वो दिन बीत गए जो बचपन के,
उल्टी सीधी अठखेलियों और लड़कपन के,
सूरज उतरता था जब तालाब के पानी में ,
गुडियों का शुभ विवाह होता था अनजानी में,
बीत गया गुल्ली डंडा बीत गया पेड़ों पर चढ़ना,
सूख गए तालाब स्वप्नों के,
वो दिन बीत गए जो बचपन के।
खेल खेल दिन भर थक कर,
आते थे दबे पांव घर पर,
माँ फिर सुनाती थी कहानी,
ना रम कोई ना गम कोई,
दुःख से बिल्कुल अनजाने थे,
बस वो ही अनोखे पल थे हमारे जीवन के,
वो दिन बीत गए जो बचपन के उल्टी सीधी अठखेलियों और लड़कपन के।