हे नाथ ! जो मैं पूछूँ तुमसे
इक उलझन क्या सुलझाओगे ,
क्यूँ कर है निर्धन मुझे किया ?
इसका कारण समझाओगे !
कह दोगे कर्म मेरे एेसे
जो कष्ट मुझे पहुँचाते हैं
फिर कहो कि जिनके कर्म उच्च
वे क्यूँ कर हमें सताते हैं ?
यदि रूप पशु का हम धरते
हम तब भी तो जी सकते थे
करके कुछ अधिक परिश्रम हम
अपना पोषण कर सकते थे !
दे रूप हमें यह मानव का
प्रभु तुमने यह परिहास किया
यूँ वस्तु विधान सभी रच कर
हमको उन सब से विलग किया !
हम श्रम बल भर के करते हैं
भण्डार उन्हीं का भरता है
जो प्रिय हैं अधिक तुम्हें मुझसे
संसार उन्हीं का सजता है !
निर्धनता ऐसा अवगुण है
है जिस पर कोई ज़ोर नहीं
मैं भाग्य कहूँ , या कहूँ नियति
या जन्मजात सा रोग सही !
यह मायाजाल तुम्हारा है
तुम इसके कर्ता - धर्ता हो
मुझको रच कर इस धरती पर
उपहास हमारा करते हो !!
फिर सोचा यह भी अच्छा है
हम धन वैभव से दूर रहें
हम उतना ही प्रयास डालें
जितने से अपना काम चले !
हम उन धनाढ़्य से अच्छे हैं
जो हक़ दूजे का हरते हैं
हम लोभी नहीं अपितु कर्मठ
अपनी क्षमता पर चलते है !
उपकार तुम्हारा है प्रभु ये
हम लोभ दम्भ से बचे रहे
अपनी जिजीविषा में डूबे
हर पाप कर्म से दूर रहे !!