कितना कुछ इस मन के अन्दर
उमड़ घुमड़ कर बिखर गया ,
कुछ शब्दों के माध्यम से
कोरे काग़ज़ पर पसर गया !
इक कोने से ईर्ष्या उमड़ी
दूजे से कोई अभिलाषा
किसी कन्दरा से दुख निकला
रिसी कहीं से घोर निराशा !
नहीं पता था अन्तर में , मैं ,
इतना कुछ रख सकता हूँ
प्रेम भाव की पूँजी छोड़े ,
सब कुछ संचय करता हूँ !
देख दशा ये अन्तस्तल की
सिहर उठा मस्तक आपाद
प्रभु यह ले कर तुम मुझको
बस दे दो करुणा प्रेम अपार !!