है तपन है बढ़ी जल रहा है शहर,
धुएं की चादर ओढ़कर जल रहा है शहर।
अब परिंदे भी तो जाएं किधर ?
दरख्तों में अब न रहा है बसर।
उड़ गयी तितिलियाँ अब बगानों से,
अब मचा है तो देखो ,कहर ही कहर।
दरख्तों में अब पड़ गयी दरार है
पत्ते पत्ते भी प्यासे और बेकरार हैं
मिट गई शहर की निशानियाँ
टूट गया से व्यापार है