सवैया
आली पग रंगे जे रंग साँवरे मो पै न आवत लालची नैना।
धावत हैं उतहीं जित मोहन रोके रुके नहिं घूँघट रोना।
काननि कौं कल नाहिं परै सखी प्रेम सों भीजे सुनैं बिन नैना।
रसखानि भई मधु की मछियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छुटे ना।।138।
श्री वृसभान की छान धुजा अटकी लरकान तें आन लई री।
वा रसखान के पानि की जानि छुड़ावति राधिका प्रेममई री।
जीवन मुरि सी नेज लिए इनहूँ चितयौ ऊनहूँ चितई री।
लाल लली दृग जोरत ही सुरझानि गुड़ी उरझाय दई री।।139।।
आब सबै ब्रज गोप लली ठिठकौं ह्वै गली जमुना-जल न्हाने।
औचक आइ मिले रसखानि बजावत बेनु सुनावत ताने।
हा हा करी सिसकीं सिगरी मति मैन हरी हियरा हुलसाने।
चूमें दिवानी अमानी चकोर सों ओर सों दोऊ चलैं दृग बाने।।140।।
कवित्त
छूट्यौ गृह काज लोक लाज मन मोहिनी को,
भूल्यौ मन मोहन को मुरली बजाइबौ।
देखो रसखान दिन द्वै में बात फैलि जै है,
सजनी कहाँ लौं चंद हाथन दुराइबौ।
कालि ही कालिंदी कूल चितयौ अचानक ही,
दोउन की दोऊ ओर मुरि मुसकाइबौ।
दोऊ परै पैंया दोऊ लेत हैं बलैया, इन्हें
भूल गई गैया उन्हें गागर उठाइबौ।।141।।
सवैया
मंजु मनोहर मूरि लखैं तबहीं सबहीं पतहीं तज दीनी।
प्राण पखेरू परे तलफें वह रूप के जाल मैं आस-अधीनी।
आँख सों आँख लड़ी जबहीं तब सों ये रहैं अँसुधा रंग भीनी।
या रसखानि अधीन भई सब गोप-लली तजि लाज नवीनी।।142।।
नंद को नंदन है दुखकंदन प्रेम के फंदन बाँधि लई हों।
एक दिन ब्रजराज के मंदिर मेरी अली इक बार गई हौं।
हेर्यौ लला लचकाइ कै मोतन जोहन की चकडोर भई हौं।
दौरी फिरौं दृग डोरन मैं हिय मैं अनुराग की बेलि बई हौं।।143।।
तीरथ भीर में भूलि परी अली छूट गइ नेकु धाय की बाँही।
हौं भटकी भटकी निकसी सु कुटुंब जसोमति की जिहिं धाँही।
देखत ही रसखान मनौ सु लग्यौ ही रह्यौ कब कों हियराँही।
भाँति अनेकन भूली हुती उहि द्यौस कौ भूलनि भूलत नाँहीं।।144।।
समुझे न कछू अजहूँ हरि सो अज नैन नचाइ नचाइ हँसै।
नित सास की सीखै उन्मात बनै दिन ही दिन माइ की कांति नसै।
चहूँ ओर बबा की सौ, सोर सुनैं मन मेतेऊ आवति री सकसै।
पै कहा करौं या रसखानि बिलोकि हियो हुलसै हुलसै हुलसै।।145।।
मारग रोकि रह्यौ रसखानि के कान परी झनकार नई है।
लोक चितै चित दै चितए नख तैं मनन माहिं निहाल भई है।
ठोढ़ी उठाई चितै मुसकाई मिलाइ कै नैन लगाई लई है।
जो बिछिया बजनी सजनी हम मोल लई पुनि बेचि दई है।।146।।
जमुना-तट बीर गई जब तें तब तें जग के मन माँझ तहौं।
ब्रज मोहन गोहन लागि भटू हौं लूट भई लूट सी लाख लहौं।
रसखान लला ललचाइ रहे गति आपनी हौं कहि कासों कहौं।
जिय आवत यों अबतों सब भाँति निसंक ह्वै अंक लगाय रहौं।।147।।
औचक दृष्टि परे कहु कान्ह जू तासो कहै ननदी अनुरागी।
सो सुनि सास रही मुख मोहिं जिठानी फिरै जिय मैं रिस पागी।
नीके निहारि कै देखे न आँखिन हौं कबहूँ भरि नैन न जागी।
मो पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न लागी।।148।।
सास की सासनहीं चलिबो चलियै निसिद्यौस चलावे जिही ढंग।
आली चबाव लुगाइन के डर जाति नहीं न नदी ननदी-संग।
भावती औ अनभावती भीर मैं छवै न गयौ कबहूँ अंग सों अंग।
घैरु करैं घरुहाई सबै रसखानि सौं मो सौं कहा कहा न भयो रंग।।149।।
घर ही घर घैरु घनौ घरिहि घरिहाइनि आगें न साँस भरौं।
लखि मेरियै ओर रिसाहिं सबैं सतराहिं जौं सौं हैं अनेक करौं।
रसखानि तो काज सबैं ब्रज तौ मेरौ बेरी भयौ कहि कासों लरौं।
बिनु देखे न क्यों हूँ निमेषै लगैं तेरे लेखें न हू या परेखें मरौं।।150।।
दोहा
स्याम सघन घन घेरि कै, रस बरस्यौ रसखानि।
भई दिवानी पानि करि, प्रेम-मद्य मन मानि।।151।।
सवैया
कोउ रिझावन कौ रसखानि कहै मुकतानि सौं माँग भरौंगी।
कोऊ कहै गहनो अंग-अंग दुकूल सुगंध पर्यौ पहिरौंगी।
तूँ न कहै न कहैं तौं कहौं हौं कहूँ न कहाँ तेरे पाँय परौंगी।
देखहि तूँ यह फूल की माल जसोमति-लाल-निहाल करौंगी।।152।।
प्यारी पै जाइ कितौ परि पाइ पची समझाइ सखी की सौं बेना।
बारक नंदकिशोर की ओर कह्यौ दृग छोर की कोर करै ना।
ह्वै निकस्यौ रसखान कहू उत डीठ पर्यौ पियरौं उपरै ना।
जीव सो पाय गई पचिवाय कियौ रुचि नेह गए लचि नैंना।।153।।
सखियाँ मनुहारि कै हारि रही भृकुटी को न छोर लली नचयौ।
चहुवा घनघोर नयौ उनयौ नभ नायक ओर चित्ते चितयौ।
बिकि आप गई हिय मोल लियौ रसखान हितू न हियों रिझयौ।
सिगरो दुःख तीछन कोटि कटाछन काटि कै सौतिन बाँटि दियौ।।154।।
खेलै अलीजन के गन मैं उत प्रीतम प्यारे सों नेह नवीनो।
बैननि बोघ करै इत कौं उत सैननि मोहन को मन लीनो।
नैनति की चलिबी कछु जानि सखी रसखानि चितैवे कौं कीनो।
जा लखि पाइ जंभाइ गई चुटकी चटकाइ विदा करि दीनो।।155।।
मोहन के मन भाइ गयौ इक भाइ सों ग्वालिनै गोधन बायो।
ताकों लग्यौ चट, चौहट सों दुरि औचक गात सों गात छबायौ।
रसखानि लही इनि चातुरता चुपचाप रही जब लों घर आयो।
नैन नचाई चित्तै मुसकाइ सू ओठ ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।।156।।
कान परे मृदु बैन मरु करि मौन रहौ पल आधिक साधे।
नंद बबा घर कों अकुलाय गई दधि लैं बिरहानल दाधे।
पाय दुहूननि प्राननि प्रान सों लाज दबै चितये दृग आने।
नैननि ही रसखान सनेह सही कियो लेउ दही कहि राधे।।157।।
केसरिया पट, केसरि खौर, बनौ गर गुंज को हार ढरारो।
को हौ जू आपनी या छवि सों जुखरे अँगना प्रति डीठि न डारो।
आनि बिकाऊ से होई रहे रसखानि कहै तुम्ह रौकि दुवारो।
'है तो बिकाऊँ जौ लेत बनैं हँसबोल निहारो है मोल हमारो।।158।।
एक समय इक ग्वालिनि कों ब्रजजीवन खेलत दृष्टि पर्यौ है।
बाल प्रबीन सकै करि कै सरकाइ के मौरन चीर धर्यौ है।
यौं रस ही रस ही रसखानि सखी अपनीमन भायो कर्यौ है।
नंद के लाड़िले ढाँकि दै सीस इहा हमरो बरु हाथ भर्यौ है।।159।।
मैं रसखान की खेलनि जीति के मालती माल उतार लई री।
मैरीये जानि कै सूधि सबै चुप है रही काहु न खई री।
भावते स्वेद की, बास सखी ननदी पहिचानि प्रचंड भई री।
मैं लखिबो के अँखियाँ मुसकाय लचाय नचाइ दई री।।160।।
ब्रषभान के गेह दिवारी के द्यौस अहीर अहीरनि भीर भई।
जितही तितही धुनि गोधन की सब ही ब्रज ह्वै रह्यौ राग मई।।
रसखान तबै हरि राधिका यों कछु सैननि ही रस बेल बई।
उहि अंजन आँखिन आँज्यौ भटू इत कुंकुम आड़ लिलार दई।।161।।
बात सुनी न कहूँ हरि की न कहूँ हरि सों मुख बोल हँसी है।
काल्हि ही गोरस बेचन कौं निकसी ब्रजवासिनि बीच लसी है।।
आजु ही बारक 'लेहु दही' कहि कै कछु नैनन मे बिहसी है।
बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है।।162।।
ग्वालिन द्वैक भुजान गहैं रसखानि कौं लाईं जसोमति पाहैं।|
लूटत हैं कहैं ये बन मैं मन मैं कहैं ये सुख लूट कहाँ हैं।।
अंग ही अंग ज्यौं ज्यौं ही लगैं त्यौं त्यौं ही न अंग ही अंग समाहैं।
वे पछलैं उलटै पग एक तौ वे पछलैं उलटै पग जाहैं।।163।।
दूर तें आई दुरे हीं दिखाइ अटा चढ़ि जाइ गह्यौ तहाँ आरौ।
चित कहूँ चितवै कितहूँ, चित्त और सौं चाहि करै चखवारौ।
रसखानि कहै यहि बीच अचानक जाइ सिढ़ी चढ़ि खास पुकारो।
रूखि गई सुकुवार हियो हनि सैन पटू कह्यौ स्याम सिधारौ।।164।।
दोहा
बंक बिलोकनि हँसनि मुरि, मधुर बैन रसखानि।
मिले रसिक रसराज दोउ, हरखि हिये रसखानि।।165।।