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होमो सेपियन ही बन जाओ

30 जून 2017

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आज क़लम विद्रोह कर उठी

बोली तुम झूठा लिखती हो !

किस युग की बातें करती हो

सच पर क्यूँ परदा ढकती हो !


देखो दुनिया बदल रही है

प्रेम - राग सब मिथ्या ही है

भाई चारा कहीं खो गया

नातों की बुनियाद हिली है !


बाहर तनिक निकल कर देखो

रक्त- पात है आम हो रहा

क्या तुमने यथार्थ देखा है?

कौन यहां कविता सुनता है !


याद नहीं किस युग की गाथा

जब 'रसखान', 'श्याम' रंग रंगे

'अकबर' के प्रासाद कक्ष में

होते 'कृष्ण जन्म' के जलसे!


नामों से 'पहचान' जान कर

क्यूँ बन जाते हैं अंगारे

कब हिन्दू या मुस्लिम बन गये

इक 'आदम' के वंशज सारे !


कैसा यह उन्माद बढ़ रहा

कौन इसे है यूँ भड़काता

पल भर में हत्या कर देना

पाठ भला यह किस शिक्षा का ?


हो क़ुरान , गीता या बाइबिल

नहीं किसी की सीख घृणा है

हर मज़हब का एक सूत्र है

मानवता का धर्म बड़ा है !


बस कर दो !अब बस भी कर दो!!!

'नर पिशाच ' मत यूँ बन जाओ

जात- धर्म का तमग़ा फेंको

"होमों सेपियन " ही कहलाओ!!

उषा लाल की अन्य किताबें

नृपेंद्र कुमार शर्मा

नृपेंद्र कुमार शर्मा

बहुत बहुत खूब , सत्य है मानव अगर मानव ही बन सके तब समाज में शांति लेन के लिए कोई और कार्य करना ही न पड़े।

31 जुलाई 2017

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" बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ "

17 अक्टूबर 2016
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समस्त बेटियों को समर्पित ....जब हुयी प्रस्फुटित वह कलिकाकोई उपवन ना हर्षायाउसकी कोमलता को लख करपाषाण कोई न पिघलाया!वह पल प्रति पल विकसित होतीइक दिनचर्या जीती आईबच बच एक एक पग रखती वहशैशव व्यतीत करती आई!जिसने था उसका सृजन कियाउसने न मोल उसका जानावह था जो उसका जनक स्वयम् उसने न मोह उससे बाँधा !

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" हमारी मातृ - भाषा : हिन्दी "

20 अक्टूबर 2016
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मॉं का आँचल थाम कररहता है ज्यूँ हर शिशु सुरक्षितमातृ-भाषा बरतने से ,हो यूँ ही व्यक्तित्व मुखरितज्ञान जितना भी जटिल होग्रहण कर लो सुगमता से"हिन्दी" है स्पष्ट , कोमल,सरल, पूरित सरसता से !!

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" दोषी कौन "

1 नवम्बर 2016
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कुछ बच्चे औपचारिक शिक्षा के लिये अपने को अयोग्य पाते हैं किन्तु उनके अभिभावक इस सत्य को अस्वीकार करते हैं और अनावश्यक दबाव में बच्चे असहज रहते हैं - ऐसे माता पिता के लिये एक बच्चे की करुण पुकार ... मॉं मैं सबसे अलग थलग क्यूँ कक्षा में पड़ जाता हूँ ? कई बार तो कान पकड़ कर बाहर ही

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प्रार्थना

8 नवम्बर 2016
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कितना कुछ इस मन के अन्दर उमड़ घुमड़ कर बिखर गया ,कुछ शब्दों के माध्यम से कोरे काग़ज़ पर पसर गया !इक कोने से ईर्ष्या उमड़ीदूजे से कोई अभिलाषाकिसी कन्दरा से दुख निकलारिसी कहीं से घोर निराशा ! नहीं पता था अन्तर में , मैं ,इतना कुछ रख सकता हूँ प्रेम भाव की पूँजी छोड़े ,सब कुछ संचय करता हूँ !देख दशा ये

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" जीवन अपना ही अपना है "

19 दिसम्बर 2016
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आज तनिक अनमनी व्यथित होसोचा कैसा जीवन है यह?रोज़ एक जैसी दिनचर्या !न कुछ गति न ही कोई लय !!इक विचार फिर कौंधा मन में चलो किसी से बदली कर लें कुछ दिन कौतूहल से भर लें ,कुछ नवीन तो हम भी कर लें!एक -एक कर सबको आँका सबकी परिस्थिति को परखाकुछ-कुछ सबमें आड़े आयानहीं पात्र फिर कोई सुहाया !कहीं बहुत

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कब गीत प्रेम के गाऊँगी

10 फरवरी 2017
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अन्तर्मन का यह आर्तनाद्आत्मा पर आच्छादित विषादजीवन में पसरा अवसाद,कब दूर इसे कर पाऊँगी कब गीत प्रेम के गाऊँगी ?दुर्बल मन के अगणित विकाररुग्णित तन के कुत्सित विचारभावनाओं का उठता ये ज्वार क्या जीत इन्हें मैं पाऊँगी ?कब गीत प्रेम के गाऊँगी ..?जो बीत गया सो बीत गयाजो शेष बचा वह अस्थिर हैअपने इस व्याकुल

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महिला दिवस

8 मार्च 2017
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'महिला दिवस ' पर सभी महिलाओं को समर्पित दर्पण में प्रतिबिम्ब देख वह आत्ममुग्ध हो पलटीबोला उसे पुकार ,स्वयम् परडाल नयी अब दृष्टि !तनिक ध्यान से देखो तोतुम हो एक पुंज प्रकाश ,अपना मूल्याँकन करने काकुछ तो करो प्रयास !पंख लगे हैं अभिलाषा केउड़ लो पंख पसार!स्त्रोत शक्ति का हो अपारफिर

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अंकों से मत आंको ....

9 जून 2017
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अंकों से मत परखो मुझकोमैं कोई 'सूचकांक 'नहीं हूँ औरों से मत तुलना करनामौलिक हूँ 'मूल्याँक 'नहीं हूँ !मुझे पता है अपने सपनेमुझ पर आप टाँक रखते होअपनी अभिलाषा के दीपकमुझसे ही रोशन करते हो !मेरी अपनी सीमायें हैफिर भी अपनी इच्छा हैंमुझको वह सब नहीं सुहाताजग के लिये जो अच्छा है !पंख मेरे भी हैं सपनों के

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होमो सेपियन ही बन जाओ

30 जून 2017
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आज क़लम विद्रोह कर उठीबोली तुम झूठा लिखती हो !किस युग की बातें करती होसच पर क्यूँ परदा ढकती हो ! देखो दुनिया बदल रही हैप्रेम - राग सब मिथ्या ही हैभाई चारा कहीं खो गया नातों की बुनियाद हिली है !बाहर तनिक निकल कर देखोरक्त- पात है आम हो रहा क्या तुमने यथार्थ देखा है?कौन यहां कविता सुनता है !याद नहीं कि

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मन की उलझन

26 जुलाई 2017
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हे नाथ ! जो मैं पूछूँ तुमसेइक उलझन क्या सुलझाओगे ,क्यूँ कर है निर्धन मुझे किया ?इसका कारण समझाओगे !कह दोगे कर्म मेरे एेसे जो कष्ट मुझे पहुँचाते हैं फिर कहो कि जिनके कर्म उच्चवे क्यूँ कर हमें सताते हैं ?यदि रूप पशु का हम धरतेहम तब भी तो जी सकते थेकरके कुछ अधिक परिश्रम हम अपना पोषण क

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झूम उठेगा मन बैरागी

13 सितम्बर 2017
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कुछ दिन पूर्व 'आशा साहनी' जी की दर्दनाक मृत्यु की घटना ने युवा पीढ़ी पर कई प्रश्न उठाये थे . मेरा कहना उन माता पिता से है जिन्हें ऐसी परिस्थिति में जीवन की सन्ध्या व्यतीत करनी ही होती है ---- कुछ पल कभी चुरा कर तुमनेइक डिबिया में क़ैद किये थेउसे समझ कर अपनी पूँजीशेष उन्हीं पर वार दिये थे !धीरे धीरे

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जीवन की थाती

25 अक्टूबर 2017
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हम जाने कब से ढूँढ रहेकहने को मिल भी जाती है, है लेकिन हाथ नहीं आती रख लो तो बसिया जाती है !हर सुबह चाह ये रहती हैवह शायद आज मिले हमको,हाँ ज्ञात नहीं लेकिन वह क्यूंमिलते ही कुम्हला जाती है !है बूँद ओस के जैसी इकबस मोती जैसी चमक दिखा,पत्तों पर इन्द्र धनुष चमका,ओझल ख़ुद ही हो जाती है !!गर बाँटो तो बढ़

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हमजोली

20 जून 2018
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वह मुझसे , मैं उससे थोड़ाखिंचे-खिंचे से रहते हैं ,होते हरदम साथ, मगरकुछ तने तने से रहते हैं !उससे मेरी यही शिकायतउसने मुझे नकारा है ,उसका कहना ,सदा चुनौती रखमुझको ललकारा है !मेरा कहना - कड़ी धूप मेंउसने मेरी परीक्षा लीजब आँधी तूफ़ान चलेमेरे सिर से छतरी हर ली!जब मैं अपने घाव गिना करदोषी उसे

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