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मुंशी प्रेमचंद

29 सितम्बर 2022

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रूठी रानी एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचन्द ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है। उपन्यास में राजाओं की पारस्परिक फूट और ईर्ष्या के ऐसे सजीव चित्र प्रस्तुत किये गये हैं कि पाठक दंग रह जाता है। ‘रूठी रानी’ में बहुविवाह के कुपरिणामों, राजदरबार के षड़्यंत्रों और उनसे होने वाले शक्तिह्रास के साथ-साथ राजपूती सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत स्त्री की हीन दशा के सूक्ष्म चित्र हैं।

दूसरी कृति प्रेमा में प्रेमचन्द ने देश की स्वतन्त्रता के प्रेमियों का आह्वान करते हुए कहा है कि साहस एवं शौर्य के साथ एकता और संगठन भी आवश्यक हैं।)

शादी की तैयारी

उमादे जैसलमेर के रावल लोनकरन की बेटी थी जो सन् १५८६ में राजगद्दी पर सुशोभित था। बेटी के पैदा होने से पहले तो दिल जरा टूटा मगर जब उसके सौन्दर्य की खबर आयी तो आंसू पुंछ गए। थोड़े ही दिनों में उस लड़की के सौन्दर्य की धूम राजपूताने में मच गयी। सखियां सोचती थीं कि देखें यह युवती किस भाग्यवान को मिलती है। वे उसके आगे देश देश के राजों-महाराजों के गुणों का बखान किया करतीं और उसके जी की थाह लेतीं लेकिन उमादे अपने सौन्दर्य के गर्व से किसी को खयाल में न लाती थी। उसे सिर्फ अपने बाहरी गुणों पर गर्व न था, अपने दिल की मजबूती, हौसले की बुलन्दी और उदारता में भी वह बेजोड़ थी। उसकी आदतें सारी दुनिया से निराली थीं। छुई-मुई की तरह जहाँ किसी ने उंगली दिखायी और यह कुम्हलायी। मां कहती– बेटी, पराये घर जाना है, तुम्हारा निबाह क्योंकर होगा? बाप कहता– बेटा, छोटी-छोटी बातों पर बुरा नहीं मानना चाहिए। पर वह अपनी धुन में किसी की न सुनती थी। सबका जवाब उसके पास खामोशी थी कोई कितना ही भूंके, जब वह किसी बात पर अड़ जाती तो अड़ी ही रहती थी।

आखिर लड़की शादी करने के काबिल हुई। रानी ने रावल से कहा– ‘‘बेखबर कैसे बैठे हो, लड़की सयानी हुई, उसके लिए वर ढूंढ़ों, बेटी के हाथों में मेंहदी रचाओ।’’

रावल ने जवाब दिया– ‘‘जल्दी क्या है, राजा लोगों में चर्चा हो रही है, आजकल में शादी के पैगाम आया चाहते हैं। अगर मैं अपनी तरफ से किसी के पास पैगाम भेजूंगा तो उसका मिजाज आसमान पर चढ़ जाएगा।’’

मारवाड़ के बहादुर राजा मालदेव ने भी उमादे के संसारदाहक सौन्दर्य की ख्याति सुनी और बिना देखे ही उसका प्रेमी हो गया। उसने रावल से कहला भेजा कि मुझे अपना बेटा बना लीजिए, हमारे और आपके बीच पुराने जमाने से रिश्ते होते चले आए हैं। आज कोई नयी बात नहीं है।

रावल ने यह पैगाम पाकर दिल में कहा वाह– मेरा सारा राज तो तहस-नहस कर डाला अब शादी का पैगाम देते हैं ! मगर फिर सोचा कि शेर पिंजरे में ही फंसता है, ऐसा मौका फिर न मिलेगा। हरगिज न चूकना चाहिए। यह सोचकर रावल ने सोने-चांदी के नारियल भेजे। राव मालदेव जी बारात सजाकर जैसलमेर ब्याह करने आए। चेता और कोंपा जो उसके सूरमा सरदार थे, उसके दाएं-बाएं चलते थे।

रावल ने अपनी रानी को बुलाया और किले के झरोखे से राव मालदेव की सवारी दिखाकर कहा– ‘‘यह वही आदमी है जिसके डर से न मुझे रात को नींद आयी है और न तुझे कल पड़ती है। यह अब इसी दरवाजे पर तोरन बांधेगा जो अक्सर उसी के डर के मारे बन्द रहता है। मगर देख मैं भी क्या करता हूं। अगर चंवरी में से बचकर चला गया तो मुझे केवल रावल मत कहना। बेटी तो विधवा हो जाएगी पर तेरे दिल का कांटा जन्म भर के लिए निकल जाएगा, बल्कि सारे राजपूताने को अमन-चैन हासिल हो जाएगा।’’

रानी यह सुनकर रोने लगी। रावल ने डांटकर कहा– ‘‘चुप ! रोने लगी तो बात फूट जाएगी, फिर खैरियत नहीं, यह जालिम सभी को खा जाएगा। देख जरा, शादी करने आया है मगर फौज साथ लाया है कि जैसे किसी से लड़ने जा रहा हो इतनी फौज तो गढ़सोलर (जैसलमेर की एक झील) का सारा पानी एक ही दिन में पी जाएगी। हम तुम और सब शहर के बाशिन्दे प्यासे मर जाएंगे।’’

रानी को बेटी के विधवा हो जाने के डर से शोक तो बहुत हुआ मगर पति की बात मान गयी और छाती पर पत्थर रखकर चुप ही रही। उसकी घबड़ाहट और परेशानी छिपाए नहीं छिपती थी।

बेटी, मां को घबरायी हुई देखकर, समझ गयी कि दाल में कुछ काला है, मगर कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी। बेटी की जात, इतनी ढिठाई कैसे करती? मां का रोना मुहब्बत का रोना न था। जब उसने मां की बेचैनी हर क्षण बढ़ते हुए देखी तो ताड़ गयी कि आज सुहाग और रंडापा साथ मिलने वाला है। जी में बहुत तड़पी, तिलमिलायी, मगर कलेजा मसोसकर रह गयी। क्या करती? हमारे यहां बेटी बिन सींगों की गाय है। मां बाप उसके रखवाले हैं। मगर जब मां बाप ही उसकी जान के गाहक हो जाएं तो कौन किससे कहे। सखी सहेलियां फूली-फूली फिरती थीं। राजमहल में शादियाने बज रहे थे, चारों तरफ खुशी के जलवे नजर आते थे। मगर अफसोस, किसी को क्या मालूम कि जिस दुल्हन के लिए यह सब हो रहा है, वह अन्दर ही अन्दर घुली जा रही है। सखियां उसे दुल्हन बना रही हैं, कोई उसके हाथ-पांव में मेंहदी रचाती है, कोई मोतियों से मांग भरती है, कोई चोटी में फूल गूंथती है, कोई आइना दिखाकर कहती है– खूब बन्नी। पर यह कोई नहीं जानता कि बन्नी की जान पर आ बनी है। ज्यों-ज्यों दिन ढलता है, उसके चेहरे का रंग उड़ता जाता है। सखियां और ही ध्यान में हैं, यहां बात ही और है।

उमादे यकायक सखियों के झुरमुट से उठ गयी और भारीली नाम की एक सुघड़ सहेली को इशारे से अलग बुलाकर कुछ बातें करने लगी।

भारीली रूप बदलकर चुपके से राघोजी ज्योतिषी के पास गयी और पूछने लगी– ‘क्या आपने किसी कुंवारी कन्या के ब्याह का मुहूर्त निकाला है?’’ उन्होंने जवाब दिया– ‘‘और किसी का तो नहीं, रावल जी की बाई के ब्याह का मुहूर्त अलबत्ता निकाला है।’’

भारीली– ‘‘क्या आप फेरों के वक्त भी जाएंगे?’’

ज्योतिषी– ‘‘न जाऊँगा तो मुहूर्त की खबर कैसे होगी?’’

भारीली– क्या इस शहर में आप और भी कहीं मुहूर्त बताते और शादियां करवाते हैं?’’

ज्योतिषी– ‘‘सारे शहर में मेरे सिवा और है ही कौन। राजा प्रजा सब मुझी को बुलाते हैं।’’

भारीली– ‘‘ज्योतिषी जी, नाराज न होना, जिन लड़कियों की शादियां आप करवाते हैं वह कितनी देर तक सुहागिन रहती हैं?’’

ज्योतिषी– (चौंककर) ‘‘हैं, यह तूने क्या कहा? क्या मुझ से दिल्लगी करती है?’’

भारीली– ‘‘नहीं ज्योतिषी जी, दिल्लगी तो नहीं करती, सचमुच कहती हूं।’’

ज्योतिषी– ‘‘इन बातों का जवाब मेरे पास नहीं। तेरा मतलब जो कुछ हो साफ-साफ कह।’’

भारीली– ‘‘कुछ नहीं, आप अपने मुहूर्त को एक बार और जांच लीजिए।’

ज्योतिषी– ‘‘कुछ कहेगी भी?’’

भारीली– ‘‘आप अपनी साइत फिर से देख लीजिए तो कहूं।’’

ज्योतिषी– ‘‘चल दूर हो, बूढ़ों से खेल नहीं करते।’’

यह कहकर ज्योतिषी जी अन्दर चले गए, मगर फिर सोच-विचारकर पट्टी निकाली, साइत को खूब अच्छी तरह जांचा और उंगलियों पर गिन-गिनकर बोले, मुहूर्त में कोई दोष नहीं है।

भारीली– (उदास स्वर में) ‘‘तो फिर किस्मत की फूटी होगी।’’

ज्योतिषी– (भौचक होकर) ‘‘नहीं मैंने जन्मपत्री देखकर मुहूर्त निकाला था।’’

भारीली– ‘‘अजी करमपत्री भी देखी है। तुम्हारे मुहूर्त में तो बाई जी को दुःख भोगना लिखा है।’’

ज्योतिषी– (तह को पहुंचकर) ‘‘तो क्या रावल जी दगा फरेब करने वाले हैं?’’

भारीली– ‘‘उहां रावल मालदेव को यों तो मारने से रहे, अब सलाह हुई है कि शादी के वक्त चंवरी में उन्हें मार डालें।’’

ज्योतिषी– ‘‘अरे, राम-राम ! ऐसे राजाओं को धिक्कार है।’’

भारीली– ‘‘महाराज, इस वक्त इन बातों को तो रक्खो, अगर रिहाई की कोई तदबीर हो तो बतलाओ।’’

ज्योतिषी– ‘‘जब रावल जी ही को बेटी पर रहम नहीं आता तो मैं गरीब ब्राह्मण क्या कर सकता हूं।’’

भारीली– ‘‘इंसान चाहे तो सब कुछ कर सकता है।’’

ज्योतिषी– ‘‘तू ही बता मैं क्या करूं?’’

भारीली– ‘‘अच्छे ज्योतिषी हो ! राजदरबारी होकर मुझसे पूछते हो कि मैं क्या करूं।’’

ज्योतिषी– ‘‘राजदरबारी होने से क्या होता है। तूने सुना नहीं, गुरु विद्या और सिर सिर बुद्धि।’’

भारीली– ‘‘तो फिर मेरी तो यही सलाह है कि राव मालदेव को सावधान कर देना चाहिए।’’

ज्योतिषी– ‘‘हां, ऐसा हो सकता है।’’

भारीली– ‘‘तो क्या मैं बाई जी से जाकर कह दूं कि तुम्हारा काम हो गया?’’

ज्योतिषी– ‘‘हां, ऐसा हो सकता है।’’

भारीली– ‘‘जी हां !’’

ज्योतिषी– ‘‘अच्छा, मैं जाता हूं।’’

शादी

दिन ढल गया। बाजार में छिड़काव हो गया। लोग बारात देखने के लिए घरों से उमड़े चले आते हैं। ज्योतिषी ने दरबार में जाकर राव से कहा– ‘‘अब अगवानी करने का समय पास आ गया है। अब सवारी की तैयारी का हुक्म दीजिए।’’

रावल– ‘‘बहुत अच्छा। बारात वालों को भी इसकी खबर कर दो।’’

ज्योतिषी– ‘‘हाँ, खूब याद आया, एक बात मुझे मारवाड़ के ज्योतिषियों से पूछनी है।’’

रावल– ‘‘क्या?’’

ज्योतिषी– ‘‘जन्मपत्री से तो नहीं, पर बोलते नाम से राव जी को आज चौथा चन्द्रमा और आठवां सूरज है।’’

रावल– ‘‘तो इससे क्या, मुहूर्त तो आपने जन्मपत्री से ही निकाला है।’’

ज्योतिषी– ‘‘महाराज पुकारने के नाम से भी ग्रह देखे जाते हैं। चौथा चन्द्रमा और आठवां सूरज अशगुन होता है। कोई ग्रह बारहवां नहीं है, तो...’’

रावल (जी में) क्या अच्छा होता जो कोई बारहवां ग्रह भी होता ताकि तीनों असगुन एक जगह हो जाते। (प्रकट) मारवाड़ बड़ा राज्य है। वहां ज्योतिषियों की कमी नहीं है। उन्होंने जरूर सब बातों को विचार लिया होगा। आप कुछ न कहिएगा नहीं तो उन्हें खामखाह शक हो जाएगा।

ज्योतिषी– ‘‘उन्हें सचेत कर देना मेरा धर्म है। मैं आपके खानदान का हित चाहने वाला हूं। मैं अभी जाकर उनसे कहता हूं कि विपत्ति को काटने की कोई युक्ति कीजिए।’’

रावल– क्या युक्ति हो सकती है?’’

ज्योतिषी– ‘‘यही दान-पुण्य आदि।’’

रावल– ‘‘यह सब मैं अपनी तरफ से करा दूंगा। उनसे कहने की क्या जरूरत है।’’

ज्योतिषी– ‘‘नहीं, यह दान उन्हीं की तरफ से होना चाहिए।’’

रावल– ‘‘क्या मेरी तरफ से होने में कुछ बुराई है?’’

ज्योतिषी– ‘‘अपनी तरफ से तो तब दान कराया जाता जब बाई के ग्रह खराब होते।’’

रावल– ‘‘आज बाई जी का ग्रह कैसा है?’’

ज्योतिषी– ‘‘बहुत अच्छा, बहुत शुभ। फिर औरत के ग्रहों का अच्छा या बुरा होना अधिकतर उसके पति के ग्रहों पर आधारित होता है। इसलिए बाई जी का भी वही ग्रह समझना चाहिए जो राव जी का है।’’

रावल– ‘‘अच्छा तो बारात में हो आइए। देर न कीजिएगा, यहां भी काम है।’’

ज्योतिषी– (चुटकी बजाकर) ‘‘गया और आया।’’

रावल से हुकुम पाकर ज्योतिषी जी खुश-खुश वहां से चले। राव मालदेवजी को खबर हुई कि ज्योतिषी राघो जी आते हैं। राव जी ने कहा– ‘‘उनका बड़े सम्मान से स्वागत करो। वे बड़े नामी ज्योतिषी हैं। वे क्या, उनके बेटे चण्डो भी ज्योतिषी विद्या के बड़े पण्डित हैं।’’

चोबदार और ड्योढ़ीदार दौड़े और ज्योतिषी जी को हाथों हाथ ले आए। ज्योतिषीजी आशीर्वाद देकर बैठ गए। राव जी ने कुशल-मंगल पूछकर कहा आपने कैसे आने का कष्ट किया?

ज्योतिषी– (इधर-उधर देखकर) ‘‘कुछ साइत विचारनी है।’’

यह सुनते ही लोग हट गए। ज्योतिषी जी राव साहब से दो-दो बातें कर चल दिए। राव जी को बड़ी चिन्ता हुई, फौरन सरदारों को बुलाकर सलाह-मशविरा किया कि ऐसी हालत में क्या करना चाहिए।

इतने में नक्कारों की आवाज आयी, चौतरफा शोर मचने लगा कि रावल जी की सवारी आई। तब राव जी भी सिर पर मौर और माथे पर सेहरा बांधकर अपने डेरे से बाहर निकले और घोड़े की पूजा करके उस पर सवार हुए। बारात चढ़ी, कुछ दूर जाकर सब जुलूस थम गया। फर्श-फरूश तकिया-मसनद लगा दिए गए। रावल और राव दोनों अपने-अपने घोड़ों से उतरे और गले मिले। फिर निशान का हाथी आगे की तरफ बढ़ा और उसके साथ दोनों महाराजे किले की तरफ चले। दरवाजे पर पहुँचकर रावल जी तो अन्दर तशरीफ ले गए और राव जी तोरन बांधने की रसम अदा करके पीछे पहुंचे। रनिवास में फिर दोनों मिलकर एक साथ मसनद पर बैठे।

राजमहल में शादी की तैयारी हो गई। नाजिर राव जी को बुलाने आया। राव जी के साथ रावल जी भी उठे मगर राव के सरदारों ने उन्हें रोका कि आप हमें अकेला छोड़कर कहां जा रहे हैं। रावल ने झांसा देकर कहा कि यहां से चला जाऊं, मगर कौन जाने देता है। राव के सरदारों ने उनका हाथ पकड़कर बीच में बिठा लिया। अब तो लेने के देने पड़ गए। जाते थे राव को मारने, अब अपनी ही जान के लाले पड़ गए। उनके सरदार भी सब सिट्टी-पिट्टी भूल गए। इधर राव जी बेखटके धीरे से रनिवास में दाखिल हो गए।

जनानी ड्योढ़ी में पहुंचते ही उम्मादे की मां ने राव जी की आरती उतारी, उनके माथे पर दही का टीका लगाया और जी में कहा कि ऐसे ही मेरा कलेजा ठंडा रहे। इसके बाद नाक खींचकर (जैसे वर की रवाना होने से पहले उसे दूध पिलाती है, वैसे ही सास उसके माथे पर दही लगाती है, यानि उसे अपनी लड़की का पति मान लेती है। कहावत है, दही की बात सही) अपना दुपट्टा उनके गले में डालकर उन्हें चंवरी में ले आयीं।

ब्राह्मण बड़े मधुर स्वर में वेद-मंत्र पढ़ने लगे। आग में आहुति पड़ी। हवन होने लगा। राव जी का हाथ उमादे के हाथ से मिलाया गया। उमादे आगे हुई और राव जी पीछे-पीछे चले। तीन बार हवन-कुण्ड की परिक्रमा की। नव औरतें यह गीत गाने लगीं—

पहले फेरे बाई काकारी भतीजी
दूजे फेरे बाई मामारी भतीजी
तीजे फेरे बाई बुआरी भतीजी


गीत का मतलब यह है कि बाप लकड़ी उस वक्त दे चुकता है जब दामाद से गले मिलता है, मां उस वक्त जब वह दामाद के माथे पर दही का टीका लगाती है। उसके बाद वेद और शास्त्र के अनुसार लड़की का विवाह होता है। उस वक्त उस पर चाचा, मामा, और बुआ का थोड़ा-बहुत हक रह जाता है। अगर चाचा को कुछ कहना हो या आपत्ति करनी हो तो पहले फेरे तक कर सकता है, मामा दूसरे फेरे तक और बुआ तीसरे फेरे तक। चौथे फेरे में लड़की पराई हो जाती है, फिर किसी का उस पर कोई हक बाकी नहीं रह जाता। इसीलिए चौथे फेरे के पहले ही दूल्हा-दुल्हन के आगे आ जाता है। कि जैसे उस वक्त से वह उसका पति और स्वामी माना जाता है। इस गीत में यह भी प्रकट होता है कि बुआ का हक लड़की पर बहुत माना गया है।

चौथे फेरे में राव जी आगे हो गए और उमादे उनके पीछे चलने लगी। तब औरतों ने यह पिछला गाकर अपना गीत पूरा किया-

चौथे फेरे बाई हुई रे पराई।


गीत सुनते ही मां और बहनों के दिल भर आए। आंखों से आंसू टपकने लगे कि अब प्यारी उमादे पराई हो गई। इस तरह यह शादी बैशाख सुदी तीन संवत् १५९३ की रात को अच्छी तरह सम्पन्न हुई।

रंग में भंग

शादी हो जाने के बाद लड़की अपने महल में चली गई। बूढ़ी औरतें इधर-उधर खिसक गयीं। बहू की सहेलियां राव जी को उसके महल की तरफ ले चलीं। रास्ते में एक जगह गाना हो रहा था। कितनी ही चन्द्रवनी सुन्दरियां सुहाग के गीत अलाप रही थीं। राव जी चलते-चलते वहां फिसल पड़े। औरतों के गाने और रूप-रंग ने उन पर जादू कर दिया। वहीं डट गए। खवासें दौड़ीं। एक ने चांदनी, दूसरी ने सोजनी और तीसरी ने तकिए लगा दिए। पांच-सात सखियों ने मिलकर छोटा-सा शामियाना खड़ा कर दिया। राव जी लट्टू हो गए, फिर क्या था वहीं बैठ गए। दो खवासें दाएं-बाएं मोरछल लेकर खड़ीं हो गयीं, दो चंवर हिलाने और पंखा हिलाने लगीं। गर्मियों की सुहानी रात। चांदनी छिटकी हुई थी। ठण्डी हवा चल रही थी। भीनी-भीनी खुशबू चारों तरफ फैली हुई थी और राव जी उस परिस्तान में इन्द्र बने परियों से चुहल और छेड़-छाड़ कर रहे थे। गाइनें चुप थीं और सामने कुछ फासले पर चन्द नाचने वालियां बनी-ठनी इशारे का इंतजार कर रही थीं।

कलोल करने वालियों में से एक लड़की ने आगे बढ़कर राव जी को सलाम किया और सोजनी से कुछ हटकर बैठी और गानेवालियों को इशारा किया कि हां कुछ छेड़ो, खड़ी मुंह क्या ताकती हो।

बस तबले पर थाप पड़ी और गानेवालियां ऊंचे और मीठे सुरों में गाने लगीं–

भर ला ऐ सुघड़ कलाली
पीवनवालो लाखों रो


इस लड़की ने जो चन्द्रज्योति के नाम से मशहूर थी, पन्ने के हरे प्याले में लाल शराब भरकर हंसते हुए राव के सामने पेश की। उन्होंने बड़े शौक से लेकर शराब पी और प्याला अशर्फियों से भरकर लौटा दिया। चन्द्रज्योति ने उठकर सलाम किए और अपने गले का चन्द्रहार तोड़कर उसके मोती राव जी पर से निछावर करके गानेवालियों की तरफ फेंकने लगी। गाइनें सोरठ के सुर में गाने लगीं।

बिरज देसां चन्दन बनां मीरों पहाड़ां मोड़
गरुड़ खगां लंका गढ़ां राजकुलां राठौर

(देश में वृज, वनों में चंदन, पहाड़ों में मीरो, चिड़ियों में गरुड़ और किलों में लंका सबका सरताज है। वैसे ही सब राजघरानों में राठौर का घराना सबसे ऊंचा है।)

चन्द्रज्योति ने फिर प्याला भर कर राव जी को दिया और गाइनें गाने लगीं—

दारू पियो रन चढ़ो राता राखो नैन
बैरी तुम्हारा जल मरे सुख पावेगा सैन।

(शराब पियो और लड़ने को चढ़ो, आंखें लाल रक्खो जिससे तुम्हारे दुश्मन जल मरें और दोस्त खुश हों।)

दारू दिल्ली आगरा दारू बीकानेर
दारू पियो साहब सौ रूपां रा फेर

(शराब ही दिल्ली आगरा है और शराब ही बीकानेर। ऐ साहब, शराब पीजिए, इसका एक-एक दौर सौ-सौ रुपये का है)

सोरठ तो दूहा भलो कपड़ा भलो सफेद
नारी तो नबली भली घोड़ा भलो कुमैत
भर ला ऐ सुघड़ कालाली।

(पदों में दोहा, कपड़ों में सफेद कपड़ा, औरतों में नवेली औरत और घोड़ों में कुमैत घोड़ा अच्छा होता है। ऐ छोकरे शराब ला।)

इन गाने-बजाने और तपस्विनियों का व्रत भंग करने वाली स्त्रियों के लुभाने-रिझाने ने राव जी का दिल छीन लिया। उस पर गानेवालियों का समवेत स्वर में तान लगाना और भी सितम ढा गया। राव जी ऐसे बेसुध और आनन्द की सुरा में ऐसे मस्त हुए कि अपनी नई-नवेली दुल्हन को भूल गए, जो उनकी प्रतीक्षा में अपनी बाहें खोले खड़ी थी।

रावजी की राह देखते-देखते उमादे की नशीली आंखें झपकने लगीं। कितनी ही बांदियां उनको बुलाने के लिए गयीं पर राव जी उन परियों के जमघट से न उठ सके यहां तक कि रात बहुत कम बाकी रह गई।

रानी ने जब देखा कि वह और किसी के बुलाने से नहीं आते हैं तो अपनी चंचल सहेली भारीली से कहा कि अब राव जी को लाना तेरा ही काम है। उसने कहा कि राव जी इस वक्त आपे में नहीं हैं, मुझे न भेजिए। मगर उमादे ने न माना और उसी को भेजा।

इधर शादी की महफिल भी सजी हुई थी। गाइनें तैयार बैठी थीं। शराब की बोतलें चुनी हुई थीं। गजक तश्तरियों में धरी हुई थी। सिर्फ राजा के आने की देर थी। रानी को यकीन हो गया कि भारीली गई है तो राजा को जरूर ही खींच लाएगी। गानेवालियों को इशारा किया कि कुछ छेड़ो और वह मीठे सुरों में गाने लगीं—

महलां पधारो महाराज हो
दारू रा भारो महलां पधारो, महाराज हो
कदरी जोहूं सेजां बाट हो

(महाराज, महलों में तशरीफ ले चलिए। ऐ शराब का मजा उड़ाने वाले, महलों में चल। मैं बहुत देर से सेज पर इंतजार में बेचैन हो रही हूं।)

मौके महल के मुताबिक गीत सुनकर उमादे मुस्कराई और फिर लजाकर आंखें नीचे कर लीं। इस वक्त उसके यौवन के नशे में मस्त दिल की जो कैफियत हो रही थी, बयान नहीं की जा सकती। खवासें, सहेलियां दम-दम पर दौड़ाई जाती थीं कि देख राजा जी आ तो नहीं रहे हैं। प्रेमिका इंतजार से बेचैन हो रही थी। गानेवालियों ने गीत का दूसरा बन्द गाया–

मथुरा पुंगल पराग मरो लाहौरी भटनेर
देरावर गढ़ गजनी और नगर जैसलमेर
महलां पधारो, महाराज हो।

(मथुरा, पुंगल, प्रयाग, मारवाड़, लाहौर, गजनी देरावर, भटनेर और जैसलमेर, यह सब देश भाटियों के हैं। ऐ महाराज, महलों में तशरीफ ले चलिए)

अबकी सहेलियों ने उमादे पर से कुछ अशर्फियां न्योछावर करके गादने को दीं और उन्होंने खुश होकर यह दूसरा गीत शुरू किया–

तारां छायी रात फूलों छायी सेज
गोरी छायी है रूप प्यारे बेगां बेगां आओ।
रंग मानो हमारे राव

(ऐ मेरे राव, जवानी के मजे लूटिए। रात तारों से, सेज फूलों से और गोरी मस्ती के जोश से भरी हुई है, प्यारे जल्द आकर सुख लूटो।)

इतने में एक खवास ने कहा कि वहां राव जी नशे में चूर बैठे हैं और सुराही और प्याले के गीत अलापे जा रहे हैं। वह सुनकर गानेवालियों ने यहां भी गीत शुरू कर दिया, बस उसके पद बदल दिए–

भर ला ऐ सुघड़ कलाली दारू दाखां रो
सोने री भट्टी सरूं रूपे ही घर नार
हाथ पिलायो धन खड़ी पीयो राजकुमार

(ऐ सुघड़ साकी, अंगूरी शराब भर ला। सोने की भट्टी और चांदी का बीका बनाऊं। रानी अपने हाथ में प्याला लिए कहती हैं, राजकुमार, तुम पियो।)

आम फले पतदार सों महू फले पतखोय
ताको रस साजन पिए लाज कहां ते होय

(आम पत्तियों के साथ फलता है और महुआ अपने पत्ते खोकर। उसका रस साजन पीता है फिर उसे लाज क्योंकर आए? जिस वक्त महुए के फूल लगते हैं सारे पत्ते झड़ जाते हैं। पत में श्लेष है। पत का मतलब पत्ता भी है और लाज भी। मतलब यह है कि शराब बे शर्म महुए से बनाती है तो शराब पीने वाला क्योंकर लाज निभा सकता है।)

महलों में पुकार पड़ी है और ऐ बेटे राजकुमार, तुमको आने की फुर्सत नहीं। इधर चंचल, शोख, भारीली कुछ इस अंदाज में इठलाती, लचकती, बलखाती राव जी के पास पहुंची कि वह जवानी और शराब की मस्ती में उसी को रानी समझकर उसके साथ चल दिए। भारीली ने भी उन्हें वहां से हटा ले जाना ही ठीक समझा। मगर वह भी चुलबुली तबीयत की लड़की थी, राव की नजर अपने ऊपर बेढब पड़ते देखकर ललचा गई। यह न कहा बन्दी रानी नहीं, बांदी ही है। बल्कि राव जी को धोखे में डालकर अपने घर ले गई। रानी उमादे ने जब यह सुना तो सन्नाटे में आ गई। और उसकी गाइनें गाने लगीं–

भर ला ऐ सुघड़ कलाली
पहलां तोछी कलाली हमारा मारो जी रे ले भालिनी
अब छे आलीलारी घर नार

(भरा ला ऐ सुघड़ कलाली, अंगूरी शराब ला। पहले तो कलाली उसकी प्रेमिका थी, पर अब तो उस आलीजाह की घरवाली हो गई है।)

बिजलियां माडे चियान ऊपर ले रलियां
परदेसियां रा साजना पती जे मिलियां

(जैसलमेर देश में जह बिजलियां चमकती हैं वह ऊपर की ऊपर चली जाती हैं। ऐसे ही परदेशी साजन से मिलने का यकीन नहीं होता)

गड़री लीनी बांधी चली कपास
दासी दीनी बिच गई पिऊ रे पास

(भेड़ ली तो थी उनके लिए पर अब वह बंधी हुई कपास चरती है। लौंडी दहेज में दी गई थी, अब वह पिया से हिल-मिल गई है।)

उमादे का विलास भवन राव जी की इस उदासीनता में ठंडा पड़ गया। उसकी चढ़ती हुई जवानी, नहीं मालूम दिल में क्या-क्या उमंगें जोश मार रही थीं। क्या-क्या हौसले पैदा हो रहे थे, उसने पति के स्वागत में क्या-क्या तैयारियां न की थीं, सुराही और प्याला, नाच और गाने, बनाव-चुनाव में कोई कसर न छोड़ी थी मगर अफसोस सब सामान धरा रह गया। वह झल्लाकर उठी, गानेवालियों से कहा, तुम लोग जाओ, और सुराही व जाम उठाकर पटक दिए। वह थाल जो आरती के लिए बहुत रचकर सजाया था और जो सुनहले दीपों से जगमगा रहा था, उसने औंधा कर दिया और गम गुस्से की हालत में पलंग पर मुंह लपेटकर सो रही। उस वक्त जो ख्यालात उसके दिल में पैदा होते थे उनका अंदाजा लगाना मुश्किल है। अगर राव मालदेव यों न बहक जाते तो अब तक ही कमरा स्वर्ग बना होता, अंगूरी शराब के दौर चलते होते, सुरीले रागों से कमरा गूंजता होता—और प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे के दर्शन के मजे लूटते होते। मगर यह बातें अब कहां।

सवेरा हुआ। राव जी का नशा उतरा। जिस छोकरी को रानी समझे हुए थे, उसे देखा तो पानी का घड़ा और चिलमची लिए शाही महल की तरफ जा रही है। समझ गए बड़ा धोखा हुआ। उसी वक्त शरमाए हुए महल में गए। वहां का सन्नाटा, महल की वीरानी और रानी की बेरुखी देखकर दिल बैठ गया। बोले–

मान गुमानी कामिनी उमादे बड़ भाग
रूठी बैठी सेज में मालदेव पिया को त्याग।

(ऐ बड़े रुतबेवाली नाजनीन उमादे, तू जिद में आकर क्यों अपने पिया से रूठी सेज पर बैठी हुई है?)

राव जी को देखते ही वह उठ खड़ी हुई पर मुंह से कुछ न बोली। भवों की कमान को खींचकर, उसमें पलकों के तीर पर निशाना लगाए हुए, हाथ मरोड़े, मुंह मोड़े गोरी पी से भरी बैठी है।

खवासें दूर-दूर चुप खड़ी थीं। भारीली का डर के मारे लहू सूखा जाता था। पर गानेवालियां बन्द न हुईं। वे गाने लगीं-

ऐ शराब में मस्त महाराज
तुम्हें शराब किसने पिलाई।


राव जी ने बहुत कहा कि मैं नशे में था, इस वजह से ऐसी गलती हुई मगर रानी ने एक न सुनी। गानेवालियों ने भी राव के इशारे से बहुत से रूठे हुए को मानने वाले गीत गाए मगर रानी पर कुछ असर न हुआ। इस झमेले में दिन बहुत चढ़ आया। आखिरकार राव जी यह सोचकर कि फिर मना लेंगे, महल से बाहर निकल आए। उसी वक्त उनके सरदार भी रावल जी के पास से उठे।

राव जी ने फिर महल के अन्दर जाकर अपनी जान खतरे में डालना ठीक नहीं समझा। बाहर ही से रुखसती की दरख्वास की। रावल जी भी यही चाहते थे कि भेद न खुले। चुपचाप विदाई हो जाए।

उमादे राव जी के साथ जाने को राजी नहीं होती थी। राघोजी ज्योतिषी ने यह सुना तो उसने कहा कि कल तुम्हें राव जी की जान प्यारी थी, क्या आज वह प्यार जाता रहा? उनकी जान अभी तक खतरे में है इस वक्त रूठने का मौका नहीं है।

यह सुनकर रानी नर्म हुई। हिन्दू राजा की लड़की थी और हिन्दू धर्म को मानने वाली, जो पत्नी को पति की पूजा करने की शिक्षा देता है। मां के पास गयी, कुछ देर सखियों के गले मिलकर रोती रही, फिर दो घूंट पानी पिया और चुपचाप सुखपाल में बैठ गयी।

राव जी के कहने से उमा देवी ने भारीली को भी अलग एक रथ में बिठा लिया, गोया अपनी तबाही को अपने साथ ले चली। ज्योतिषी जी पहुंचाने के बहाने से साथ हो गए। उनके बेटे चण्डो जी पहले से राव के लश्कर में आ गए थे क्योंकि इन दोनों को डर था कि रावल जी कहीं पीछे से उनकी मरम्मत न करें। क्योंकि रावल जी को संदेह हो गया था कि इन्हीं दोनों की साजिश से शिकार हाथ से गया।रानी की हठ

रानी उमादे अपनी जिद पर कायम रही। राव जी से न बोलती है, न उन्हें अपने पास बैठने देती है। राव जी आते हैं तो वह उनका बड़े अदब से स्वागत करती है मगर फिर अलग जा बैठती है। उसके माशूकाना अंदाज और शक्लसूरत से राव जी को बहुत मोह लिया है। वह बहुत चाहते हैं कि और कुछ न हो तो व जरा हंसकर बोल ही दे। मगर रानी उनको बिल्कुल खातिर में नहीं लाती। इसके साथ ही साथ वह भारीली से भी कुछ खिंची-खिंची रहती है। भारीली अपने मामूली काम किए जाती है और आंख बचाकर राव जी से हंस-बोल लेती है।

राव जी समझते थे कि भारीली ही ने मेरी जान बचायी। वह उनसे कहती कि आप ही की बदौलत यह नाकदरी हो रही है। अब मेरी लाज आपके हाथ है। अगर आपने मन मैला किया तो मैं कहीं की न रहूंगी। राघोजी ज्योतिषी ने भी कहा कि अगर भारीली मुझसे भेद न बताती तो जो सेवा मैंने आपकी की है वह हरगिज न कर सकता था।

राव जी इतना तो जानते थे कि रावल जी की बुरी नीयत की खबर मुझे ज्योतिषी जी ने दी और ज्योतिषी जी को भरीली से इसका पता लगा मगर वह यह न जानते थे कि भारीली से कहने वाला कौन था। उनका हाल तो जब मालूम होता कि रानी उमादे अपने मुंह से कुछ कहती। मगर वह तो भारीली, राव जी और ज्योतिषी, सबों से ऐसी खिन्न हो रही थी कि जबान ही न खोलती थी। उसका धर्म यह कहता कि तेरा यों रूठे रहना शोभा नहीं देता। मगर उसका दिल नहीं मानता था। वह जब तबीयत को दबाकर कुछ बातचीत करने की नीयत करती तो कोई जबान पकड़ लेता, बेचारी अपने दिल से लाचार थी।

भारीली उमादे की इस खामोशी से डरती रहती है कि कहीं मुझ पर बरस न पड़े। एक दिन दिल कड़ा करके वह उसके पैरों पर गिर पड़ी और गिड़गिड़ा कर कहने लगी कि बाई जी, आप जो चाहें सोचें, आपको अख्तियार है। मगर मैंने तो उस वक्त भी आपकी भलाई ही की थी, जब आपने मुझे राव जी को लेने के लिए भेजा था क्योंकि महल के बाहर निकलते ही मुझे संदेह हुआ कि कोई आदमी जनाने भेष में राव जी पर ताक लगाए हुए है। इसलिए मैंने उन्हें आपके महल में लाना खतरे से खाली न समझा और अपने घर लिवा ले गयी। राव जी नशे में मतवाले हो रहे थे। रात-भर सोते रहे और मैं कटार लिए खड़ी रही। जब उनकी नींद खुली और वह अपने होश में आए तो मैं आपकी खिदमत में हाजिर हो गई। अगर इसमें मेरी कुछ खता हो तो माफ करें।

उमादे ने यह सब बातें सुन तो लीं पर मुंह से कुछ न बोली। भारीली खिसियानी होकर चली गयी।

बारात जोधपुर पहुंच गई। दीवान और मंत्री बड़ी धूमधाम से अगवानी को आए। कोसों दूर तक फौज और तमाशाइयों का तांता लगा था। किले में पहुंचते ही रानीवास की तरफ से बाजों के साथ फूल-पत्तों से सजा हुआ एक कलसा आया। राव जी उसमें अशर्फियां डालकर अन्दर चले गए। वहां उनकी मां रानी पद्माजी ने बेटे और बहू पर से अशर्फियां निछावर कीं। बेटे और बहू ने उनके पैर चूमे। अन्दर जाकर देवी-देवताओं की पूजा की गयी और उमादे एक सजे हुए महल में उतारी गयी।

राव जी के और भी कई रानियां थीं और उनके बाल-बच्चे भी थे। पटरानी आमेर के राजा भीम की बेटी लाछनदेई थी। राव जी का बेटा कुमार राम इसी रानी से पैदा हुआ था। झाले की रानी सरूपदेई सब रानियों में सुन्दर थी। उसने राव जी का मिजाज बिलकुल अपने काबू में कर रखा था। मगर जब से उसको मोतबर खबर मिली थी कि उमादे मुझसे सुन्दरता में कहीं बढ़-चढ़कर है तब से उसकी छाती पर सांप लोट रहा था। डरती थी कि कहीं राजा साहब मुझे नजरों से गिराकर उसी के वश में न हो जाएं। लेकिन जब आज उसने सुना कि वह पहली ही रात को रूठ गयीं और यहां आकर भी खिंचाव है तब उसकी जान में जान आयी।

मां से रुखसत होकर राव जी झाली रानी सरूपदेई के महल में तशरीफ ले गए। उसने बड़ी खुशी से दौड़कर राव जी के पैर छुए और अपना मोतियों का अनमोल हार तोड़कर उन पर मोती निछावर किए। वह उमादे के खिंचे होने और झल्लेपन से बहुत खिन्न और दुःखी हो रहे थे। रानी सरूपदेई की इस गरमा-गरमी और जोश-तपाक से बहुत खुश हुए और उसे शादी का सब हाल सुनाने लगे। रानी ने सुनकर अर्ज की– ‘‘अगर आप कहें तो एक दिन मैं भी भट्टानी जी से मिल आऊँ।’’

राव जी– ‘‘भट्टानी क्या हैं, एक भाटा हैं।’’

सरूपदेई– (हंसकर) ‘‘वाह, आपने बड़ी इज्जत की। भाटा क्यों होने लगीं, भट्टानी हैं।’’

राव जी– ‘‘हां भट्टानी तो हैं मगर पत्थर की बनी हैं। घमण्ड की सच्ची मूरत।’’

सरूपदेई– ‘‘ईश्वर ने रूप दिया है तो घमण्ड क्यों न करें। क्या आपको यह बात भी न भायी।’’

राव जी– ‘‘आखिर घमण्ड की भी कोई हद होती है।’’

सरूपदेई– ‘‘भला जो एक बड़े घर की बेटी हो, बड़े राव की रानी हो नवेली दुल्हन हो, नौजवान हो, सुन्दर हो, उसके घमण्ड की क्या हद हो सकती है। मुझ जैसे गरीब घर की क्या घमण्ड करेगी।’’

राव जी– ‘‘यह सब तुमने ठीक कहा। मगर उसका स्वभाव सचमुच बहुत कठोर और रूखा है। तुम उससे मिलकर खुश न होगी।’’

सरूपदेई– ‘‘अच्छा, तो आप तशरीफ ले चलिए, हम सब आपके साथ-साथ चलेंगे।’’

राव जी– ‘हंसकर) ‘‘ठीक है, तुम्हारे साथ चलाकर अपनी बेइज्जती कराऊं।’’

सरूपदेई– (गर्म होकर) ‘‘वह क्या उसका बाप भी आपकी बेइज्जती नहीं कर सकता।’’

राव जी– ‘‘और चाहे तो पति की बहुत कुछ तौहीन कर सकती है। अगर तुम्हारे सामने वह मुझसे मुखातिब न हुई तो बतलाओ मेरी बेइज्जती हुई या नहीं?’’

सरूपदेई– ‘‘जब आप इतनी-सी बात में अपनी बेइज्जती समझेंगे तो उसका घमण्ड क्यों कर निभेगा और कौन निभाएगा?’’

राव जी– ‘‘हां, यही देखना है।’’

उमादे और उसकी सौतिनें

रानी सरूपदेई ने सब रानियों से कहला भेजा कि भट्टानी से मिलने के लिए तैयारी कीजिए। दूसरे दिन सब रानियां बन-ठनकर बड़े ठस्से से उमादे के महल में आयीं। उमादे ने उठकर रानी लाछलदेई को सबसे ऊपर बिठाया और ज्यादातर उसी से बातचीत की; बाकी सब रानियों से मामूली तौर पर मिली और बहुत कम बोली। इसलिए वह दिल में बहुत कुड़बुड़ाई और उसकी शकल-सूरत को देखकर तो उनके दिलों पर दाग पड़ गए।

लौटने पर लाछलदेई तो अपने महल में चली गई, बाकी रानियां सरूपदेई के महल में जमा होकर मशविरा करने लगीं और बहुत दिमाग खर्च करने के बाद यह राय तय कर पायीं की उमादे तो रूठी ही है राव जी को भी जोड़-तोड़ लगाकर उससे खफा करा देना चाहिए ताकि वह उसके महल में जाना बिलकुल छोड़ दें। क्योंकि अगर कभी उसने हंसकर राव जी की तरफ देख लिया तो वह उसी के हो जाएंगे। इतने में राव जी आ गए और पूछा– ‘‘कहो भट्टानी जी कैसी हैं?’’

सरूपदेई– ‘‘हैं तो बहुत अच्छी, पर अल्हड़ बछड़ी है।’’

राव जी– ‘‘तब तो दुलत्तिया भी झाड़ती होंगी।’’

सरूपदेई– ‘‘हमें इससे क्या, जो पास जाए वह लात खाए।’’

राव जी– ‘‘जिसे दुलत्तियां खानी होंगी, वही पास जाएगा।’’

सरूपदेई– ‘‘सौ बात की एक बात तो यही है।’’

तब राव जी ने दूसरी रानी से भी राय पूछी। रानी पार्वती ने कहा– ‘‘महाराज, वह बड़ी घमंडिन है। अपने बराबर हमें क्या मांजी को भी नहीं समझती।’’

झाला रानी हीरादेई ने फरमाया– ‘‘महाराज, कुछ न पूछिए, अपने सिवा वह सबको जानवर समझती हैं।’’

आहड़ी रानी लाछलदेई बोलीं– ‘‘मैं तो जाकर पछतायी। उसकी मां ऐसी जिद्दी छोकरी न जाने कहां से लाई। उसकी आंखों में न लाज है न बातचीत में लोच। मैं तो आपको उसके पास न जाने दूंगी।’’

सोगरा रानी लाडा ने कहा– ‘‘वह तो मारे घमण्ड के मरी जाती है। न आए की इज्जत है न गए की खातिर। ऐसी महारानी के पास कोई जाकर क्या करे।’’

चौहानी रानी इन्दर बोलीं– ‘‘महाराज, मैंने बहुत औरतें देखीं, एक से एक सुन्दर, मगर ऐसा फिरा हुआ मिजाज किसी का न देखा। न जाने उसके गोरे बदन में कौन सा भूत समा गया है।’’

रानी राजबाई ने फरमाया—‘‘गोरी-चि्ट्टी हैं तो क्या, लच्छन तो दो कौड़ी के भी नहीं हैं। बड़े घर आ गयी हैं, नहीं तो सारा घमण्ड धरा रहता।’’

झाला रानी नौरंगदेई बोली—‘‘जवानी के नशे में दीवानी हो रही है। यही नहीं जानतीं, जवानी सब पर आती है, कुछ उसी पर नहीं है। कल जवानी जाती रहेगी तो यह सब दिमाग खाक में मिल जाएगा।’’

यह सब जहरीली बातें सुन-सुनकर राव जी को भी गुस्सा आ गया। उन्होंने उमादे के यहां आना-जाना कम कर दिया। कभी जाते तो उसे एक निगाह देखकर चले आते। उमादे भी सिर्फ उनके आदर के लिए खड़ी हो जाती, कुछ बातचीत न करती।

राव जी की दो और भट्टानी रानियां थीं, उनसे वह उमादे के बारे में कुछ बातचीत न करते क्योंकि वह जानते थे कि उन्हें उमादे कि शिकायत नागवार गुजरेगी, वह भी राव जी से कुछ न कहतीं पर जी में यही चाहती थीं कि अगर उनका और उमा का मिलाप हो जाता तो बहुत अच्छा होता। एक दिन मौका ढूंढ़कर उन्होंने कछवाहा रानी लाछलदेई से कहा कि उमादे नादानी में अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रही है, अभी कमसिन है, सौतों के दांव-पेंच को क्या जाने ! अगर यही कैफियत रही तो बेचारी की जिन्दगी अजीरन हो जाएगी। आप देखती हैं कि अब राव भी उसके यहां कम जाते हैं। मगर उसकी अकड़ अभी तक ज्यों की त्यों है। रावजी को ऐसी बेरुखी नहीं दिखलानी चाहिए। वह भरी अभी अल्हड़ है। अगर नादानी करे तो माफी के काबिल है। मगर राव जी अक्लमंद होकर क्यों रूठते हैं?

लाछलदेई बहुत नेक और समझदार औरत थीं। उन्होंने वादा किया कि मैं राव जी से इसका जिक्र करूंगी। लिहाजा एक दिन शाम के वक्त वह राव जी की खिदमत में हाजिर हुई और इधर-उधर की बातचीत करते-करते पूछा– ‘‘आपने अपनी नई रानी के पास आना-जाना क्यों कम कर दिया?’

राव जी– मैं तो बराबर आता-जाता था, मगर उसी ने रूठकर मजा किरकिरा कर दिया।’’

रानी लाछल०– ‘‘वह रूठी क्यों, मुझे इसका भेद अब तक न खुला।’’

राव जी– ‘‘भारीली की बदौलत।’’

लाछल०– ‘‘फिर आप भारीली को क्यों इतना मुंह लगाते हैं? वह उमा के बराबर की नहीं है।’’

राव जी– ‘‘इसमें मेरी क्या खता है? उमादे ही ने उसे मेरे पास भेजा था।’’

लाछल०– ‘‘ठीक है, मगर चाहिए कि भारीली अपनी जगह रहे और उमा उमा की जगह।’’

राव जी– मैं भी तो यही चाहता हूं पर उमा नहीं मानती। उसके जी का कुछ हाल ही नहीं खुलता कि आखिर क्या मंशा है। तुम जरा पता तो लगाओ।

लाछल०– ‘‘बहुत अच्छा, कोई मौका आने दीजिए।’’

रानी लाछलदेई ने यह सब बातें उमा से कहीं। उसने उनको धन्यवाद दिया मगर इसका कुछ नतीजा न निकाला। हां, उमा को यह मालूम हो गया कि यहां भी एक औरत ऐसी है जो मेरे दुःख को समझ सकती है, अब वे अक्सर लाछल से मुलाकात करके उससे दिल बहलातीं और उसे जीजी बाई कहती उसके लड़के कुमार राम को भी बहुत प्यार करतीं।मनाने की कोशिशें

दूसरे साल राव मालदेव ने अपने राज्य में दौरा करना शुरू किया और घूमते हुए अजमेर जा पहुंचे। वहां कुछ दिनों तक किले में उनका कयाम रहा जो किसी जमाने में बीसलदेव और पृथ्वीराज जैसे प्रतापी महाराजों के स्वर्ण सिंहासन से सुशोभित होता था। राव जी को इस किले पर राज करने का बहुत गर्व था। एक रोज इतराकर अपनी चौहानी रानियों से कहने लगे– ‘‘इसे खूब अच्छी तरह देख लो। यह तुम्हारे बुजुर्गों की राजधानी है।’’

चौहान रानियों को यह व्यंग्यात्मक वाक्य बहुत बुरा लगा। राव जी राठौर थे। भला चौहान किसी राठौर की जबान से ऐसी बात सुनकर क्योंकर जब्त कर सकता? दोनों खानदानों में शादी-ब्याह होता था मगर वह पुरानी शत्रुता दिलों में साफ न हुई थीं। चुनांचे मियां– बीबी में भी बहुत बार आपस में कड़ी-कड़ी बातों की नौबत आ जाती थी।

रानियों ने जवाब दिया– ‘‘आप हमारे मालिक हैं, हम आपके मुंह नहीं लग सकते। मगर हमारे बड़े जैसे थे, उन्हें आपके बड़े ही खूब जानते होंगे।’’

यह जवाब राव जी के सीने में तीर की तरह लगा क्योंकि वह रानी संयोगिता और पृथ्वीराज के स्वयंवर की तरफ इशारा था। गुस्से में भरे हुए रनिवास से बाहर निकल आए। उस वक्त काली-काली घटाएं छाई हुई थीं, कुछ बूदें पड़ रही थीं। बाहर निकलते ही उन्होंने आवाज दी, कौन हाजिर हैं?

ईश्वरदास चारण ने आगे बढ़कर मुजरा किया और बोला– ‘‘हुजूर खैरंदेश हाजिर है।’’

राव जी– ‘‘अभी आप जागते हैं? मुझे अन्दर नींद नहीं आयी, जरा कोई कहानी तो कहो। मैं यहीं लेटूंगा, ठण्डी हवा है, शायद नींद आ जाए।’’

ईश्वरदास– ‘‘जो आज्ञा। बैठिए।’’

राव जी बैठ गए और ईश्वरदास कहानी कहने लगा। कहानी के बीच में उसने यह दोहा पढ़ा-

मारवाड़ नर नारी जैसलमेर

तोरी तो सिधां निरां करमल बीकानेर।

यानी मारवाड़ में मर्द, जैसलमेर में औरतें, सिंध में घोड़े और बीकानेर में ऊंट अच्छे होते हैं।

राव जी ने इस दोहे को सुनकर फरमाया– ‘‘चारण जी, बेशक जैसलमेर की औरतें बहुत अच्छी होती हैं पर मुझे तो वह जरा भी रास न आयी।’’

ईश्वरदास– ‘‘यह हुजूर क्या फरमाते हैं। जैसलमेर की अच्छी औरत उमादे तो...’’

राव जी– (बात काटकर) ‘‘अजी, वह तो सात फेरों की रात से ही रूठी बैठी है।’’

ईश्वरदास– ‘‘हुजूर गुस्ताखी माफ, आपने उसे भी मामूली औरत समझा होगा। खैर, चलिए बंदा अभी मेल कराए देता है।’’

राव जी ने भी ख्याल किया कि यह बात बनाने वाला आदमी है। क्या अजब है, रानी को बातों में लगाकर ढर्रे पर ले आए। उसके साथ उमादे के महल की तरफ चले। यकायक चलते-चलते रुक गए और ईश्वरदास से बोले– ‘‘आप चलते तो हैं मगर वह बोलेंगी भी नहीं।’’

ईश्वरदास– ‘‘हुजूर, मैं चारण हूं, चारण चाहे तो एक बार मुर्दें को जगा सकता है। वह तो फिर भी जीती है।’’

दरवाजे पर पहुंचकर ईश्वरदास जी ने राव जी को अपने पीछे बिठा लिया और उमादे से कहला भेजा कि मैं राव जी के पास से कुछ कहने के लिए हाजिर हुआ हूं। उमादे पर्दें के पीछे आ बैठी। ईश्वरदास से बड़े अदब से कहा– ‘‘बाई जी, सलाम कबूल हो।’’

उमादे ने कुछ जवाब न दिया। ईश्वरदास न फिर कहा– ‘‘मेरा मुजरा कबूल हो।’’ जब उसका भी जवाब न मिला तो राव जी ईश्वरदास के कान में धीमे से कहा– ‘‘देखो, मैं न कहता था कि वह न बोलेंगी। मुर्दा बोले तो बोले मगर उनका बोलना नामुमकिन है।’’

ईश्वरदास– ‘‘बाई जी, मैं भी आप ही के घराने का हूं। इसीलिए, बाई जी, बाई जी, करता हूं। अगर ऐसा न होता तो तुम देखतीं कि तुम्हारें खानदान को कैसा शर्मिंदा करता। यह कौन-सी इन्सानियत है कि मैं तो मुजरा अर्ज करता हूं और शर्मिंदा करता। यह कौन-सी इन्सनियत है कि मैं मुजरा अर्ज करता हूं और तुम जवाब तक नहीं देतीं?’’

उमादे ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।

ईश्वरदास ने फिर कहा– ‘‘बाई जी, आपने सुना होगा कि आपके पुरखों में एक रावत दवाजी थे। वह मुसलमानों से लड़ाई में काम आए थे। उनकी रानी ने चारण होपां जी से कहा कि बाबा जी, अगर रावत जी का सिर ला दो तो मैं सती हो जाऊं। होपां जी लड़ाई के मैदान में गए मगर कटे हुए सिरों के ढेर में रावत का सिर पहचाना न जाता था। उस वक्त होपां जी ने बड़ी सूझबूझ को काम में लाकर रावल जी की तारीफ करना शुरू की और उसको सुनते ही रावल जी का सिर हंस पड़ा। होपां जी उसे पहचान कर रानी के पास लाया। उसके बारे में एक दोहा मशहूर है–

चारण होपें सेव्यो साहब दुर्जन सल
बरदातां सर बोल्यौ गीता दोहां कल


यानी होपां चारण ने अपने मालिक दवाजी की सेवा की थी। इसलिए दवाजी का सर अपने वफादर नौकर की जबान से अपनी तारीफ सुनकर हंस पड़ा। यह बात गीतों और दोहों में मशहूर है। सो बाई जी, तुम भी उसी रावल दवाजी के घराने की हो। वह मरकर बोला, तुम जीती भी नहीं बोलती, क्या तुम्हारी रगों में बुजुर्गों का खून नहीं दौड़ता?

उमादे– (जोश मे आकर) ‘‘बाबा जी, मैं भी यही देखना चाहती थी कि देखू तुम्हारी जबान में कितनी ताकत है। कहो, क्या कहते हो और क्यों आए?’’

ईश्वरदास– ‘‘तुम्हारी सौतें कहती हैं कि वह अगरचे चंद्रवंश में पैदा हुईं, खुद भी चांद की तरह रोशन हैं, मगर चेहरे पर मैल अभी तक बाकी है। मैं यही पूछने आया हूं कि वह मैल कैसा है और क्यों बाकी है?’’

उमादे– ‘‘उन्हीं से क्यों न पूछ लिया?’’

ईश्वरदास– ‘‘वह तो कुछ साफ-साफ नहीं बतलातीं।’’

उमादे– ‘‘मैं साफ-साफ बता दूं?’’

ईश्वरदास– ‘‘इससे बढ़कर क्या होगा।’’

उमादे– ‘‘मुझमें यही मैल है मैं चाहती हूं कि राव जी बीवी और बांदी की पहचान रखें।’’

ईश्वरदास– ‘‘अब ऐसा ही होगा। रानी रानी रहेगी और बांदी बांदी।’’

उमादे– ‘‘तुम इसका पक्का कौल दे सकते हो?’’

उमादे– ‘‘अच्छा, हाथ बढ़ाओ।’’

ईश्वरदास ने राव जी का हाथ पकड़कर परदें में कर दिया।

उमा ने उसे देखकर कहा– ‘‘आह, यह तो वही सख्त हाथ है, जिसने मेरे कंगन बांधा।’’

ईश्वरदास– ‘‘तो दूसरा हाथ कहां से आवे।’’

यह सुनकर उमादे चली गयी और राव जी भी टूटा हुआ दिल लेकर उठ गए। मगर ईश्वरदास वहीं पत्थर की तरह जमा रहा। सारी रात बीत गयी, दिन निकल आया, सूरज की गर्म किरणें उसके माथे पर लहराने लगीं। पसीने की बूंदे उसके माथे से ढुलकने लगीं, मगर उसका आसन वहीं जमा रहा। उमादे ने एक थाल में खाना परसकर उसके लिए भेजा। उसने उसकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा बल्कि अंदर कहला भेजा– ‘‘बाई जी ने मेरा जरा भी लिहाज न किया। मुझे उन पर बड़ा भरोसा था कि वह मेरी बात हरगिज न टालेंगी, इसीलिए राव जी को अपने साथ लाया था। अब मुझे यहां मरना है। क्या बाई जी ने कभी चारणों द्वारा चांदी करने की घटना नहीं सुनी? जब चारण किसी झगड़े में हाथ डालते हैं और राजपूत उनकी बात नहीं मानते तो वह अपनी मरजाद और आबरू कायम रखने के लिए आत्महत्या कर लिया करते हैं।’’ यह सुनते ही उमादे घबराई हुई उसके पास आयी और पूछा– ‘‘क्या आप मुझ पर चांदी करेंगे?’’

ईश्वरदास– ‘‘जरूर करूंगा, नहीं तो राव जी को कौन सा मुंह दिखाऊंगा।’’

उमादे– ‘‘तो आपने मुझे वचन क्यों नहीं दिया?’’

ईश्वरदास– ‘‘राजा-रानी के झगड़े हैं, मैं कैसे जिम्मेदारी लेता? बीच में पड़ने वाले का काम सिर्फ मेल करा देना है। सो मैं राव जी को आपके पास ले ही आया था।’’

उमादे– ‘‘उन्हें लाने से क्या फायदा हुआ?’’

ईश्वरदास– ‘‘और तो कोई फायदा नहीं हुआ, हां मेरी जान के लाले पड़ गए।’’

उमादे– ‘‘खैर, यह बातें फिर होंगी, इस वक्त खाना तो खाइए।’’

ईश्वरदास– ‘‘खाना अब दूसरे जन्म में खाऊंगा।’’

उमादे चली गयी। थोड़ी देर बाद भारीली आई और घबराहट के स्वर में बोली– ‘‘चारण जी, आप क्या गजब कर रहे हैं, बाई जी ने अब तक कुछ नहीं खाया।’’

ईश्वरदास– ‘‘वह शौक से भोजन करें, उन्हें किसने रोका है?’’

भारीली– ‘‘भला ऐसा भी मुमकिन है कि चारण तो दरवाजे पर भूखा पड़ा रहे और कोई राजपूत औरत खुद खाना खा ले।’’

ईश्वरदास– ‘‘अगर बाई जी चारणों की इतनी इज्जत करती हैं तो उनकी बात क्यों नहीं मानतीं?’’

भारीली– ‘‘आप क्या कहते हैं?’’

ईश्वरदास– ‘‘मैं यही कहता हूं कि बाई जी राव जी से यह खिंचावट दूर कर दें।’

इतने में उमा भी निकल आई– ‘‘राव जी भी कुछ करेंगे या नहीं?’’

ईश्वरदास– ‘‘जो तुम कहोगी वह करेंगे। हाथ जोड़ने को कहोगी हाथ जोड़ेगें, पैर पड़ने को कहोगी पैर पड़ेंगे जैसे मानोगी मनाएंगे, मैंने यह सब तय कर लिया है।’’

उमा– ‘‘बाबा जी, आप समझदार होकर ऐसी बातें कैसे मुंह से निकालते हैं? क्या मेरे खानदान की यही रीति है और मेरा यही धर्म है? राव जी मेरे स्वामी हैं, मैं उनकी लौंडी हूं। भला मैं उनसे कह सकती हूं कि आप ऐसा कीजिए वैसा कीजिए। मैं तो रूठने पर भी उनकी तरफ से दिल में जरा मैल नहीं रखती और वह भी जैसे चाहिए मेरी इज्जत करते हैं। मेरा गर्व, मेरा अभिमान उन्हीं के निभाने से निभ रहा है। वह चाहते तो दम भर में मेरा घमण्ड चूर कर सकते थे। यह उन्हीं की कृपा है कि मैं अब तक जिन्दा हूं। स्वाभिमान हाथ से खोकर मैं जिन्दा नहीं रह सकती।’’

ईश्वरदास– ‘‘शाबाश, बाई जी, शाबाश, सती स्त्रियों के यहीं लक्षण हैं।’’

उमादे– ‘‘बाबा जी, अभी से शाबाश न कीजिए, जब यह धर्म आखिरी दम तक निभ जाए तो शाबाश कहिएगा।’’

ईश्वरदास– ‘‘अच्छा तो तुम फिर क्या चाहती हो?’’

उमा– ‘‘कुछ नहीं, तुम भोजन करो तो मैं भी कुछ खाऊं।’’

ईश्वरदास– ‘‘तुम जाओ, खाना खाओ, मैं तो तब खाऊंगा जब तुम मेरा कहना मान लोगी।’’

उमा– ‘‘अच्छा कहो, कौन-सी बात कहते हो।’’

ईश्वरदास– ‘‘राव जी से रूठना छोड़ दो।’’

उमा– ‘‘राव जी अगर मेरी जान मांगें तो दे सकती हूं, मगर मेरा दिल उनसे अब न मिलेगा।’’

ईश्वरदास– ‘‘मेरे कहने पर मिलाना पड़ेगा।’’

थोड़ी देर तक उमादे सोचती रही, फिर बोली– ‘‘मेरा जी नहीं चाहता कि जो बात ठान लूं उसे फिर तोड़ दूं। यह मेरी आदत के बिल्कुल खिलाफ है। मगर आपकी जिद से लाचार हूं। खैर, आपकी बात मंजूर।’’

ईश्वरदास– (खुश होकर) ‘‘बाई जी, तुमने मेरी लाज रख ली। यकीन मानो राव जी तुमसे बाहर नहीं। जो कुछ तुम कहोगी वही करेंगे।’’

उमा– ‘‘मैं उनसे कुछ नहीं कह सकती। उन्हें सब बातों का अख्तियार है। मगर अपनी आदत के खिलाफ फिर कोई बात देखूंगी तो एक दम उनके यहां न ठहरूंगी।’’

ईश्वरदास– ‘‘बहुत अच्छा, यही सही। कहो तो राव जी को ले आऊं। या अगर तुम चलना कबूल करो तो सुखपाल का इंतजाम करूं।’’

उमा– ‘‘अभी नहीं रात को चलूंगी। आप अब खाना खाएं।’’

ईश्वरदास– ‘‘पहले मैं राव जी को बधाई दे आऊं।’’

ईश्वरदास खुश-खुश राव जी की सेवा में उपस्थित हुआ और उमादे ने फिर खाना बनवाकर उसके डेरे पर भिजवा दिया।

रानी फिर रूठ गई

राव जी मारे खुशी के फूले नहीं समाते। प्रेमिका के इंतजार में घड़ियां गिन रहे हैं। राजमहल सजाया जा रहा है। नाचने-गानेवालियां जमा हो गईं। गाना हो रहा है। शराब का दौर चल रहा है। उमादे को बुलाने के लिए लौंडी पर लौंडी भेजी जा रही हैं। मगर अभी तक रानी का बनाव सिंगार पूरा नहीं हुआ। मांग में मोती भरे जा रहे हैं। चोटी गूंथी जा रही है। प्रसाधिका उसे परी बना देने की कोशिश कर रही हैं उसका जी अभी तक राव जी की तरफ झुका नहीं हैं। खुद्दारी अलग दामन खींच रही है, दिल अलग मचल रहा है। अभी तक जो पशोपेश में है कि जाऊं या न जाऊं। तबियत किसी बात पर नहीं जमती।

कैसे जाऊं, कौन-सा मुंह लेकर जाऊं, कहीं वह यह न ख्याल करने लगें कि आखिर झक मार के आयीं। नहीं, नहीं मेरा जाना मुनासिब नहीं। मगर बात हार चुकी हूं। न जाऊंगी तो झूठी ठहरूंगी। वह इसी सोच-विचार में थी कि फिर बुलावा आया। उमा, ने भारीली से कहा– ‘‘तू जाकर कह दे आते-आते आएंगी क्या ऐसी जल्दी है?’’ भारीली यह सुनकर सहम गयी। कांपते हुए बोली– ‘‘बाई जी, क्या अंधेर करती हो। मुझे क्यों भेजती हो। क्या और खवासें नहीं हैं?’’

उमादे ने कहा– ‘‘कोई हर्ज नहीं ! यह जवाब देकर जल्दी से चली आना वहां ठहरना नहीं। तुझे फिर मेरे साथ चलना होगा।’’

लाचार होकर भारीली गई, राव जी की नजर ज्योंही उस पर पड़ी वह रानी को भूल गए। उसका हाथ पकड़कर बिठा लिया। वह बहुत कहती रही कि जो मैं कहने आयी हूं, उसे सुनिए और मुझे जाने दीजिए नहीं तो रंग में भंग पड़ जाएगा। राव जी बोले, ‘‘कुछ नहीं होगा। तू झूठमूठ डरती है। भट्टानी ने तुझे मेरे दिलबहलाव के लिए ही भेजा है। जब तक वह न आएं तू यहीं रह, फिर चली जाना।’’

राव जी शराब के नशे में चूर, भारीली से चिपटे जाते हैं, अपनी धुन में न उसकी बात सुनते हैं, न उसे जाने देते हैं यहां तक कि नाचने-गानेवालियां भी महफिल का रंग देखकर वहां से खिसक जाती हैं।

थोड़ी देर के बाद रानी उमादे बनाव-सिंगार किए आयीं तो देखा राव जी भारीली को लिए बैठे हैं। उसी दम उलटे-कदम वापस हुईं। जी में कहा, अच्छा हुआ, मैं भी यही चाहती थी कि मेरी आन हाथ से न जाने पाए।

उधर भारीली ने ज्यों ही रानी को देखा, घबराकर उठी और खिड़की से नीचे कूद पड़ी। वहां बाघा नाम का संतरी पहरे पर था। जेवर की झनक सुनकर चौकन्ना हुआ, ऊपर को देखा तो भारीली नीचे गिर रही है। लपककर उसे बचा लिया और उससे पूछने लगा– ‘‘तू कौन है, परिस्तान की परी है या इन्दर के अखाड़े की हूर?’’

भारीली ने उंगली होंठों पर रखकर कहा– ‘‘चुप ! अपनी जान की खैर चाहता है तो अभी मुझे यहां से निकाल ले चल नहीं तो हम-तुम दोनों मारे जाएंगे।’’

बाधा ने कहा– ‘‘मैं राव जी का नौकर हूं, बिना आज्ञा यहां से हिल नहीं सकता। पहरा पूरा कर लूं, तब जो कुछ तू कहेगी, वह करूंगा।’’

भारीली ने गिड़गिड़ाकर कहा– ‘‘इस वक्त तू मुझे अपने डेरे पर पहुंचा दे, फिर जैसा होगा, देखा जाएगा।’’

बाघा का डेरा ईश्वरदास के पास ही था। चारण जी ने ज्योंही उसे देखा, पहचान गए। झटपट राव जी के पास पहुंचे। वह घबराए हुए बैठे थे। सब नशा हिरन हो गया था। ईश्वरदास को देखते ही बहुत उदास होकर बोले– ‘‘मेरे हाथों से तो दोनों तोते उड़ गए।’’

ईश्वरदास– ‘‘उनमें से एक तो उड़ जाने के काबिल था, उसका क्या अफसोस। बाघा सिपाही से फरमाएं कि उसे इसी दम जैसलमेर पहुंचा आवे, नहीं तो दूसरा तोता भी कभी आपके हाथ न आएगा।’’

राव जी– ‘‘अगर आपकी यही मर्जी है तो बाघा से जो चाहे कह दीजिए।’’

ईश्वरदास ने उसी वक्त जाकर भारीली को एक सांडनी पर सवार कराके बाघा की हिफाजत में जैसलमेर की तरह रवाना कर दिया और वापस आकर राव जी को सूचना दी।

राव जी– ‘‘अब तो भट्टानी राजी होंगी?’

ईश्वरदास– ‘‘यह मैं नहीं कह सकता क्योंकि आप उनका मिजाज जानते हैं।’’

राव जी– ‘‘इसी डर से तो मैं उनके पास गया नहीं। आप जाकर देखिए अगर हो सकते तो मना लाइए।’’

ईश्वरदास– ‘‘अब उनका आना बहुत मुश्किल है, पर मैं जाता हूं।’’

ईश्वरदास ने जाकर देखा राजमहल सूना पड़ा है और रानी बुर्ज में जा बैठी हैं। खवासों ने सफेद चांदनी टांगकर परदा कर दिया है, लौडियां-बांदियां पहरे पर हैं, पर्दें के पास दो नौकरानियां नंगी तलवारें लिए खड़ी हैं।

ईश्वरदास की हिम्मत न हुई कि नजदीक जाए, दूर से ही देखकर लौट आया और राव से सब माजरा सुनाया।

राव जी– (झुंझालाकर) ‘‘क्या भट्टानी जी बुर्ज में जा बैठीं? यह क्या हरकत की?’ ईश्वरदास– ‘‘शायद उस बुर्ज के भाग्य जागने वाले थे। आज वहां वह रौनक है जो कभी पृथ्वीराज चौहान के तख्त को भी नसीब न हुई। चांदनी का पर्दा पड़ा है, नंगी तलवारों का पहरा है। मेरी तो वहां जाने की हिम्मत न पड़ी और क्या अर्ज करूं।’’

राव जी– (आश्चर्य से) ‘‘क्या सचमुच नंगी तलवारों का पहरा है?’’

ईश्वरदास– ‘‘जी हां, महाराज यकीन न हो तो खुद चलकर देख लीजिए।’’

राव जी– ‘‘तब तो उनका मानना बिल्कुल नामुमकिन है।’’

ईश्वरदास– ‘‘हुजूर ठीक कहते हैं। रानी ने मुझसे पहले ही शर्त करवा ली थी। आपने बड़ा गजब किया कि ऐसे नाजुक मामले में उनके मिजाज के खिलाफ काम किया। जब एक बार ऐसी हरकत का बुरा तजुर्बा आपको हो चुका था दूसरी बार जरूर होशियार होना चाहिए था। रानी की तरफ से भी कुछ गलती हुई, उन्हें भारीली को ऐसे मौके पर भेजना मुनासिब न था। मगर जहां तक मेरा ख्याल है आपकी तरफ से उनके दिल में संदेह था और सिर्फ आपकी परीक्षा के लिए उन्होंने भारीली को भेजा था।’’

राव जी– ‘‘होनहार नहीं टलती। मैं भी बहुत पछताता हूं। पहली बार भी भारीली ही की बदौलत बिगाड़ हुआ था।’’

ईश्वरदास– ‘‘खैर, वह तो किसी तरह से दूर हुई, बला टली।’’

राव जी– ‘‘इसका भी मुझे अफसोस ही रहेगा। उस बेचारी की कोई खता न थी।’’

ईश्वरदास– (बात काटकर) ‘‘अभी तो भट्टानी जी दो-चार दिन तक महल आती नहीं दिखाई देतीं, उनके लिए क्या इंतजाम किया जाए?’’

राव जी– ‘‘मैं तो कल चला जाऊंगा। मुझे बीकानेर पर चढ़ाई करनी है। यहां का जो कुछ इन्तजाम मुनासिब था, पहले ही कर दिया है। हुमायूं बादशाह के आने की खबर थी, वह भी नहीं आया। फिर बेकार वक्त क्यों बर्बाद करूं? तुम यहां रहो और उस बुर्ज के पास कनातें खड़ी करवा के पहरे-चौकी का पूरा-पूरा बन्दोबस्त करो। जब बाई जी का मिजाज जरा धीमा हो तो समझा-बुझाकर जोधपुर ले आना। मैं किलेदार से कह दूंगा वह सब इन्तजाम कर देगा।’’

राव जी यह कहकर दूसरे दिन अजमेर के लिए रवाना हो गए। दीवान ने उनके हुक्म से रामसिर परगना रानी उमादे की जागीर में लिखकर पट्टा उनके पास भेज दिया। अब अजमेर में रानी की अमलदारी है। किलेदार उसकी ड्योढ़ी पर पहरे और कनात का इंतजाम करके रोज शाम-सवेरे सलाम को हाजिर होता है। अजमेर का फौजदार रोज रानी की ड्योढ़ी पर मुजरे के लिए आता है और उसी की सलाह और हुक्म से अपना काम करता है। उमादे का नाम अब ‘रूठी रानी’ मशहूर हो गया है। वह बुर्ज भी अब ‘रूठी रानी का बुर्ज’ कहलाने लगा है और आज तक इसी नाम से मशहूर है।

जोधपुर पहुंचकर राव मालदेव ने सुना कि बंगाल में हुमायूं और शेरशाह से लड़ाई छिड़ गई और दिल्ली-आगरा खाली पड़ा है। लिहाजा इस वक्त उन्होंने बीकानेर का ख्याल छोड़ दिया और पूरब की तरफ लौट पड़े और हिन्दुन बयाना तक फतेह करते चले गए। वहां से लौटकर संवत् १५९२ में बीकानेर भी जीत लिया।

इस बीच शेरशाह हुमायूं को सिंध में भगाकर आगरा पहुंचा। उसके आते ही वे सब राजे, रईस, ठाकुर, जिनके इलाके मालदेव ने दबा लिए थे, बीकानेर की सरपरस्ती में शेरशाह के दरबार में फरियाद के लिए हाजिर हुए और उसे राव पर हमला करने के लिए आमादा करने लगे। मालदेव भी बेखबर न था। अस्सी हजार सवार शेरशाह के मुकाबले के लिए इकट्ठे किए और ईश्वरदास को लिखा कि आप रूठी रानी को लेकर चले आइए और अजमेर के किले में जंगी बन्दोबस्त करा दीजिए। रूठी रानी इस पर कहा– ‘‘मुझे क्या डर पड़ा है? मैं राजपूत की बेटी हूं। किले पर कोई चढ़ आएगा तो मैं कुरमेती हांडी (कुरमेती हांडी महाराणा सांगा की रानी और उदयसिंह की मां थी। जब गुजरात के बादशाह सुलतान बहादुर ने संवत् १५६१ में चित्तौड़ का किला जीता तो कुरमेती बहत्तर हजार औरतों के साथ आबरू बचाने के लिए चिता बनाकर जल मरी) की तरह लड़कर मरूंगी। राव जी को लिख दो कि यह किला मेरे भरोसे पर छोड़ दें और बाकी राज्य को बचाने का इन्तजाम करें।’’

राव जी ने जवाब दिया– ‘‘अजमेर में, तो हम शेरशाह से लड़ेंगे। वहां रानी का रहना मुनासिब नहीं। अगर उन्हें ऐसा ही राजपूती दिखाने की इच्छा है तो जोधपुर का किला हाजिर है। हम उसे बिल्कुल उन्हीं के भरोसे पर छोड़ देंगे। उनको बहुत जल्द लाओ।’’

ईश्वरदास ने तब रानी से कहा– ‘‘बाई जी, महाराज को आपकी बात मंजूर है, मगर अजमेर के बदले जोधपुर का किला आपको सौंपा जाएगा। आप वहां तशरीफ ले चलिए। वह अपना घर है। अजमेर तो परायी जायदाद है, थोड़े ही दिनों से हमारे कब्जे में आया है।’’ रानी ने कहा– ‘‘बहुत खूब ! जो राव की मर्जी हो, अजमेर न सही, जोधपुर सही। सवारी का इन्तजाम करो। अगर यह मौका न आता तो मैं यहां से हरगिज न जाती।’’

सौतिया डाह

ईश्वरदास ने अजमेर के हाकिम और किलेदार से लड़ाई की तैयारियों का इन्तजाम करने के लिए कहा। इसी बीच जोधपुर से सरूपदेई और दूसरी रानियों ने उसके पास एक बड़ी रिश्वत भेजी और प्रार्थना की कि जिस तरह मुमकिन हो इस बला को वहीं रहने दो, वह किसी तरह जोधपुर न आने पाए। अजमेर से चलते वक्त हमने आपसे यही बात कही थी और अब तक आपने इस बात का ख्याल भी रखा है। अब भी तुम्हारे ही रोके रुक सकती है। दूसरा उसे कोई नहीं रोक सकता। आप राव जी को समझाइए कि ऐसा हरगिज न करें। हम इस इनायत के लिए आपके बहुत एहसानमंद होंगे। चारण जी रिश्वत पाकर निन्यानवे के फेर में पड गए। कहां तो रोज तैयारी की बहुत ताकीद करते थे कहां अब ढीले पड़ गए और तैयारी में भी देर होने लगी।

एक और गुल खिला। हुमायूं शेरशाह से शिकस्त खाकर सिंध भाग गया था, उसने जब यह सुना कि राव जी लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं तो उनके पास अपना एक दूत यह संदेश देकर भेजा कि आप अकेले शेरशाह से हरगिज मत लड़िएगा। मैं भी आपका साथ देने को आ रहा हूं। हम दोनों मिलकर उसे हराएंगे। इस मदद के बदले में आपको गुजरात फतेह करवा दूंगा। राव जी ने यह बात मान ली और बादशाह को लिखा कि आप जैसलमेर होकर तशरीफ लाइएगा। वहां वाले हमारे रिश्तेदार हैं। वह आपका जरूर साथ देंगे। उधर ईश्वरदास को ताकीद की– रानी को लेकर जल्द आओ, हम तुम्हें कुछ जरूरी काम के लिए रावल जी के पास जैसलमेर भेजेंगे। राव जी का इरादा था कि इस तरह हुमायूं की मदद करके उसे तख्त पर बिठा दें और उसके नाम से सारा देश अपने आधीन कर लें।

ईश्वरदास ने इस आवश्यक कर्त्तव्यों को पूरा करने में अपना ज्यादा फायदा देखा। जल्द हाकिम शहर और किलेदार से सवारी का इंतजाम करा लिया और रूठी रानी को बड़ी शान के साथ जोधपुर रवाना कर दिया। दूसरी रानियों ने जब यह खबर सुनी तो हाथ-पैर फूल गए कि अब यह बला आ पहुंची। नहीं मालूम इसके पास क्या जादू है कि राव जी इसके बात न पूछने पर भी खुशामद में लगे रहते हैं। अब उसे किला सौंपकर आप लड़ने जाएंगे। खूब, औरत क्या है जादू की पुड़िया है। भला जब किला उसके इशारे पर चलेगा तो हमारी जिन्दगी दूभर कर देगी। हमसे उसकी हुकूमत बर्दाश्त न होगी। उसमें क्या सुर्खाब के पर लगे है कि किला उसको सौंपा जा रहा है। वह जादूगरनी है। जादूगरनी ने साठ कोस से भी वह मन्तर मारा कि जिसका उतार नहीं। जालिम दगाबाज ईश्वरदास भी अपनी तरफ आकर फिर उधर हो गया।

एक खवास ने रानी की यह बातचीत सुनकर कहा कि ईश्वरदास फूट गया तो क्या हुआ, उसका चाचा आसा जी तो यहीं मौजूद हैं, उससे काम लीजिए। वह ईश्वरदास से बहुत ज्यादा होशियार है। रानियों को यह सलाह पसंद आई। झाली रानी ने उसी खवास को आसा जी के पास भेजा और कहलवाया कि तुम्हारा भतीजा वहां बैठे-बैठे बड़ी बेइन्साफी कर रहा है, हमें अब आपके सिवा कोई दूसरा नजर नहीं आता। आप ही हमारा काम कर सकते हैं। किसी तरह इस बला को रोकिए वर्ना हम कहीं के न रहेंगे। आसा जी ने आकर कहा– ‘‘वह नालायक मेरे कहने में नहीं है, और जो हुक्म हो उसे बजा लाऊं।’’

झाली रानी– ‘‘भट्टानी यहां हरगिज न आने पाए।’’

आसा जी– ‘‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा। न आने पाएंगी।’’

झाली रानी– ‘‘न कैसे आएंगी, वह तो चल दी हैं। कल-परसों तक आ पहुंचेंगी।’’

आसा जी– ‘‘आप खातिर जमा रखिए, मैं उसे रास्ते में रोक लूंगा।’’

रानियों ने धन-दौलत से आसा जी को मालामाल कर दिया और कहा, अगर आप हमारा काम कर देंगे तो हीरे-जवाहरात से आपका घर भर दिया जाएगा।

आसा जी ने राव जी से यह बहाना किया कि एक जरूरी काम से घर जा रहा हूं और इजाजत पाते ही अजमेर की तरफ चला। जब जोधपुर से पन्द्रह कोस पूरब को साना गांव के करीब पहुंचा तो उसे दूर से निशान का हाथी दिखाई दिया और नक्कारे की आवाज कान में आई। समझ गया कि रूठी रानी की आवाज कान में आ रही है।

सवारी का दूर तक तांता लगा था। हाथी के पीछे ऊंटों का नौबतखाना था। उसके पीछे घोड़ों का नक्कारा बज रहा था। जरा और पीछे सजे हुए ऊंट और फिर चीलों (जोधपुर के निशान या झण्डे में चील की तस्वीर बनी होती है। यह राठौरों का कौमी निशान है।) का झुंड हवा में लहराता दिखाई दिया। झंडे के पीछे लड़ैत बहादुर राठौरों का एक रिसाला था, फिर एक बन्दूकचियों की कतार, उनके पीछे तीरंदाज और उसके बाद ढाल-तलवार वाले राजपूत थे। जरा और पीछे हट कर कोतल हाथी और घोड़े सोने-चांदी में डूबे हुए जर्दी और जर्बफ्त के सामान से लैस धीमे-धीमे चलते थे। उसके बाद नकीब और चोबदार सोने-चांदी के डंडे लिए रास्ता साफ करते चलते थे। चारण ईश्वरदास जी भी पांचों हथियार लगाए, उदंची बने, एक धीमे-धीमे चलने वाले घोड़े पर अकड़े बैठे थे। ज्योंही उनकी नजर अपने चाचा आसा जी पर पड़ी, घोड़े से उतरकर मुजरा किया और पूछा– ‘‘आप यहां कहां?’’ आसा जी बोले– ‘‘बाई जी की अगवानी करने आया हूं।’’ दोनों वहीं खड़े होकर बातें करने लगे। जुलूस बढ़ता चला गया।

नकीबों के पीछे एक जमात सशस्त्र स्त्रियों की आई जो तीर-कमान और खंजर लगाए हुए थीं उन्हीं के झुरमुट में रानी उमादे का सुनहरा सुखपाल था। उस पर जरी का गहरा गुलाबी पर्दा पड़ा था। जगह-जगह अनमोल जवाहरात और नगीने जड़े हुए थे जिन पर निगाह नहीं ठहरती थी। कहात अतलस और कमखाब के लिबास पहने हुए थे। इस सजे हुए सुखपाल के पीछे नंगी तलवारों का पहरा था फिर कई जनानी सवारियां पालकियों, पीनसों और रथों में थी। उसके बाद राठौरों का एक रिसाला और रिसाले के पीछे जुलूस के बाकी कोतल हाथी-घोड़े और ऊंट थे। सबसे पीछे फराशखाना, तोखाखाना, रसदखाना और फौज की दूसरी जरूरी चीजों की गाड़ियां थीं।

आसा जी के हमराही कहते थे कि देखें आसा जी कैसे इस धूम-धड़ाके से चलती हुई राजसी सवारी को रोक देंगे जिसके आगे कोई चूं नहीं कर सकता। इतने में रूठी रानी का सुखपाल आसा जी के बराबर आ पहुंचा। उसने बड़े अदब से चोबदार को आवाज देकर कहा– ‘‘बाई जी से अर्ज करो कि आसा चारण मुजरा करता है और कुछ अर्ज भी करना चाहता है।’’ उसके साथ ही यह दोहा पढ़ा-

मान रखे तो पीव तज पीव रखे तज मान
दोमी हाथी बंधिए एकड़ खतमों ठान

यानी, अगर मान रखना चाहती हैं तो पति को तज दें और पति को रखना चाहती हैं तो मान को तज दें, क्योंकि एक ही थान में दो हाथी नहीं बांधे जा सकते।

यह दोहा सुनते ही रूठी रानी का जोश फिर ताजा हो गया और दिल काबू में न रहा। फौरन हुक्म दिया कि अभी सवारी लौटे, जो एक कदम भी आगे रक्खे उसकी गर्दन उड़ा दी जाएगी। सब लोग हैरत में आ गए कि यह क्या हुआ। एकाएक यह कायापलट क्यों कर हुई। ईश्वरदास ने बहुत जोर मारा, हाथ जोड़े, पैरों पडा, सारी वाकशक्ति खर्च कर डाली मगर आसा जी के जादूभरे शब्दों के सामने उसकी कुछ न चली। सरदार-सिपहसालार बहुत-बहुत आरजू मिन्नत करते रहे मगर उसने किसी की न सुनी। उसी कोसाना गांव में डेरे डलवा दिए।

आसा जी को भी तक संशय था कि कहीं लोगों के कहने-सुनने से रानी का इरादा फिर न पलट जाए। लिहाजा ज्योंही डेरे पर गए वह उनकी ड्योढ़ी पर हाजिर हुआ और मुजरा करके कहा– ‘‘बाई जी, आपकी जितनी स्तुति की जाए थोड़ी है। आपने जो ठान ठानी है वह आप ही का काम है।’

रानी– ‘‘बाबा जी, वह दोहा फिर पढ़िए। बहुत अच्छा और सच्चा है। मैं अपनी टेक कभी न छोड़ूंगी।

आसा जी– (दोहा पढ़कर) ‘‘बाई जी, राजाओं में सच्चा मानी दुर्योधन हुआ। उसी कुल में आप हैं। रानियों में आपका-सा अपनी बात पर कायम रहने वाला कोई और नहीं है।

रानी– ‘‘बाबा जी, दुर्योधन नाम का तो एक ही राजा हुआ है पर अभागी उमा के नाम की तो कई रानियां हुई। उनमें एक के नाम का यह दोहा मशहूर है–

हार दियो छन्दो कियो, मोक्यो मान मरम
उमा पीउ न चख्यो, आड़ो लेख करम।’’

यानी, हार दिया, छिपाया, इज्जत खोई फिर भी उमा को पति का सुख न नसीब हुआ। उसकी किस्मत की लकीर आड़ी पड़ गई।

आसा जी– ‘‘बाई जी, यह तो उमा१ सांखेली थी और तुम उमा भट्टानी हो। दोनों का घराना भी एक नहीं।’’ (1. उमादेई सांखेली गाधरों के राजा अचलदास की रानी थी। उसकी सौत सोढ़ी रानी राजा के मुंह लगी थी कि राजा उसके डर से सांखेली के पास नहीं जाता था। जब इस तरह बहुत साल गुजर गए तो एक दिन सोढ़ी रानी ने सांखेली के पास एक अनमोल हार देखकर एक रात के लिए मांगा। उसने इस शर्त पर वह हार दिया कि सोढ़ी राजा को एक रात उसके पास आने दे। सोढ़ी ने यह बात मंजूर कर ली मगर राजा को समझा दिया कि जाना, मगर चुपचाप रात काटकर चले आना। राजा ने वैसा ही किया। सवेरे सांखेली रानी ने बड़ी व्यथा के स्वर में यह दोहा पढ़ा। मगर जनमुरीद राजा को जरा भी तरस न आया। राजपूताना के लोग निराशा के लिए ये यह दोहा पढ़ा करते हैं।)

रानी– (रोकर) ‘‘बाबा जी, दोहे में सिर्फ उमा कहा है, सांखेली और भट्ठानी कौन जाने।’’

आसा जी– ‘‘क्यों न जानें? यह दोहा अचलदास का कहा हुआ है। उमा देई सांखेली उसकी रानी थी। उसे सब जानते हैं, क्या तुम नहीं जानतीं?’’

रानी– ‘‘मेरे और तुम्हारे जानने से क्या होता है? दोहे में तो कोई व्याख्या नहीं की। मेरे और तुम्हारे पीछे कौन जानेगा?’’

आसा जी– ‘‘तुम्हारे पीछे तक अगर जीता रहा तो तुम्हारे नाम को अमर बना जाऊंगा।’’

रानी– ‘‘बड़ी खैरियत हुई कि आप आ गए। अगर आप न आते तो न जाने क्या होता। आपके भतीजे के दमधागों में आकर मैं अपनी मरजाद छोड़ देती तो सौंते मुझ पर हंसती और कहतीं कि बस इतना ही पानी था।’’

इतने में चोबदार ने आकर अर्ज किया कि ईश्वरदास हाजिर है। आसा जी यह सुनते ही खटक गए। ईश्वरदास ने आकर कहा– ‘‘बाई जी, आपने यह क्या जुल्म किया, चलती सवारी राह में ही ठहरा दी। राव जी आपका रास्ता देख रहे हैं। कुमार रामसिंह रायमल, उदयसिंह और चन्द्रसेन आदि आपकी अगवानी के लिए तैयार हैं। सारे शहर में जश्न हो रहा है कि रूठी रानी तशरीफ लाती हैं और राव जी उन्हें किला सौंपकर लड़ने जाते हैं। भला यहां रुक जाने से लोग अपने दिल में क्या समझेंगे?

रानी– ‘‘इंतजाम जो हो वह मेरे सुपर्द करें और खुद शौक से लड़ने जाएं।

राजपूतों को दुश्मनों से लड़ने में ढील-ढाल न करनी चाहिए।’’

ईश्वरदास– ‘‘क्या अंधेर करती हो, यहां रहकर क्या करोगी? राव जी ने अपने-पराए सबसे दुश्मनी पैदा कर रक्खी है, सारे खानदान में फूट फैली हुई है। ब्रह्मदेव मेड़तिया और मारवाड़ के दूसरे ठाकुर और जागीरदार, जिनकी जमीन राव जी ने छीन ली है, शेरशाह के पास फरियाद करने गए हैं। एक तरफ से शेरशाह और दूसरी तरफ से हुमायूं के आने की खबरें उड़ रही हैं। ऐसी हालत में तो यही मुनासिब है कि आप जोधपुर चलकर किले की निगरानी कीजिए।’’

रानी– ‘‘बादशाह आते हैं तो आने दो, मुझे उनका क्या डर पड़ा है। मैंने तो तुमसे जो बात अजमेर में कही थी, वही यहां भी कहती हूं। राव जी अगर कोई काम मेरे सुपर्द करेंगे तो मैं यहां बैठे-बैठे जोधपुर सम्भाल लूंगी। राव जी जहां चाहें जाएं, मैं अब जोधपुर न जाऊंगी। हां, अगर राव जी की मर्जी हो तो रावसर में जा रहूं।’’

ईश्वरदास कह-सुनकर हार गए। जब कुछ बस न चला तो जोधपुर जाकर राव जी से अर्ज की कि मैंने तो बाई जी को यहां आने पर राजी कर लिया था मगर आसा जी ने बनी बात बिगाड़ दी, सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। आपने उसे क्यों भेजा ! रानी उमादे को तो आप जानते ही हैं। आसा जी ने जाते ही मान-मरजाद का जिक्र छेड़ दिया, बस वह मचल गयीं और कोसाने में डेरा डाल दिया। मैंने बहुत आरजू-मिन्नत की मगर उन्होंने एक न सुनी। किसी ने पागल से पूछा– पांव क्यों जलाया? उसने कहा– खूब याद दिलाया, अब जलाता हूं।

राव जी– ‘‘फिर अब क्या करना चाहिए? किसे भेजूं?’’

ईश्वरदास– ‘‘मुझे तो ऐसा कोई नजर नहीं आता, जो उन्हें जाकर मनाए और वह भी आसा जी के होते।’’

राव जी– ‘‘आसा जी तो मुझसे घर जाने की छुट्टी ले गए थे?’’

ईश्वरदास– ‘‘बस इसी में कुछ चाल हुई।’’

राव जी– ‘‘चाल कैसी?’’

ईश्वरदास– ‘‘फिलहाल आसा जी को हुक्म मिलना चाहिए कि यहां से चले जाएं, फिर देखा जाएगा।’’

इतने में हुमायूं सिंध से मारवाड़ में आ गया और आगरा में शेरशाह के दूत राव जी के पास यह पैगाम लेकर पहुंचे कि हुमायूं को पकड़ना, हरगिज न जाने देना। इसके बदले में गुजरात फतेह करके तुम्हें दिया जाएगा। यह सुनकर राव जी दुविधा में पड़ गए। यह खबर हुमायूं ने भी सुनी। इधर न आया। ऊपर ही ऊपर लौट गया। उसके साथ के लोगों ने मारवाड़ में गोकुशी की थी। राव जी ने इस अपमान का बदला लेने के लिए और कुछ शेरशाह की नजरों में वफादार बनने की गरज से अपनी फौज हुमायूं के पीछे रवाना की मगर वह बचकर निकल गया।

राजपूतों की बहादुरी

शेरशाह ने जब सुना कि हुमायूं साफ बचकर निकल गया तो उसे शक हुई कि राव जी की जरूर उससे सांठ-गांठ है। बिगड़ गया और फौरन मारवाड़ पर चढ़ दौडा़। राव जी अजमेर जाने को तो पहले से ही तैयार थे, अब मेड़ते का रास्ता छोड़कर जेतारन के रास्ते से चले। जोधपुर के फौजदार ने राव जी के हुक्म से कोसाना में जाकर रानी उमा देई के जुलूस का इंतजाम मेड़ते के हाकिम से ले लिया। मेड़ते के हाकिम और आसा जी दोनों ने रुखसत होते वक्त रानी की सरकार से खिलअत पाई। हाकिम मेड़ते को आया, आसा जी जैसलमेर सिधारे। राव जी ने नादिरशाही हुक्म दे दिया था कि तुम आज से हमारे राज में न रहना।

जब राव जी अजमेर पहुंचे तो शेरशाह ने सुना कि उनके पास अस्सी हजार सवार हैं। सुनते ही सन्नाटे में आ गया। हियाव छूट गया। आगे कदम न उठे मगर बैरम जी मेड़ते ने कहा– ‘‘आप चलें तो सही, मैं राव जी को दम से दम में भगाए देता हूं। हिन्दुओं की अनबन और फूट ने हमेशा मुल्क वीरान किए हैं और गैरों से हमेशा हारें दिलाई हैं। यह बैरम जी मेड़ते का सरदार और उस बहादुर जयमल का बाप था जिसने चित्तौड़ के घेरे में अकबर को नाकों चने चबवाए थे और जिसके नाम पर आज तक सारा राजस्थान गर्व करता है। राव जी ने उसे मेड़ते से निकाल दिया। इसी का बदला लेने के लिए वह शेरशाह से जा मिला था।

शेरशाह को बैरम के कहने का यकीन न हुआ, वह फूंक-फूंककर कदम धरता आगे को चला मगर अब अजमेर के बहुत करीब पहुंच गया तो उसने उनसे कहा कि अब आप अपनी होशियारी दिखाइए। बैरम ने कहा– बहुत खूब ! चुनांचे उसने राव मालदेवजी के सरदारों के नाम फारसी में इस मजमून के फरमान लिखे– ‘‘हम आप साहबों के लगातार तकाजों से मजबूर होकर यहां तक आ पहुंचे हैं। अब आप लोग अपने वचन के अनुसार राव जी को गिरफ्तार करके हमारे पास ले आएं। खर्च के लिए फीरोजियां१ भेजी जाती हैं। (१. फीरोजशाही सिक्कों को कहते थे जो इस जमाने में चलता था।)

इसके बाद बहुत-सी ढालें मंगाकर ये फरमान उनकी गद्दियों में रखकर सी दिए और जिस ढाल में सरदार के नाम का फरमान था, वह उसी सरदार के पास बेचने के लिए भेजा और बेचने वालों को कह दिया कि वह जिस दाम में लें, दे आना, नफे-नुक्सान का ख्याल न करना। फिर कई फीरोजियां शेरशाही खजाने से लेकर कुछ तो अपने पास रख लीं और बाकी अपने आदमियों के हाथ राव जी से उर्दू बाजार में सजवाकर सस्ते दामों में बिकवा डालीं। इस तरह राव जी के सरदारों ने लड़ाई की जरूरत से ढालें सस्ती महंगी खरीद लीं।

यह कार्रवाई करके रात को बैरम जी राव मालदेव की खिदमत में हाजिर हुआ और अर्ज की कि आपने मेड़त मुझसे छीन लिया और बीकानेर के राव जैसती को मार डाला। लिहाजा अगर हम शेरशाह से मिल जाएं तो यह हमारे लिए बिल्कुल ठीक बात होगी, पर आपके सरदार उससे क्यों मिलने जाएं? गालिबन उन्होंन खूब रिश्वत ली है।

राव जी– ‘‘अजी, मुझे तो इसकी खबर नहीं। इसका कोई सबूत भी है?’’

बैरम जी– ‘‘सबूत क्यों नहीं? अपने सरदारों की ढालें तो देखिए। उनकी गद्दियों में बादशाह के फरमान हैं। इसके अलावा लाखों फिरोजियां बादशाह से ली गई हैं। क्या बाजार में न बिकी होंगी?’’

बैरम जी यह फुलझड़ी छोड़कर चलता बना, पर राव जी फेर में पड़ गए। आदमी भेजकर फिरोजियों का पता चलाया तो वह सब रईसों के पास निकलीं। उनसे पूछा तो जवाब मिला कि अपने ही आदमी बेच गए हैं। दूसरे दिन जब वह सरदार मुजरे को आए तो राव जी ने उनके पास नई-नई ढालें देखकर कहा, यह कहां से आयीं? जवाब मिला कि व्यापारियों से खरीदी गई हैं।

राव जी ने देखने के बहाने से सब ढाले रख लीं। दरबार बर्खास्त हो जाने के बाद उन्हें चिरवाकर देखा तो वही फरमान मिले जिनका जिक्र बैरम जी ने किया था। मुंशी बुलवाकर पढ़वाया तो मजमून भी वही निकला। अब पक्का यकीन हो गया कि सरदार लोग उन्हें जरूर दगा देंगे। इसमें शक नहीं कि बैरम की चाल काम कर गयी, मगर उसका कारण यह नहीं था चाल खुद अच्छी थी बल्कि इसलिए कि राव जी को अपने सरदारों पर पहले से कुछ संदेह था। अगर ऐसा न होता तो वह कुल सरदारों की ढालों में ही यह फरमान छिपाते, क्या उन्हें और कोई जगह न मिलती थी ! और फिर सबके नई-नई ढालें खरीदते। यह बारीकियां राव जी की अक्ल में न आयीं। कुमार राम से तो पहले ही नाराज हो रहे थे, अब सरदारों पर से भी ऐतबार जाता रहा। उसी दम हुक्म दिया कि फौज यहां से कूच करे।

इस हुक्म ने तमाम फौज में खलबली मचा दी। पुरजोश राजपूत अपने-अपने अरमान निकालने की तैयारियां कर रहे थे। कोई तलवार साफ कर रहा था, कोई तीर-कमान का अभ्यास कर रहा था, कोई वर्दी सम्भाल रहा था। सारी फौज में दूसरे दिन लड़ने की खुशी फैली हुई थी कि यकायक राव जी का यह हुक्म निकला।

सरदारों को फौरन खटका हुआ कि राव जी हमसे नाराज हो गए वरना जीती-जिताई लड़ाई छोड़कर यों कूच का हुक्म हरगिज न देते। सबके सब जमा होकर राव जी की खिदमत में हाजिर हुए और अर्ज की कि आप हमारी तरफ से दिल में किसी किस्म की बदगुमानी न रखिए। हम मरते दम तक आपका साथ न छोड़ेंगे। हम लड़कर अपनी जान देंगे मगर मैदान में मुंह न मोड़ेंगे, हम शेरशाह सूरी से हरगिज नहीं मिले। जरूर आपको किसी ने धोखे में डाल दिया है। पर राव जी को यकीन न आया और फौज कूच करने की तैयारी करने लगी।

शेरशाह ने दुश्मन को यों मैदान में भागते देखकर बैरम जी और दूसरे साजिशी सरदारों के हिम्मत दिलाने से राव जी का पीछा किया। जब राव जी बाबरा जिला जैतारन के पास सुम्बल नदीं में उतरे तो उनके सूरमा सरदार जेता और कोंपा ने अर्ज की– ‘‘यहां तक जो जमीन हम पीछे छोड़ आए हैं वह आपकी जीती हुई थी और हमारे कब्जे में थोड़े ही दिनों से थी। मगर अब यहां से आगे हमारे पुरखों की जायदाद है। हम ऐसे कपूत नहीं हैं कि अपने बाप-दादा के मुल्क को यों सहज में छोड़कर चले जाएं। आप जाते हैं, खुशी से जाइए, हम तो शेरशाह से यहीं जमकर लड़ेंगे। वह भी तो देखे कि राजपूत जमीन के लिए कैसी बेदर्दी से लड़कर जान देते हैं।’’

राव जी के कहा– ‘‘यहां लड़ना फिजूल है। अब चले हैं तो जोधपुर ही पहुंच कर लड़ेंगे।’’ मगर जेता और कोंपा ने न माना। वे अपने दस हजार जान पर खेलने वाले बहादुर राठौरों को लेकर पलटे और बादशाही फौज पर पिल पड़े और ऐसा जी तोड़कर लड़े कि बादशाह समझा, अब हारा, अब हारा। मगर दस हजार राजपूत पचास हजार आदमियों के मुकाबिले में क्या कर सकते थे। हां, उन्होंने उस राजपूती दिलेरी का नमूना दिखा दिया जो फतेहपुर सीकरी. हल्दीघाटी, चित्तौंड़गढ़ के मैदानों में बार-बार जाहिर हो चुकी है और अगरचे सब के सब खेत रहे मगर अपनी बहादुरी का सिक्का बादशाह के दिल पर जमा गए। शेरशाह ने खुदा को दोहरा शुक्रिया अदा किया और सरदारों से कहा– ‘‘बड़ी खैरियत हुई वरना मुट्ठी-भर बाजरे के लिए हिन्दोस्तान की सल्तनत हाथ से गई थी।’’

दूसरे दिन हार की खबर पाकर राव जी ने सेवाने की तरफ बांग मोड़ी जोधपुर को लिखा कि किले की खूब तैयारी करो और रानियों को हमारे पास भेज दो। रूठी रानी को भी यही पैगाम दे दो। किलेदार ने हुक्म पाते ही सब रानियों को सेवाने भेज दिया। जोधपुर से पश्चिम में तीस कोस की दूरी पर यह जगह है। और खुद किला दुरुस्त करके लड़ने-मरने के लिए तैयार हो बैठा। जो राठौर सरदार राव जी की बदगुमानी से दुःखी होकर अलग हो गए थे, और कुछ वे जो जेता और कोंपा के साथियों में से बच रहे थे, वे सब मिलकर रूठी रानी की खिदमत में हाजिर हो गए। इस तरह रानी के पास जान पर खेलने वालों की एक खासी जमात तैयार हो गयी। रानी ने बावजूद किलेदार के लगातार तकाजों के कोसाने से कूच न किया।

शेरशाह खुद तो न आया मगर उसने अपने सरदार खवास खां को पांच हजार सिपाहियों के साथ जोधपुर फतेह करने के लिए भेजा। उसने आकर किला घेर लिया। किलेदार उससे कई दिन तक लड़ा मगर अब किले का सब पानी खर्च हो चुका तो उसने दरवाजा खोल दिया और एक घमासान लड़ाई लड़कर मर गया। किले पर खवास खां का कब्जा हो गया। इस तरह राव जी की बदगुमानी और बुजदिली ने दुश्मनों के हाथ में जबरदस्ती फतेह का झंडा दे दिया।

जेता और कोंपा के मारे जाने के बाद भी राव जी के पास सत्तर हजार सिपाही थे। अगर बजाए सेवाने के जोधपुर आते और सारी ताकत से मुकाबला करते तो यकीन था कि बादशाह की हार होती किन्तु यह नौबत आ गई कि पांच हजार आदमियों ने जोधपुर घेरा डालकर जीत लिया। राजपूतों ने जहां असीम वीरता दिखाई है वहां बहुत बार रणनीति के अपने अज्ञान का सबूत भी दिया है।

खवास खां ने किले पर अपना कब्जा जमाकर फौज का एक हिस्सा बीकानेर को रवाना कर दिया वह राव जैसती के लड़के कल्यानमल को गद्दी पर बिठा दे। इसी तरह बैरम जी के साथ भी थोड़ी-सी फौज मेड़ता फतेह करने के लिए भेजी।

इतने में खवास खां को खबर मिली के राठौर कोसाने में जमा हो रहे हैं। वह फौरन वहां पहुंचा और रूठी रानी को कहलाया कि या तो हमसे लड़ो या जगह खाली कर दो। रानी ने जवाब दिया कि मैं लड़ने को तैयार हूं, तेरा जब भी जी चाहे आ जा। मैं औरत हूं तो क्या मगर राजपूत की बेटी हूं।

खवास खां ने अपने सरदारों से सलाह ली कि अब क्या करना चाहिए।

उन्होंने कहा– ‘अभी थोड़े से राजपूतों ने बादशाह से लड़कर आफत मचा दी थी।

उसके साथ राजा भी न था। अगर वह होता तो नहीं मालूम क्या गजब हो जाता। अब फिर उन्हीं से खामखाह झगड़ा मोल लेने की क्या जरूरत है? यह ठीक है कि राजा यहां नहीं है, मगर रानी तो है। उसके सरदार अपनी रानी की इज्जत बचाने के लिए जी तोड़कर लड़ेंगे, और रानी खुद भी दबने वाली नहीं नजर आती।’’ खवास खां ने कहा– ‘‘यह तो ठीक है मगर यहां से बिना लड़े जाऊंगा तो लोग कहेंगे कि मर्द होकर औरत के सामने से भाग गया।’’ सरदारों ने जवाब दिया कि औरत से न लड़ने में इतनी जिल्लत नहीं जितनी उससे हार जाने में आखिरकार यह फैसला हुआ कि इस मामले में बादशाह की राय की गुजारिश की जाए।

बादशाह उस वक्त अजमेर में था और राणा उदयसिंह पर चढ़ाई करने की फिक्र में था। खवास खां की अर्जी पहुंचते ही उसने जवाब दिया कि अब इन भिडों के छत्ते को न छेड़ो। जो मुल्क कब्जे में आ गया है उसी को गनीमत समझो। हां, अगर वह खुद लड़ने आए तो मैदान से न हटो। हां, उसके पास कहला भेजा कि जहां मेरा लश्कर पड़ा है, हुक्म हो तो वहां एक गांव बसाकर चला जाऊं ताकि आपके मुल्क पर मेरा भी कुछ निशान रह जाए।

रानी ने फरमाया– ‘‘नाम नेकी से रहता है, गांव बसाने से नहीं। इस वक्त तू जोधपुर का हाकिम है, अगर तू रियाया के साथ बर्ताव करेगा, उसे आराम-चैन में रखेगा तो आप तेरी यादगार बना देंगे।’’

खवास खां ने गुजारिश की– ‘‘खुदा आपकी जबान मुबारक करें। मैं जो अपने हाथ से कर जाऊं वही अच्छा है, फिर नहीं मालूम, यहां मेरा रहना हो या न हो।’’

रानी ने अपने सरदारों से मशविरा किया। उन्होंने कहा– ‘‘क्या नुकसान है अपने देश में एक और गांव बढ़ जाएगा।’’ चुनांचे रानी ने खवास खां की दरख्वास्त मंजूर कर ली और वह नेक मर्द खवासपुर संवत् १६०० में वहां से चल दिया।

राव जी का देहांत

सवंत् १६०२ में शेरशाह इस दुनिया से सिधारा। उसने सल्तनत का बंदोबस्त बड़ी धूमधाम से किया था और उसकी न्यायप्रियता हिन्दोस्तान के इतिहास में हमेशा याद ही की जाएगी। राजा टोडरमल इसी बादशाह के दरबार में पहले नौकर था और लगान के वह कानून जो अकबर के नाम से जुड़े हुए है, इसी बादशाह की तदबीर के नतीजे हैं।

शेरशाह की मौत की खबर फैलते ही राव जी के राजपूत इधर-उधर से खवास खां पर हमला करने लगे। वह भी कुछ दिनों तक उनका बड़ी जवांमर्दी से सामना करता रहा। आखिरकार जोधपुर के बाजार में मारा गया। रूठी रानी की हिदायत से उसने जोधपुर वालों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया था। इसलिए वह लोग उसकी लाश को बड़ी इज्जत से खवासपुर ले गए। वहां उसका मकबरा बनवाया, उसके नाम का गांव बसाया, बाग लगवाया, एक और यादगारी कब्र जोधपुर में बनवाई। दोनों जगह उसकी कब्र पर मन्नते चढ़ने लगी। हिन्दू-मुसलमान दोनों आज तक वहां चढ़ावे चढ़ाते हैं और उसका नाम इज्जत से लेते हैं। यह सब उसकी नेकी का फल है जो बहुत कम बादशाहों को मयस्सर हुआ है।

राव जी भी सेवाने से रास्ते के अफगानी थानों को उठाते हुए लड़ते-भिड़ते जोधपुर पहुंच गए और फिर से जोधपुर में राठौरों का राज हुआ। इसके साथ ही खानगी झगड़े भी शुरू हुए जिनका कारण झाली रानी सरूपदेई थी।

राव जी का बड़ा बेटा कुमार राम रानी लाछलदेई कछवाही से पैदा हुआ था। वह ज्यादातर रूठी रानी के पास रहा करता था। उससे छोटा रायमल झाली रानी हीरादेई से था और उदयसेन और चन्द्रसेन रानी सरूपदेई से थे। हीरादेई और सरूपदेई दोनों चचेरी बहनें थीं। वे अपने-अपने बेटों के फायदे के ख्याल से राव जी को कुमार राम की तरफ से झूठी-सच्ची बातें बना-बनाकर विमुख किया करती थीं। राम भी राव जी को अपनी तरफ से खिंचा देखकर खिंचा रहता था और राजदरबारी राव जी के सनकी स्वभाव और कमजोरी को देखकर राम को भड़काते रहते थे।

मारवाड़ में अमीर घराने में मर्दों के लिए दाढ़ी तरशवाने और औरतों के लिए हाथीं दांत का चूड़ा पहनने के दो बड़ी खुशी के मौके होते हैं। इन अवसरों पर खूब महफिलें जमती हैं, खूब दावतें खिलाई जाती हैं। संवत् १६०४ में राम सोलह बरस का हो गया। उसके थोड़ी-थोड़ी दाढी-मूंछ भी निकल आयी। दाढ़ी जब तक ठुड्डी का हो गया। उसके थोड़ी-थोड़ी दाढ़ी-मूंछ भी निकल आयी। दाढ़ी जब तक ठु़ड्टी के ऊपर बीच में से नहीं तराशी जाती उस वक्त तक हिन्दू-मुसलमानों में कोई फर्क नहीं रहता कि जैसे हिन्दू और मुसलमान में दाढ़ी की पहचान है। रानी लाछलदेई ने अपने बेटे कुमार राम की दाढ़ी छंटवाने का सामान करके राव जी से इस रस्म को अदा करने और जश्न मनाने की इजाजत मांगी। उन्होंने मंजूर कर लिया, मगर चूंकि जोधुपुर में बहुत गर्मी थी, इसलिए राम का प्रस्ताव हुआ कि मन्दौर१, में जाकर खुशियां मनाएं, जो दिलकश बागों और नजारों से भरा हुआ है। (१. मन्दौर मारवाड़ की पुरानी राजधानी है। यह जोधपुर से तीन कोस उत्तर एक पहाड़ी के नीचे बसा है।)

इस बहाने वह मन्दौर चला आया और यहां अपने दोस्तों और सहयोगियों और अपना भेद जानने वालों को जमा करके बोला कि राव जी बूढ़े हो गए हैं, उनकी बदइन्तजामी से मुल्क में झगड़े मचे हुए हैं। अपने दोस्त रोज-ब-रोज दुश्मनों से मिलते जाते हैं। लिहाजा आज यहां से चलते ही उन्हें पकड़ लो और कैद कर दो ताकि मुल्क में अमन-चैन हो जाए। यहां यह सलाह होती ही रही उधर राव जी को भी इसकी खबर लग गई। उन्होंने झटपट कछवाही रानी लाछलदेई की ड्योढ़ी पर पालकी भिजवा दी और कहलाया कि अभी किले से नीचे आ जाओ। रानी ने पूछा, मेरी खता? जवाब मिला कि तेरा बेटा तुझसे बतला देगा। रानी को उसी दम किला छोड़ना पड़ा। शाम को राम भी घमण्ड के नशे में झूमता हुआ आया और किले में जाने लगा तो किलेदार ने कहा, ‘‘आपको अन्दर जाने का हुक्म नहीं है।’’ राम ने कहा, ‘‘जाकर राव जी से कहो कि मैंने कौन-सी खता की है।’’

उन्होंने जवाब दिया– ‘‘तुम कपूत हो और किले में रहने के काबिल नहीं। बेहतर है कि तुम गोंडौज चले जाओ। वहीं तुम्हारे लिए सब इन्तजाम कर दिया जाएगा।’’

मजबूरन राम अपनी माँ के साथ गोंडौज चला गया। झाली रानियों ने जब यह अपनी मर्जी के मुताबिक करा लिया तो अब रूठी रानी के पीछे पड़ी कि किसी तरह यह सिल छाती पर से सरक जाती तो फिर किसी बात का खटका न रहता। हमारे हाथ में राव जी हैं ही, जो चाहते करते। चुनांचे राव जी के कान भरने लगीं कि रूठी रानी ही के इशारे से राम ऐसा आज्ञाद्रोही और फसादी हो गया है। रानियों के इशारे से और लोगों ने भी रूठी रानी की शिकायत की। यहां तक कि राव जी ने उसे भी गोंडौज भेज दिया। अब की बार पति की आज्ञा उसने बड़े शौक से मानी क्योंकि कछवाही रानी और कुमार राम से उसको बहुत स्नेह हो गया था। इसके अलावा वह राव जी को इतनी परेशानियों में फंसा देखकर उन्हें तंग करना ठीक न समझती थी। जिस दिन उसके गोंडौज जाने की खबर रनिवास में पहुंची उसकी सौतों के घर घी के चिराग जले।

कुमार राम की शादी राणा उदयसिंह की लड़की से हुई थी। गोंडौज में अपना निबाह न देखकर वह उदयपुर चला गया। राणा ने उसका बड़ा स्वागत सत्कार किया और मौजा कलेवा उसके रहने के लिए दे दिया जो मारवाड़ से बहुत नजदीक है। थोड़े दिन में राम अपनी मां और उमादे दोनों को उसी जगह ले गया। इस तरह झाली रानियों की आंख का कांटा निकल गया। राव जी भी बाहरी और भीतरी झंझटों से फुरसत पाकर देश जीतने में लग गए और बहुत-से खोए हुए इलाके फिर से जीत लिए बल्कि कई नए इलाके भी फतेह किए।

मगर इन सफलताओं का सिलसिला बहुत जल्द टूट गया। अकबर के तख्त पर आने और जोर पकड़ने से राव जी को अपनी ही पगड़ी सम्हालनी मुश्किल हो गई। धीरे-धीरे कितने ही इलाके हाथ से निकल गए। जवान बादशाह की जोशीली चढ़ाइयों का बूढ़ा राव क्या सामना करता। उसकी जिन्दगी के दिन भी पूरे हो गए थे। आखिर संवत् १६१९ के कार्तिक महीने में राव मालदेव ने बड़ी कामयाबी से राज करने के बाद स्वर्ग की राह ली।

रूठी रानी का सती होना

रानियां सती होने की तैयारियां करने लगीं। झाला रानी को उसके बेटे चन्द्रसेन ने सती होने से रोक लिया और कहा कि दो-चार दिन में सब सरदार आ जाएंगे, उनसे मेरी मदद का वादा कराके तब सती होना। झाला रानी ने चन्द्रसेन को, बावजूद उदयसिंह से छोटा होने के राव जी से कह-सुनकर उत्तराधिकारी बनवा दिया था। रानी हीरादेई ने भी समझाया कि चन्द्रसेन को इस तरह छोड़कर सती होने में बहुत नुकसान होगा। आखिर रानी सरूपदेई ठहर गईं, उस वक़्त सती न हुईं। दूसरी रानियां, खवासें, रखेलियां जो गिनती में इक्कीस थीं, राव जी की लाश के साथ जल मरीं।

राव जी के मरने की खबर बहुत जल्द सारे शहर में फैल गई। उनके बड़े-बड़े सरदार अपने सर मुंडवाकर जोधपुर में आने लगे। रानी सरूपदेई ने मृत्यु के पांचवें दिन सब सरदारों को इकट्ठा किया और उनसे कहा कि राव जी ने मेरे बेटे चन्द्रसेन को अपने हाथ से उत्तराधिकारी बनाया था। अब मैं आपके हाथों में यह फैसला छोड़कर सती होती हूं। सरदारों ने एक स्वर से कहा कि चन्द्रसेन हमारे राव हैं और हम उनके चाकर।

इस झमेले में और कई दिन की देर हो गई। रानी रोज सती होने की तैयारी करती मगर एक न एक ऐसा कारण पैदा हो जाता जिससे रुकना पड़ता। आखिर उसे गुस्सा आ गया, बेटे से झल्लाकर बोली– ‘‘तूने अपने राज के लिए मुझे राव जी के साथ जाने से रोक लिया और अभी तक तू अपने स्वार्थ की धुन में मेरे पीछे पड़ा हुआ है। मगर जिस राज के लिए तूने मेरा धर्म तोड़ा उस राज से तू या तेरी औलाद कोई फायदा न उठा सकेगी। यह शाप देकर रानी सरूपदेह ने चिता बनवाई और राव जी की पगड़ी के साथ सती हो गई।’’

दूसरी पगड़ी१ मृत्यु के तीसरे ही दिन कलेवा में पहुंची जहां कछवाही रानी और उमादेई कुमार राम के साथ रहती थीं। उस पगड़ी को देखते ही रूठीरानी ने उसी वक्त टेक छोड़ दी। उसका सारा घमण्ड दूर हो गया। रोकर कहने लगी– ‘‘अब किससे रूठूंगी, जिससे रूठती थी वह तो अब न रहा तो जीकर क्या करूंगी। उसने मेरा मान रख लिया। उसने मेरा घमण्ड निबाह दिया। अब मैं किसके लिए जिऊं। मेरी चिता भी बनवाओ। मैं भी राव जी का साथ न छोड़ूंगी।’’ (१. जब कोई राजा मर जाता था तो नाजिर उसकी पगड़ी लेकर रनिवास में जाता था। सती होनेवाली उस पगड़ी को ले लेती थी। दूसरी रानियां भी उसी के साथ सती हो जाती थीं। जो रानी कहीं दूर होती थी, उसके पास एक पगड़ी रवाना कर दी जाती थी।)

इधर लाछलदेई भी सती होने की तैयारी करने लगी। मगर उसका बेटा राम अपने बाप के उत्तराधिकारी बनने की धुन में मां के सती होने तक न ठहरा। उदयपुर चल दिया। उसकी यह जल्दबाजी और बेअदबी मां को बहुत बुरी लगी। अफसोस के साथ हाथ मलकर बोली– ‘‘राम, तेरे लिए हमें जोधपुर छोड़कर यहां दिन काटने पड़े और तू हमें इस तरह छोड़कर भागा जाता है। जा, अगर तेरी जुबान में कुछ असर है तो मुझे कभी मारवाड़ में रहना नसीब न होगा। तू या तेरी औलाद भी मारवाड़ का राज न करेगी, हमेशा दूसरे मुल्क की खाक छानती फिरेगी।’’

चिता तैयार होते ही यह खबर दूर-दूर तक फैल गई कि रूठी रानी भी राव जी पगड़ी के साथ सती होती हैं। चार-चार, पांच-पांच कोस के लोग इस सती के दर्शन करने के लिए दौड़े। सब हाथ जोड़कर कहते थे– ‘‘सती माता ! तू धन्य है। सच्ची सती इस कलयुग में तू ही है। धन्य है तुझको और तेरे मां-बाप को, इस देश मारवाड़ को, जिसे तू सती होकर पवित्र कर रही है। लाछलदेई, तुझे भी धन्य है। तुम दोनों सतीत्व की देवियां हो, तुम्हें हमारा प्रणाम है।’’

चिता तैयार हो गई, बाजे बजने लगे, दोनों रानियां या दोनों देवियां घोड़ों पर सवार होकर बजारों से निकलीं। ठट के ठट लोग देखने को फटे पड़ते थे। रुपया, जेवर और जवाहरात लुटाए जा रहे थे। चिता पर पहुंच कर दोनों आमने-सामने बैठीं और पति की पगड़ी बीच में रख ली। आग देने वाला कोई न था। सब लोग खड़े देख रहे थे। मारे अदब के किसी के मुंह से आवाज भी नहीं निकली। रूठी रानी का चेहरा चांद-सा चमक रहा था। यकायक कुमार राम बेइज्जती का ख्याल आते ही सुर्ख हो गया। उसके धधकते हुए दिल से नाजुक जबान को झुलसाते हुए यह शब्द निकले– ‘‘मैं तो अपने पति से रूठकर आयी सो आयी पर कोई दूसरी स्त्री इस तरह सौत के बेटे का साथ कभी न दे।’’ लाछलदेई उसका यह तेज देखकर डरी कि कहीं मेरे बेटे को कोई कड़ा शाप न दे दे। खुद बीच में बोल उठीं ताकि रूठी रानी खामोश हो जाए– बाई जी, इस कपूत ने सगी मां का तो कुछ ख्याल ही न किया और क्या करता। वह जरा देर ठहर जाता तो हमें राव जी के साथ जाने में इतनी देर न होती। उसको रोकता कौन था, आग दे देता तो चला जाता।

पति का प्यारा नाम सुनकर उमादेई को जोश आ गया। पति की सच्ची मुहब्बत, सच्चा प्रेम उस पर छा गया। उस वक्त उसकी निगाह जिस पर पड़ती थी वह मतवाला हो जाता था। किसी ने खूब कहा है–  

नैन छके बैना छके छके अधर मुसकाय
छकी दृष्टि जा पर पड़े रोम रोम छक जाय।

यानी आंखें, बातें और मुस्कुराने वाले होंठ सब नशे में मस्त हैं और मस्त निगाहें जिस पर पड़ती हैं उसका रोआं-रोआं मस्त हो जाता है।

फिर रूठी रानी ने जरा सम्भल कर कहा– ‘‘देखो यहां कोई राठौर तो नहीं है?’’ संयोग से जीत मालवत नाम का एक कंगाल राठौर मिला। वह डरता-डरता आया और हाथ जोड़कर बोला– ‘‘सती माता, मुझ पर दया कीजिए, मैं तो भूख से तंग होकर मारवाड़ छोड़ आया हूं और मेवाड़ में मेहनत-मजदूरी करके पेट पालता हूं। मैं चिता को आग देने के काबिल नहीं हूं।’’

उमा देई ने कहा– ‘‘ठाकुर, डरो मत, स्नान करके चिता में आग दे दो। तुम राठौर वंश के हो इसलिए तुम्हें बुलाया है।’’

उसने फिर अर्ज की– ‘‘सती माता, आग तो मैं दूंगा पर मातमी फर्श बिछाकर बारह दिन कहां बैठूंगा। मेरा तो घर भी इतना बड़ा नहीं कि जोधपुर की रानी का दाह करके उसमें मातम कर सकूं। मैं पेड़ों के तले तारों की छांव में रात काटा करता हूं।’’

उमा देई ने यह सुनकर मुंशी को इशारा किया। उसने उसी दम राणा जी के नाम सतियों की तरफ से खत लिखा कि राम हमको बगैर सती किए चला गया है, अब यह कलेवा गांव उससे छीनकर जीत मालवत राठौर को दे दें। इस तरह सती ने दस हजार का गांव उस राठौर गरीब को दिला दिया।

जीत मालवत ने चिट्ठी हाथ में ली और फौरन नहा-धोकर चिता में आग दे दी। दम के दम में वहां राथ की एक ढेरी के सिवा कोई निशान बाकी न रहा। घड़ी-दो-घड़ी में हवा ने जर्रों को इधर-उधर बिखेरकर और भी किस्सा तमाम कर दिया।

ता सहर वह भी छोड़ी तूने ओ बादे सबा
यादगारे रौनके महफिल थी परवाने की खाक


मगर खाक न रही तो क्या, रूठी रानी का नाम अभी तक चला आता है। लोग अभी तक उसके नाम का अदब करते हैं। इस तरह शादी के सत्ताईस बरस बाद उमा देई का मान टूटा और मान के साथ जिन्दगी का प्याला भी टूट गया। उमा देई भट्टानी तुझे धन्य है ! जब तक तू जिन्दा रही, तूने अपनी आन निबाही और मरी तो भी आन के साथ मरी। तू विमान पर चढ़ जा फरिश्ते हाथों में फूल लिए तेरे इन्तजार में खड़े हैं कि तुझे देखें और फूलों की बरखा करें। ऐ पवित्र देवी, जा सतीत्व तुझ पर न्यौछावर होने को तैयार है और तेरा प्यारा पति जिसके नाम पर तूने जान दी, आंखें बिछाए तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।

उमा देई भट्टानी के सती होने की खबर जब जोधपुर पहुंची तो लोग धन्य-धन्य करने लगे। कायम रहे वह भाटी वंश जिसमें ऐसी-ऐसी राजकुमारियां पैदा होती है, पति के रूठने पर भी जिनके सतीत्व की चादर पर कभी कोई धब्बा नहीं लगता, जिससे रूठती हैं, उसी के क़दमों पर अपना सिर निछावर कर देती हैं ! ऐसा रूठना कहीं किसी ने देखा है।

राव जी के देहान्त के बारहवें दिन जीत मालवत के लिए जोधपुर पगड़ी आयी। उसने सब क्रियाकर्म करके पगड़ी बांधी, फिर उदयपुर जाकर वह चिट्ठी राजा उदयसिंह को दी। उन्होंने चिट्ठी पढ़कर आदरपूर्वक उसे सिर पर रख लिया और कलेवा का पट्टा उसके नाम लिख दिया। उसने लौटकर उस गांव पर अपना कब्जा कर लिया। जहां रूठी रानी सती हुई थी, वहां एक पक्की छतरी बनवां दी थी, जिसका निशान आज तक मौजूद है। रूठी रानी की सिफारिश से जिस तरह जीत मालवत को कलेवा मिल गया उसी तरह उसकी बद्दुआ भी बेअसर न हुई। कुमार राम को जोधपुर की गद्दी पर बैठना नसीब न हुआ। उदयसिंह और अकबर के सम्मिलित प्रयत्न भी उसे वहां का राज दिलाने में नाकाम रहे। इसी नाकामी से वह कुछ दिनों देश निकालें की मुसीबतें झेलकर आखिरकार मर गया और अपने अरमान अपने साथ लेता गया। उसके पोते केशवदास को, जो अकबर और जहांगीर के तजकिरों में केशव मारू के नाम से मशहूर है, मालवा में एक छोटी-सी जागीर मिली थी जिसका नाम अमझेरा था। मगर सन् १८५७ ई. के गदर में वह भी जब्त हो गई।

झाली रानी सरूपदेई की बद्दुआ भी आखिरकार रंग लाई। उस वक्त तो चन्द्रसेन जोधपुर का राव हो गया मगर बाद को जब अकबर ने मालदेव के मरने की खबर पाकर मारवाड़ पर फौज़ें भेजीं तो कुमार राम, रायमल और उदयसिंह तीनों शाही फौज से आ मिले जिसका नतीजा यह हुआ कि संवत् १६२२ विक्रमी में चन्द्रसेन ने जोधपुर खाली कर दिया। अकबर ने उस मुल्क को सोलह बरस अपने हाथ में रखकर संवत् १६४० में उदयसिंह के हवाले कर दिया। उसकी सन्तानें अब तक जोधपुर पर राज करती हैं। चन्द्रसेन के पोते कर्मसेन को जहांगीर ने अजमेर के इलाके में भनाए का परगना दिया था। उसकी औलाद अब तक वहां है। इस तरह रूठी रानी की कहानी पूरी हुई। वह नहीं है मगर उसका नाम आज साढ़े तीन सौ साल गुजर जाने पर भी ज्यों का त्यों बना हुआ है।

मारवाड़ के कवीश्वरों ने उमा देई की तारीफ में जो कुछ लिखा है, वह इतना पुरअसर और पुरदर्द है कि उसे पढ़कर आज भी रोना आता है और दिल उमड़ आता है। अगर इस वक्त सती होने की रस्म नहीं है मगर उन कविताओं और गीतों को पढ़कर उस समय का करुण दृश्य आंखों के सामने आ जाता है। आसा जी चारण, जिसने एक दोहा पढ़कर उमा देई को हमेशा के लिए पति से अलग कर दिया था, उस वक्त एक मौजे में भारीली और बाघा के साथ रहता था। जब उसने रूठी रानी के सती होने की खबर पायी तो बोला-ऐ उमा देई, तुझे धन्य है। तूने कहा था आखिरी दम तक मेरा मान रह जाए तब तारीफ करना। जैसा तूने कहा था, कर दिखाया। तेरे साहस और तेरे स्वाभिमान को बार-बार धन्य है।

आसाजी ने उसी वक्त चौदह बंदों की एक कविता लिखी और इसकी नकलें सारे राजपूताने में भिजवायी क्योंकि उसने वादा किया था कि अगर मैं तुम्हारे बाद तक जिन्दा रहा तो तुम्हारे नाम को अमर बना जाऊंगा। बात के पक्के ने अपने वायदे को पूरा किया।

वह पद आज तक मारवाड़ के बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं और जब तक इन पदों को पढ़ने वाली बाकी रहेंगे, रूठी रानी का नाम रौशन रहेगा।

(समाप्त)

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रूठी रानी (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद
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रूठी रानी एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचन्द ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है। उपन्यास में राजाओं की पारस्परिक फूट और ईर्ष्या के ऐसे सजीव चि

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