हम जाने कब से ढूँढ रहे
कहने को मिल भी जाती है,
है लेकिन हाथ नहीं आती
रख लो तो बसिया जाती है !
हर सुबह चाह ये रहती है
वह शायद आज मिले हमको,
हाँ ज्ञात नहीं लेकिन वह क्यूं
मिलते ही कुम्हला जाती है !
है बूँद ओस के जैसी इक
बस मोती जैसी चमक दिखा,
पत्तों पर इन्द्र धनुष चमका,
ओझल ख़ुद ही हो जाती है !!
गर बाँटो तो बढ़ जाती है
न एक जगह टिक पाती है
बस इसे चाहिये कोमल मन
कटुता से वह कतराती है !!
तो आओ बाँटे यहाँ वहाँ
वह हाथों -हाथ निकल झट से ,
अधरों पर स्मिति पसरा कर,
बन धूप कहीं खिल जाती है!!
यह “ख़ुशी “नहीं सम्पत्ति तेरी
रह रह कर आती जाती है,
मन में इसकी स्मृति जोड़ो,
वह ही जीवन की थाती है!!