसा की थी कि उच्चतम न्यायालय में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए। लेकिन देश के न्यायालयों की कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में ही संपन्न होती रही। संविधान के भाषा संबंधित नीति में कहा गया है कि जब तक हिंदीत्तर क्षेत्रों की तीन-चैथाई सदस्य एकमत से हिंदी स्वीकार नहीं करते तब तक अंग्रेज चलती रहेगी। संविधान के अनुच्छेद 348 में यह कहा गया है कि संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होगी।
भाषा का प्रश्न मानवीय है खासकर भारत में जहाँ साम्राज्यवादी भाषा जनता को जनतंत्र से अलग कर रही है। तमाम भारतीयों का सपना था कि आजादी के बाद लोक-व्यवहार और राजकाज में भारतीय भाषाओं का प्रयोग होगा। दुर्भाग्यवश यह सपना कभी सच नहीं हो पाया। आज़ादी के बाद संविधान बनाने का उपक्रम शुरू हुआ। संविधान का प्रारूप अंग्रेजी में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेजी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेजी भाषा में ही बोले। अगर हिंदी को लेकर हमारे संविधान निर्माता संजीदा होते तो हिंदी की यह हालत नहीं होती। साधनविहीन जन की भाषा अंग्रेजी न तो पहले थी और न अब है। करोड़ों लोगों के देश में अंग्रेजी न जनभाषा हो सकती है और न राजभाषा। विभिन्न रूपों में यह स्थान हिंदी को ही लेना है।
हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। यह दर्जा भी केवल कागजों तक ही सीमित रहा। आज भी यह सवाल अनुतरित है कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या है? गुजरात उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसा कोई प्रावधान या आदेश रिकार्ड में मौजूद नहीं है जिसमें हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया हो। हिंदी मातृभाषा है, राजभाषा है अथवा संपर्क भाषा, इस पर चर्चा हमेशा से होती रही है। वर्ष 1965 में संसद द्वारा हिंदी राजभाषा अधिनियम पारित किया गया था। तभी से हिंदी को स़िर्फ राजभाषा का दर्जा हासिल है, लेकिन राष्ट्रभाषा का नहीं। आज भी प्रशासन और न्यायालय हिंदी में नहीं चलते। हर क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व है। सरकारी दफ्तरों में अधिकतर कार्य अंग्रेजी में ही किया जाता है। घर से लेकर रोजगार और शिक्षा हर जगह हिंदी की उपेक्षा की जा रही है। जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा हिंदी का बढ़ना मुश्किल है। हमें अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त करना होगा। करोड़ों लोगों की भाषा शासन और न्याय की भाषा क्यों नहीं बन सकती है? किसी भी देश के लिए अपनी ऐसी भाषा की अनिवार्यता होती ही है जो अधिकांश जन बोलते-समझते हों। जो उस देश की संस्कृति की सूचक हो। दुर्भाग्यवश जन-जन की भाषा कहलाने वाली हिंदी को सहेजने में हम चूक गए। राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रुपए का व्यय तो हो रहा है, वांछित फल नहीं प्राप्त हो रहा, क्योंकि सब कुछ सतही है।
अब तक जो भी चेष्टा की गयी, पर वह ठीक तरह से किया गया है यह कहना संशयात्मक है। जो सत्ता के केंद्र में हैं, व्यवस्था के अंग हैं या सामाजिक स्तर से मजबूत हैं वे अपनी दुनिया में रमे हुए हैं। ऐसी कोई पार्टी नहीं है जो हिंदी के प्रश्न पर डटी रहे और हिंदी के लिए लड़ती हुई दिखाई दे। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण अंग विधायिका में हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की हालत पर कभी बहस नहीं होती है। इस मुद्दे पर हिंदी भाषी प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेताओं की उदासीनता शर्मनाक ही कही जा सकती है। देश की संसद में अभी तक हिंदी को वह दर्ज़ा नहीं मिल सका है जो एक राष्ट्रभाषा को मिलना चाहिये। संसद में अधिकतर सदस्य अंग्रेजी में ही प्रश्न पूछते हैं व बहस करते हैं। हमारे देश में अंग्रेजी ऐसी विभाजन रेखा है, जो तय करती है कि किसी को जिंदगी में कैसा कैरियर और सुख-सुविधाएं मिलेंगी। अंग्रेजी बोलना-लिखना-पढ़ना समाज में बेहतर स्थिति और रोजगार की बहुत बड़ी योग्यता है। ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, राजनीति, शासन, पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में अंग्रेजी जाननेवालों का अधिकारयुक्त स्थान है।
हिंदी किसी भी दृष्टिकोण से किसी भाषा से हीन नहीं है। हिंदी तो वह समर्थ भाषा है, जो पूरे देश को एक प्रेम के धागे से जोड़ सकती है। हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जानेवाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। राजनीतिज्ञ और नीति निर्माता हिंदी के जिस महत्व को नहीं समझ पाये, बाजार ने फौरन समझ लिया। हिंदी आज बाजार की भाषा बन गयी है। एक ऐसी भाषा जिसके सहारे करोड़ो लोगों को बाजार द्वारा रोज नये सपने दिखाये जाते हैं। उदारीकरण के बाद जब बाजार का विस्तार हुआ तो विदेशी कंपनियां और विदेशी निवेशक अपने-अपने उत्पादों के साथ भारत पहुंचे। यहां के बाजार के सर्वे और शोध के बाद उन्हें यह महसूस हुआ कि भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए उनकी भाषा का उपयोग करना फायदेमंद हो सकता है। हिंदी को अपनाना बाजार की मजबूरी भी थी। देश में हिंदी बोलने, और समझनेवालों की संख्या सर्वाधिक है। बाजार ने हिंदी जाननेवालों को बाकी दुनिया से जुड़ने के नये विकल्प खोल दिये हैं। फिल्म, टी.वी., विज्ञापन और समाचार हर जगह हिंदी का वर्चस्व है। इंटरनेट और मोबाइल ने हिंदी को और विस्तार दिया। हिंदी बढ़ रही है लेकिन इसके सरोकार लगातार घट रहे हैं। जब हिंदी बाजार की भाषा हो सकती है तो रोजगार, शिक्षा और लोकव्यवहार की भाषा क्यों नहीं ?
यह समझ से परे है कि हमारे देश में अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है। दुनिया के 12 से भी कम देशों की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है। दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। अधिकांश देशों में दूसरे देशों के साथ आर्थिक-व्यापारिक सौदों के लिए मूल पाठ अंग्रेजी में नही बनाया जाता है तथा वार्ताओं में भी वे अपनी ही भाषा बोलना पसंद करते हैं। अनेक देशों के राजनेता अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी मातृभाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। जापानियों, चीनियों, कोरियनों का अपनी भाषा के प्रति गजब का सम्मान और लगाव है। बिना अंग्रेजी के इस्तेमाल के ऐसे देश विकास के दौड़ में कई देशों से काफी आगे हैं। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाओं ने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया। हिंदी समाज को आधुनिक हिंदी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इन पंक्तियों से सीख लेने की जरूरत है :
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल,
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार,
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
सामाजिक सक्रियता किसी भी भाषा के लिए एक अनिवार्य शर्त है जिसे हिंदीभाषियों ने पूरी तरह से भुला दिया है। हिंदी समाज ने यह मान लिया है कि राजभाषा होने के बाद ही हिंदी की सारी समस्या सुलझ गयी है। विडंबना है कि हिंदी को वह जगह नहीं मिल रही है, जिसकी वह हकदार है। हिंदी न तो संवैधानिक रूप से राष्ट्रभाषा बन पायी और न ही पूरी तरह से राजभाषा। हिंदी के संस्कारों और उसकी समृद्ध परंपरा को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में हिंदी की जड़ें काफी गहरी हैं। अगर हिंदी को बचाना है तो यह जरूरी है कि शासकीय कामकाज और न्यायालयों में हिंदी को महत्व दिया जाये और इसे शिक्षा और रोजगार से जोड़ा जाये।हिंदी हमारे देश की एकता की कड़ी है। यह हमारी मातृभाषा, राजभाषा है, इसे राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा मिलना ही चाहिए।
हिमकर श्याम