अन्तर्मन का यह आर्तनाद्
आत्मा पर आच्छादित विषाद
जीवन में पसरा अवसाद,
कब दूर इसे कर पाऊँगी
कब गीत प्रेम के गाऊँगी ?
दुर्बल मन के अगणित विकार
रुग्णित तन के कुत्सित विचार
भावनाओं का उठता ये ज्वार
क्या जीत इन्हें मैं पाऊँगी ?
कब गीत प्रेम के गाऊँगी ..?
जो बीत गया सो बीत गया
जो शेष बचा वह अस्थिर है
अपने इस व्याकुल मन को
क्या मैं शान्त कभी कर पाऊँगी
कब गीत प्रेम के गाऊँगी ...?
वह बन्द कली सा कोमल मन
वह प्रेम राग से सिंचित तन
वह नैसर्गिक भोला बचपन
क्या वापस फिर से पाऊँगी
कब गीत प्रेम के गाऊँगी ...?