प्रेम उपवन
मेरी धड़कनों की संवेगों को
क्यों बेइंतिहा बढ़ाते हो
देखा तुम्हें आज़ भी,अपनी राहों में
तुम किसी बुत से खड़े रहते हो
और मैं मंद पवन बन गुजर जाती हूं!
कुछ नया नहीं
कोई अद्भुत अनुभव नहीं
तुम मुश्किलों की दीवार बन
मन तरंग बन
दिमाग़ की गति धीमी कर जाते हो
सोचा बहुत अलग कर दूं
एक से दो
दो से चार कर दूं
देखो ना
जोड़,जोड़ सब तोड़ दिया करती हूं
लगता है कि
मर जाऊंगी मैं
खुदको तूझसे
अलग नहीं कर पाऊंगी!
मेरी धड़कनों की संवेगों को
क्यों बेइंतिहा बढ़ाते हो....
लूटे मन में
चांद चमकता नहीं
आफताब से दिया कोई मांग लाओ ना
लिखूंगी मैं आज़ फिर
अधूरे मन से प्रेम कविताएं
प्रेम में डूबा जहाज सा मन
पतवार बन कोई राह दिखाओ ना
आ जाओ इक बार कि
मधुवन में इक प्रेम उपवन
मिलकर हम लगायेंगे
प्रेम पानी से सींचकर
उपवन हम हरा भरा बनायेंगे।।
प्राची सिंह "मुंगेरी"