भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण मई 1974 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शासनकाल में किया था. इस परमाणु परीक्षण का नाम "स्माइलिंग बुद्धा" था. इसके बाद मई 1998 में पोखरण परीक्षण रेंज पर किये गए पांच परमाणु बम परीक्षणों की श्रृंखला का एक हिस्सा था. भारत ने 11 और 13 मई, 1998 को राजस्थान के पोखरण स्थल पर 5 परमाणु परीक्षण किये थे.
इस कदम के साथ ही भारत की दुनिया भर में धाक जम गई. भारत पहला ऐसा परमाणु शक्ति संपन्न देश बना जिसने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. भारत द्वारा किये गए इन परमाणु परीक्षणों की सफलता ने विश्व समुदाय की नींद उड़ा दी थी.
भारत के महान खगोल शास्त्री आर्यभट्ट
हमारे देश ने विज्ञान के क्षेत्र में भी प्राचीनकाल में काफी प्रगति की थी। गौतम ऋषि का वैज्ञानिक दर्शन, कणाद का दर्शन, दशमलव, जीरो की खोज, लीलावती की गणित की जानकारी आदि ऐसी खोजें थीं, जिनको सुनकर आज भी आश्चर्य होता है। प्राचीन भारतीय-विज्ञान, खगोल-विज्ञान में भी बड़ा उन्नत और शीर्ष पर था। नालन्दा विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में प्रख्यात खगोल-शास्त्री आर्यभट्ट ने अपनी नवीन और महत्त्वपूर्ण खोजों के द्वारा पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था।
आचार्य आर्यभट्ट को उस समय के खगोलशास्त्रियों और गणितज्ञों का सम्राट कहा जाता था, मगर अत्यन्त दुःख की बात है कि इस महान खगोल- विज्ञानी के जीवन, कार्यों तथा उनकी लिखी पुस्तकों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। उनकी पुस्तक 'आर्यभट्टीय' में आए एक श्लोक के अनुसार जन्म सम्भवतः 21 मार्च, सन् 476 ई. में हुआ था। इस समय पटना पर सम्राट बुध गुप्त का शासन था। कुछ लोगों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म पटना के पास कुसुमपुर में हुआ था, मगर केरल के कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म केरल में हुआ था। अपने इस कथन की पुष्टि हेतु केरल के विद्वानों के पास अपने तर्क हैं, लेकिन कहीं के भी हों, आर्यभट्ट सम्पूर्ण भारत के विद्वान थे।
आर्यभट्ट की प्रसिद्ध पुस्तक 'आर्यभट्टीय' है। इस पुस्तक में कुल चार अध्याय हैं। पहले अध्याय में 13 श्लोक हैं, दूसरे में 33, तीसरे में 25 और चौथे अध्याय में 50 श्लोक हैं। सन् 1191 ई. में जन्मे सूर्यदेव के अनुसार 'आर्यभट्टीय' दो पुस्तकों का संकलन हैं-दशागीतिका-सूत्र तथा आर्याष्टाशत ।आर्यभट्ट पहले खगोल-शास्त्री थे, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि सृष्टि का निर्माण एक अनादि और अनन्त तक चलने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, तारों, ग्रहों तथा ब्रह्माण्ड आदि के बारे में विस्तृत गणनाएं कीं और उनके आधार पर खगोल-विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी तथा युग परिवर्तनकारी खोजें कीं। उन्होंने सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सितारे अन्तरिक्ष में स्थिर हैं। पृथ्वी की दैनिक परिक्रमा के कारण सितारे और ग्रह उगते हुए दिखाई देते हैं। उन्होंने बताया कि पृथ्वी एक प्राण (4 सेकण्ड) में 30 से. मी. घूमती है और 43,20,000 वर्षों में 1,58,22,37,500 बार घूम जाती है।
भास्कर (629 ईस्वी) ने 'आर्यभट्टीय' पुस्तक की पहली टीका लिखी। बरामिहिर, श्रीपति, लाटदेव आदि आर्यभट्ट के शिष्य थे। वर्षों तक 'आर्यभट्टीय' खगोल विज्ञान की प्रामाणिक पुस्तक रही। भास्कर की टीका के बाद पुस्तक का महत्त्व और भी बढ़ गया। आगे जाकर भास्कर ने स्वयं 'महा-भास्करीय' तथा लघु-भास्करीय' पुस्तकें लिखीं। 869 में शंकरनारायण ने 'आर्यभट्टीय' को समझने के लिए भास्करीय टीका पढ़ने की आवश्यकता जतलाई ।
'आर्यभट्टीय' नामक पुस्तक के अन्य टीकाकरों में सोमेश्वर, सूर्यदेव, कोदण्डराम, कृष्ण और कृष्णदास प्रमुख थे। परमेश्वर (1360-1455) ने 'भट्ट दीपिका' लिखी, जो सन् 1874 ई. में प्रकाशित हुई।
वास्तव में आर्यभट्ट की पुस्तक 'आर्यभट्टीय' एक दुरूह विषय पर लिखी गई दुरूह पुस्तक है। इस कारण खगोल-शास्त्रियों ने बार-बारइसकी टीका की और सरल रूप में इसे समझने की कोशिश की। इस पुस्तक के आधार पर खगोल-शास्त्र के कई ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। भास्कर, हरिदत्त, देव, दामोदर, पुतुमन सोमयाजी, शंकर बर्मन आदि लेखकों ने अपनी पुस्तकों का आधार ही 'आर्यभट्ट' को बनाया। देश-विदेश में आर्यभट्ट की इस पुस्तक की धूम मच गई।
आर्यभट्ट की दूसरी पुस्तक 'आर्यभट्ट-सिद्धान्त' थी। इस पुस्तक में दिन और रात्रि की गणना के क्रम में बताया गया था। 'आर्यभट्टीय' और 'आर्यभट्टीय सिद्धान्त' दोनों ही पुस्तकें खगोल-विज्ञान की महत्त्वपूर्ण पुस्तकें थीं। इन पुस्तकों में खगोल शास्त्रीय विधियों, उपकरणों, गणनाओं तथा गवेषणाओं का विशद वर्णन है। आर्यभट्ट की पुस्तकों पर जैन साहित्य और दर्शन की स्पष्ट छाप है
ब्रह्मगुप्त नामक लेखक ने आर्यभट्ट को आधार मानकर 'खण्ड खाद्यक' नामक एक सरल पोथी लिखी ताकि आर्यभट्ट का काम सामान्यजन के काम आ सके और दैनिक जीवन में काम आने वाली गणनाएं भी की जा स
आर्यभट्ट की शिष्य परम्परा में पाण्डुरन स्वामी, लाटदेव, निशंक आदि थे। इनमें लाटदेव सबसे योग्य विद्वान थे। इन्होंने भी दो पुस्तकें लिखीं। 'आर्यभट्टीय' आज भी खगोलविज्ञान का आधार ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के आधार पर सूर्य, चन्द्र एवं ग्रहों की गणनाएं की जाती हैं और इनकी सारणियां बनाई गई हैं
आर्यभट्ट ने सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण की सर्वप्रथम वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की थी। वास्तव में आर्यभट्ट हमारी प्राचीन ऋषि परम्परा के विद्वान थे, जिन्होंने नई विधियां, नई गणनाएं तथा नए उपकरण काम में लिए और खगोलविज्ञान को पुनः प्रतिष्ठित किया। काश! उनके जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में और ज्यादा जानकारी मिल सके।
परमाणु का रहस्य
(परमाणु के दो हिस्से होते हैं-केन्द्र का भारी हिस्सा जिसे नाभिक या न्यूक्लियस कहा जाता है और इसके गिर्द चक्कर काटते इलेक्ट्रॉन। नाभिक में दो तरह के कण मौजूद होते हैं-प्रोटॉन और न्यूट्रॉन। सृष्टि के हर तत्त्व के परमाणु में ये कण एक समान हैं। तत्त्वोंके गुणों में अन्तर इनकी संख्या से आता है। ये कण आपस में एकजुट होकर रहते हैं, जिससे परमाणु जल्दी टूट नहीं पाता। यह एकजुटता उस बल या ऊर्जा के कारण होती है, जो सभी कणों को आपस में बांधे रखती है। पर अगर किसी तरह परमाणु को तोड़ दिया जाए तो यह ऊर्जा मुक्तहो सकती है और हम. इसका उपयोग या दुरुपयोग कर सकते हैं। परमाणुओं को तोड़कर ऊर्जा प्राप्त करने की तकनीक वैज्ञानिकों के बीच 'न्यूक्लियर फिशन' यानी परमाणु विखण्डन के नाम से जानी जाती है। मात्र एक परमाणु टूटने से बहुत कम मात्रा में ऊर्जा निकलती है, पर पदार्थ की थोड़ी-सी मात्रा में भी अरबों-खरबों परमाणु समाए रहते हैं, इसलिए ऊर्जा की अथाह मात्रा सामने आती है। आमतौर पर परमाणु बम इसी तकनीक के आधार पर बनाए जाते हैं।
पर यह सब कुछ इतना आसान नहीं है। सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण काम है। परमाणुओं को तोड़ना और वह भी मनचाहे समय और लक्ष्य पर। इसके लिए सबसे पहले खोज हुई एक उपयुक्त तत्त्व की, जिसका परमाणु आसानी से तोड़ा जा सके। वैज्ञानिकों ने यूरेनियम को चुना, क्योंकि यह बहुत भारी धातु है और इसका परमाणु सृष्टि के सभी तत्त्वों के परमाणुओं में सबसे बड़ा है। बड़ा होने के कारण इसमें मौजूद कणों को आपस में बांधे रखना बहुत मुश्किल होता है। वैज्ञानिक यूरेनियम की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं। प्राकृतिक यूरेनियम के नाभिक में 92 प्रोटॉन और 146 न्यूट्रॉन होते हैं। इनकी कुल संख्या 238 हुई, इसलिए इसे 'यूरेनियम-238' के नाम से भी जाना जाता है। इन कणों की ज्यादा संख्या होने के कारण ऊर्जा भी ज्यादा मिलती है। पर इस प्राकृतिक यूरेनियम के बीच इसका एक छोटा भाई भी छिपा रहता है, जिसमें न्यूट्रॉन की संख्या तीन कम यानी 143 होती है। वैज्ञानिक ऐसे भाइयों को 'आइसोटोप' यानी समस्थनिक कहते हैं। यूरेनियम का यह भाई 'यूरेनियम-235' के नाम से जाना जाता है और इसका परमाणु अपने, बड़े भाई की तुलना में कहीं अधिक जल्दी टूट जाता है। इसलिए परमाणु बम बनाने में इसी का इस्तेमाल किया जाता है
- 'यूरेनियम-235' का अणु इतना कमजोर होता है कि मात्र एक न्यूट्रॉन के प्रहार से टूटकर दो टुकड़े मो जाता है। इससे दो नए तत्त्व के परमाणु बन जाते हैं-वेरियम और क्रिप्टन। साथ ही उष्मा के रूप में ऊर्जा फूट पड़ती है। खतरनाक रेडियोधर्मिता फैलाने वाले गामा-विकिरण भी इसी तोड़-फोड़ का नतीजा है। इसके अलावा कुछ न्यूट्रॉन भी बचे।रहते हैं जो वहीं मौजूद अन्य परमाणुओं पर हमला बोल देते हैं। इस तरह एक बार फिर यही प्रक्रिया चालू हो जाती है। परमाणुओं के विखण्डन का यह सिलसिला सतत जारी रहता है, इसलिए वैज्ञानिक इसे 'चेन रिएक्शन' या श्रृंखलात्मक प्रक्रिया कहते हैं। यह प्रक्रिया बेहद तेज रफ्तार से सम्पन्न होती है। सभी परमाणु एक सेकण्ड के दस लाखवें हिस्से के भीतर ही विखण्डित होकर अथाह ऊर्जा को विस्फोट के रूप में वातावरण में झोंक देते हैं। परमाणु विखण्डन से प्राप्त कुल ऊर्जा का 85 फीसदी हिस्सा विस्फोट और ऊष्मा के रूप में सामने आता है जबकि 15 प्रतिशत अदृश्य विकिरण बनकर वातावरण में घुल-मिल जाता है। परमाणु बम के दूरगामी प्रभाव इसी विकिरण से उपजते हैं। विस्फोट के रूप में निकली ऊर्जा हवा की रफ्तार 500 किलोमीटर प्रति घण्टा तक कर सकती है। इस रफ्तार पर बड़े भवन धराशायी हो सकते हैं। वायुमण्डलीय दाब ट्रक के टायर में भरी हवा जितना बढ़ सकता है। आसपास का तापमान भी बहुत ऊंचा हो सकता है। परमाणु बम विस्फोट से तुरन्त होने वाला जान-माल का नुकसान इन्हीं वजहों से होता है। इन बुरे प्रभावों से बचने के लिए ही परमाणु परीक्षण जमीन के भीतर किए जाते हैं। पोखरण में किए गए
सभी परमाणु परीक्षण भूमि के सौ मीटर के भीतर सम्पन्न किए गए। परमाणु बम विस्फोट का सबसे जाना-पहचाना प्रतीक आग से उपजा लाल-काला धुआं है, जो एक विशेष आकृति में बनता और दिखाई देता है। इसे 'मशरूम क्लाउड' कहा जाता है क्योंकि दूर से देखने पर यह मशरूम जैसा ही दिखाई देता है ।ऊपर गोल छतरी और नीचे मोटी डण्डी। दरअसल जैसे ही परमाणु बम विस्फोट होता है, विस्फोट की ऊर्जा से आग का एक विशाल गोली हवा में बन जाता है। यह विस्फोट की शक्तिशाली तरंगों के साथ वायुमण्डल में ऊपर उठता है। एक निश्चित ऊंचाई पर जाकर आग का गोला फैलता है और मशरूम की छतरी का आकार ले लेता है। नीचे खाली हुई जगह में वेग से आने वाली हवाएं धूल और धुएं का गुबार भर देती हैं। इस तरह मशरूम की डण्डी या तना बन जाता है।
सैद्धान्तिक रूप से ऐसा लगता है कि यूरेनियम-225 का केवल एकपरमाणु तोड़ने से ही सतत प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाएगी और जारी रहेगी। परन्तु व्यावहारिकता में ऐसा नहीं है। सतत प्रक्रिया प्रारम्भ करने और जारी रखने के लिए यूरेनियम-235 की एक निश्चित मात्रा की आवश्यकता होती है। इसे 'क्रिटिकल मास' या क्रान्तिक द्रव्यमान कहते हैं। सैद्धान्तिक रूप से इसकी मान एक किलोग्राम है, पर अशुद्धियों के कारण कम से कम 50 किलोग्राम यूरेनियम-235 रखना पड़ता है। परमाणु बम बनाने के लिए क्रान्तिक द्रव्यमान से थोड़े अधिक यूरेनियम-235 को विशेष व्यवस्था करके बम में रखा जाता है, ताकि सही समय पर ही विस्फोट हो। सबसे सरल और साधारण प्रकार का बम वह था, जो हिरोशिमा पर गिराया गया था। इसे बन्दूक जैसा बम कहते हैं। क्योंकि इसकी व्यवस्था बन्दूक जैसी होती है। इसमें यूरेनियम-235 को खरबूजे जैसे गोल आकार का बना लिया जाता है। फिर एक फांक काट ली जाती है। मुख्य हिस्से को बैरल के एक छोर पर और फांक को दूसरे छोर पर रख दिया जाता है। फांक को इस तरह रखते हैं कि तेजी से आगे जाने पर वह मुख्य हिस्से में सही जगह पर फिट हो जाए। फांक के पीछे कोई साधारण विस्फोट सामग्री रख दी जाती है। विस्फोटक सामग्री को दागने पुर फांक तेज रफ्तार और, बल से मुख्य हिस्से में फिट हो जाती है और परमाणु विस्फोट की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
परमाणु बम बनाने के लिए यूरेनियम के अलावा प्लूटोनियम का इस्तेमाल भी किया जाता है। प्रकृति में प्लूटोनियम की अत्यन्त अल्पमात्रा मौजूद है, इसलिए इसे परमाणु रिएक्टर में यूरेनियम-238 से बनाया जाता है। परमाणु बम बनाने के लिए प्लूटोनियम के जिस आइसोटोप का इस्तेमाल करते हैं, उसे प्लूटोनियम-239 कहते हैं। इसका क्रान्तिक द्रव्यमान 16 किलोग्राम है। यदि प्लूटोनियम के चारों ओर यूरेनियम-238 को एक मोटी तह लगा दी जाए तो क्रान्तिक द्रव्यमान घटकर-मात्र 10 किलोग्राम रह जाता है। दरअसल यूरेनियम-238 मुक्त हुए न्यूट्रॉनों को बाहर नहीं जाने देता, जिससे सतत प्रक्रिया बढ़ जाती है। प्लूटोनियम से बम बनाने में बन्दूक वाली व्यवस्था काम नहीं आती। इसको एक विशेष तकनीक से व्यवस्थित किया जाता है, जिसे 'इम्प्लोजन' कहते हैं। इसके तहत प्लूटोनियम के गोले को फनाकर (वाज़ शेप) के रूप में कई हिस्सों में बांट लेते हैं और इन्हें न्यूट्रॉन स्रोत के चारों ओर सजा देते हैं। प्रत्येक टुकड़े के पीछे एक निश्चित मात्रा में विस्फोटक रखा जाता है। सभी हिस्सों को एक साथ दागा जाता है। ये तेज रफ्तार से बलपूर्वक केन्द्र की ओर आते हैं और एकजुट होकर प्लूटोनियम का गोला बना देते हैं। इसकेसाथ ही सतत प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। नागासाकी पर गिराया गया दूसरा परमाणु बम इसी प्रकार का था।
ग्यारह मई को भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण में भी प्लूटोनियम का इस्तेमाल किया गया। इस प्रकार के परमाणु बम बड़े नगरों या विशाल सैनिक ठिकानों को तहस-नहस करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। पर परमाणु बम बनाना इतना आसान नहीं है। सही क्षमता का परमाणु बम बनाने के लिए बार-बार परीक्षण करने पड़ते हैं। इनसे - मिले आंकड़ों को जांचा-परखा जाता है। भूल सुधार किया जाता है। तब - कहीं जाकर तैयार होता है एक विध्वंसकारी परमाणु बम। फिर भी दुनिया के पांच प्रमुख देशों (अमेरिका, रूस, फ्रांस, इंग्लैण्ड और चीन) के पास- सन् 1997 ई. के अन्त तक कोई 36 हाजर परमाणु बम होने की खबर थी। इनके जरिए धरती को सैकड़ों बार तहस-नहस किया जा सकता है
परमाणु बम का एक अन्य शक्तिशाली रूप है 'हाइड्रोजन बम' । मूल रूप से यह भी परमाणु ऊर्जा पर आधारित है, पर इसमें हाइड्रोजन के परमाणुओं का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए इसे बम का नाम दिया गया है। भारत में ग्यारह मई को हुए तीन परमाणु परीक्षणों में से एक ने हाइड्रोजन बम बनाने की क्षमता प्रदर्शित की थी। परमाणु बम की - तुलना में हाइड्रोजन बम कहीं अधिक शक्तिशाली और विध्वंसक माने जाते हैं। हाइड्रोजन बम का पहला परीक्षण अमेरिका में सन् 1952 ई. में प्रशान्त महासागर में किया था। इससे पांच से सात मेगाटन विध्वंसक क्षमता सामने आई थी। एक मेगाटन का मतलब होता है दस लाख टन टी. एन. टी. के बराबर विध्वसंक शक्ति। टी. एन. टी. (ट्राइनाइट्रो टाल्युईन) एक साधारण विस्फोटक है, जिसे अनेक सैनिक तथा निमार्ण कार्यों में इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका के बाद रूस, इंग्लैण्ड, फ्रांस और चीन भी परमाणु बम तैयार कर चुके हैं। अब तक का सबसे बड़ा हाइड्रोजन बम परीक्षण रूस ने 30 अगस्त, सन् 1961 ई. को किया था। अनुमान है कि इससे 60 मेगाटन विध्वंसक ऊर्जा निकली थी। इस हिसाब से जापान पर गिराए गए परमाणु बम इसके नाती-पोतों के बराबर हैं। उनसे मात्र 15 किलोटन ऊर्जा निकली थी। फिर भी जो तबाही हुई। उसकी याद से आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। परमाणु बमों की अधिकतम क्षमता कुछ सौ किलोटन तक आंकी गई है। हाइड्रोजन बम की विध्वंसक क्षमता का अन्दाज लगाने भर से देह में सिहरन दौड़ जाती है।
पर हाइड्रोजन बम के साथ एक सुविधा है-इसे छोटे से छोटा आकार दिया जा सकता है। वजह यह कि इसके लिए क्रान्तिक भार नहीं बल्कि तापमान चाहिए। इसीलिए हाइड्रोजन बम को 'थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस' भी कहा जाता है। दरअसल हाइड्रोजन बम बनाने में परमाणु बम के विपरीत सिद्धान्त का इस्तेमाल होता है। इसमें परमाणुओं को तोड़ने की जगह जोड़ा जाता है। परमाणुओं को छोटे नाभिकों को आपस में जोड़कर बड़ा नाभिक तैयार किया जाता है। छोटे नाभिक में परमाणु कणों को आपस में बांधे रखने में ज़्यादा ऊर्जा लगती है, जबकि बड़े नाभिक में कम ऊर्जा खपती है। इसीलिए परमाणुओं के जुड़ने पर बड़ी मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। पर छोटे नाभिक आपस में आसानी से मिलते नहीं। इसके लिए उनकी आपस में बहुत तेज रफ्तार से टक्कर होनी जरूरी होती है। तेज रफ्तार के लिए परमाणुओं को कई सौ लाख डिग्री सेल्सियस तापमान देना पड़ता है। इसे ही क्रान्तिक तापमान मिल जाए तो परमाणुओं के जुड़ने की सतत प्रक्रिया चल पड़ती है और यह तापमान बना रहता है। यह प्रक्रिया तभी रुकती है जब परमाणु सामग्री इतनी फैल जाती है कि क्रान्तिक तापमान गिर जाए। यह पूरी प्रक्रिया पलक झपकते घटती है और विस्फोट, ऊष्मा तथा विकिरण के रूप में भारी ऊर्जा वातावरण में बिखर जाती है। इसीलिए परमाणु बम की तरह हाइड्रोजन बम का परीक्षण भी जमीन के भीतर किया जाता है।
हाइड्रोजन बम बनाने के लिए मूल हाइड्रोजन तत्त्व की जगह इसके दी आइसटोपों का उपयोग किया जाता है-ड्यूटीरियम और ट्रिटियम। ड्यूटीरियम पानी में अत्यन्त अल्पमात्रा (5,000 में एक हिस्सा) में मौजूद होता है। इसे पानी से ही निकाला और शुद्ध किया जाता है जबकि ट्रिटियम को प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार करते हैं। हाइड्रोजन बम की सतत प्रक्रिया प्रारम्भ करने के लिए आवश्यक क्रान्तिक तापमान औरदांव परमाणु बम द्वारा दिया जाता है। इस परमाणु बम की क्षमता
अहमदाबाद या बेंगलूर जैसे शहर को तबाह करने लायक परमाणु बम
बराबर होती है। आजकल वैज्ञानिक परमाणु बम की जगह लेसर किरणों
को 'ट्रिगर' की तरह इस्तेमाल करने पर प्रयोग कर रहे हैं। हाइड्रोज
में लिथियम ड्यूटीराइड नामक यौगिक को ईंधन की तरह स्तेमाल कि
जाता है। यह यौगिक लिथियम और ड्यूटीरियम के मेल से बनता है।
यौगिक के इस्तेमाल के दो फायदे हैं। एक तो इससे ड्यूटीरियम
नाभिक बेहद करीब आ जाते हैं और दूसरे न्यूट्रॉनों की बौछार होने
लिथियम से ट्रिटियम बनता है। ड्यूटीरियम और ट्रिटियम के नाभि आपस में जुड़कर हाइड्रोजन बम की विध्वंसक प्रक्रिया प्रारम्भ कर देते हैं यह प्रक्रिया केवल ड्यूटीरियम ट्रिटियम तक ही सीमित नहीं रहती। इड्यूटीरियम-ड्यूटीरियम, लिथियम-ड्यूटीरियम जैसी प्रक्रियाएं भी चलरहती हैं, जिससे मिलने वाली ऊर्जा की मात्रा लगातार बढ़ती रहती हैइस प्रकार के हाइड्रोजन बम को अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता क्योकि इसके विस्फोट से खतरनाक विकिरण कम मात्रा में निकलते हैं।पर अक्सर हाइड्रोजन बम पर यूरेनियम-238 का आवरण चढ़ा दिया जाता है। हाइड्रोजन बम की सतत प्रक्रिया से बच रहे न्यूट्रॉन इस आवरण पर हमला बोल देते हैं, जिससे यूरेनियम-238 के परमाणु विखण्डित होकर परमाणु बम की तरह ऊर्जा विस्तारित करने लगते हैं। इस तरह एक ही बम हाइड्रोजन बम और परमाणु बम दोनों की तरह काम करने लगता है। इस प्रकार के बम बेहद खतरनाक माने गए हैं। वैसे भी समान भार वाली परमाणु सामग्री होने पर हाइड्रोजन बम से परमाणु बम की तुलना में तिगुनी ऊर्जा मिलती है।
हाइड्रोजन बम को छोटे आकार में गढ़ने की सुविधा के कारण मिसाइलों में इन्हीं का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा परमाणु पनडुब्बियों और हवाई जहाजों से फेंक जाने वाले छोटे बमों को भी हाइड्रोजन बम के रूप में ही बनाया जाता है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि अगर 10 किलोटन वाला कोई हाइड्रोजन बम (दुहरे प्रकार का) लक्ष्य से 150 मीटर ऊपर हवा में दागा जाए तो 900 मीटर के क्षेत्र में पूरी तबाही हो जाएगी। वहां कुछ नहीं बचेगा। कोई सवा किलोमीटर के क्षेत्र में रहने वाले लोग उस समय तो बच जाएंगे, पर विकिरण के कारण कुछ ही दिनों में उनकी मौत हो जाएगी। डेढ़ किलोमीटर के क्षेत्र में विस्फोट से होने वाला विध्वंस दिखाई तो देगा, पर विकिरण का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा।
हाइड्रोजन बम के अलावा भारत ने तीन छोटे परमाणु बमों का भी सफलतापूर्वक परीक्षण किया। इनसे केवल कुछ किलोटन ऊर्जा ही मिल पाती है। इसलिए इन्हें 'लो-यील्ड डिवाइस' कहा जाता है। उसके गोले कोई पैदल सिपाही भी लेकर भाग सकता है और लक्ष्य पर फेंक सकता है। इसे बांध, पुल आदि को नष्ट करने तथा सैनिक ठिकानों पर तबाही मचाने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।
परमाणु बम और हाइड्रोजन बम छोटे हों या बड़े, उनकी विध्वंसक क्षमता कम हो या ज्यादा, पर एक बात लगभग तय है। यदि धरती पर एक बार परमाणु युद्ध छिड़ गया तो सम्पूर्ण धरा के मानवविहीन होने में देर नहीं लगेगी। जोनाथन शेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'द फेट ऑफद अर्थ' में लिखा है, 'हम चरम और अनन्त अन्धकार में डूब जाएंगे.. एक ऐसा अन्धकार जिसमें कोई राष्ट्र, कोई समाज कोई विचारधारा कोई सभ्यता नहीं बचेगी.... फिर किसी शिशु का जन्म नहीं होगा और धरती पर फिर कभी मानव अवतरित नहीं होगा.... ऐसा भी कोई नहीं बचेगा, जो धरती पर मानव के अस्तित्व को याद करे।' हम ऐसा अन्धकार चाहते हैं या फिर विकास की उजली किरणें? यह दुनिया के राजनेताओं को तय करना है।
अगला विस्फोट कंप्यूटर में
उम्मीद है कि भविष्य में पोखरण और उसके आसपास के गांव वालों को परमाणु विस्फोटों की दहशत नहीं झेलनी पड़ेगी। वजह यह कि अब भारत के पास भी कम्प्यूटर में परमाणु परीक्षण करने की योग्यता आ गई है। अभी तक केवल अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ही कम्प्यूटर में परीक्षण कर रहे थे। दरअसल कम्प्यूटर में जरूरी आंकड़े और जानकारियां 'फीड' करके ठीक उसी तरह परमाणु परीक्षण किया जा सकता है, जैसे जमीन के अन्दर होता है। इस प्रक्रिया को 'सिमुलेशन' या अनुरूपण कहते हैं। आजकल सैनिक कार्यों में अनुरूपण की प्रक्रिया का व्यापक इस्तेमाल हो रहा है। खासतौर से वायुसैनिक हवाई युद्ध के अभ्यास के लिए कम्प्यूटर का ही इस्तेमाल करते हैं। अनुरूपण के लिए शर्त सिर्फ इतनी है कि कम्प्यूटर को पर्याप्त आंकड़े मिलें और कम्प्यूटर में उन आंकड़ों से गणना करने की क्षमता हो।
अभी तक केवल अमेरिका के पास ही कम्प्यूटर में परमाणु परीक्षण करने के लिए आवश्यक आंकड़े उपलब्ध हैं। इंग्लैण्ड और फ्रांस एक समझौते के तहत अमेरिका से आंकड़े लेकर कम्प्यूटर में परमाणु परीक्षण करते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों को आशा है कि 11 और 13 मई को किए गए परमाणु परीक्षणों से इतने आंकड़े मिल जाएंगे कि हम भी कम्प्यूटर में परमाणु परीक्षण कर सकेंगे। इसके लिए मुख्य रूप से तीन किस्म के आंकड़े इकट्ठा करने पड़ते हैं। ये हैं वायुमण्डलीय दाब, भूकम्पीय तरंगों और रेडियोधार्मिता के आंकड़े। ये आंकड़े केवल अपने देश से ही नहीं, बल्कि दुनियाभर की भूकम्पीय और मौसमी प्रयोगशालाओं से मंगाए जाते हैं। इनके आधार पर व्यापक गणनाएं करके कम्प्यूटर पर परवाणु परीक्षणका अनुरूपण किया जा सकता है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने इसी साल मार्च के महीने में 'परम-दस हजार नामक सुपर-कम्प्यूटर विकसित करके यह समस्या भी सुलझा ली है। इसे पुणे स्थित 'सेंटर फॉर एडवांस्ड कम्प्यूटिंग' यानी 'सी-डैक' के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। यह एक सेकण्ड में एक सौ अरब गणितीय गणनाएं कर सकता है। वैसे कुछ विशेषज्ञों का यह मानना भी है कि कम्प्यूटर पर परमाणु हथियार की डिजाइन बनाने के लिए हमें सुपर-कम्प्यूटर नहीं, बल्कि 'सुपर-गणितीय दिमाग' चाहिए। सुपर-कम्प्यूटर खासतौर से छोटे परमाणु बम बनाने में भारी सहायता करेंगे। छोटे परमाणु बम दुश्मन के किसी खास सैनिक इलाके या 'टार्गेट' को तहस-नहस करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। इन्हें मिसाइलों के जरिए लक्ष्य पर छोड़ा जा सकता है। छोटे परमाणु बम बनाने के लिए आंकड़े भी छोटे यानी कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण से हासिल किए जाते हैं। इन्हें तकनीकी भाषा में 'लो-यील्ड डिवाइस' या 'सब-किलोटन' परीक्षण कहा जाता है
कम्प्यूटर पर परीक्षण करने की क्षमता हासिल होने से अब भारत सी. टी. वी. टी. पर बेहिचक हस्ताक्षर कर सकता है। कारण कि सी. टी. वी. टी. के प्रावधानों के तहत हवा, पानी या जमीन के अन्दर परमाणु।परीक्षण करने पर रोक है। कम्प्यूटर पर परीक्षण किए जा सकते हैं। इन परीक्षणों को 'सबक्रिटिकल' यानी अपक्रान्तिक परीक्षण कहा जाता है।
एक तकनीक झांसा देने की
अपने तमाम जासूसी उपग्रहों और तकनीकी ताम-झाम के बावजूद अमेरिका को भारत के परमाणु परीक्षणों की भनक भी नहीं लगी। इसकी कई वजहें हैं। इस 'ऑपरेशन' को गुप्त रखने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने तकनीकी कौशल के साथ ही चालाकी और मौसम का सहारा भी लिया। क्या आपने कभी यह सोचा कि भारत में अब तक हुए सभी परमाणु परीक्षण मई के महीने में क्यों किए गए? इसकी दो वजहें हैं। पहली बात तो यह है कि इस महीने रेगिस्तान में कई-कई दिनों तक धूल भरे अंधड़ चलते रहते हैं। इस वजह से अन्तरिक्ष में मंडराते जासूसी उपग्रहों को सतह पर होने वाली कोई गतिविधि दिखाई नहीं देती। उनकी आंखों में धूल झुक जाती है। अंधड़ की वजह से टायरों के निशान भी फटाफट गायब हो जाते हैं। अन्यथा टायरों के निशान के चित्रों से ही किसी गुप्त 'ऑपरेशन की भनक लग जाती है।
दूसरी वजह मई के दिन में तापमान का कोई 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाना है। इतने ऊंचे तापमान के कारण गर्मी के आधार पर गतिविधि ताड़ने वाले 'इंफ्रा रेड सेंसर' नाकाम हो जाते हैं। 'इंफ्रा रेड' नाम है उन किरणों का जिनमें गर्माहट होती है। इन्हें अवरक्त किरणें भी कहा जाता है। ये किरणें मानव समेत तमाम जीवों की देह से भी फूटती रहती है। इसलिए गतिविधि वाली जगह पर 'इंफ्रा रेड' किरणों का खास जमावड़ा हो जाता है। जासूसी उपग्रहों में लगे 'इंफ्रा रेड सेंसर' इसी गर्माहट को तोड़कर विशेष गतिविधि की ओर इशारा कर देते हैं। पर जब गर्मी ही इतनी ज्यादा हो तो ये बेचारे क्या करेंगे। गौरतलब है कि जथ दिसम्बर, सन् 1995 ई. में भारत में परमाणु विस्फोट करने की योजना बनाई तो सर्दी के मौसम के कारण ये लाभ नहीं मिल पाए और अमेरिका को इसकी खबर लग गई। नतीजतन भारत को अपना कार्यक्रम रद करना पड़ा।भारत को अन्तरिक्ष में 'आई. आर. एस.' श्रृंखला दूर-संवेदी उपग्रह स्थिापित करने का भी फायदा भी हुआ। वैज्ञानिकों ने बताया कि इसकी वजह से हमें अमेरिका के जासूसी उपग्रहों के बारे में पूरी जानकारी थी। हमें पता था कि ये कब-कब और कहां-कहां निगाह रखते हैं। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने एक चाल भी खेली। जासूसी उपग्रहों को नियन्त्रित करने वालों को झांसा देने के लिए ओड़िशा के चांदीपुर मिसाइल परीक्षण रेंज में अचानक जोर-शोर से काम शुरू कर दिया गया। इससे जासूसी उपग्रहों ने अपनी निगाहें चांदीपुर पर गाड़ दीं। पोखरण को भूल गए। कई दिनों तक धोखे में रहने के बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि यहां तो कुछ खास नहीं हो रहा।
पर जब तक वे निगाहें फेरकर सचेत होते देर हो चुकी थी। कहा जाता है कि परमाणु परीक्षण की तारीख तय करने से पहले ग्रहों की दशाओं पर भी विचार किया गया था। ये ग्रह दशाएं ठीक वैसी ही थीं, जैसी सन् 1974 ई. के परमाणु परीक्षण के समय थीं। कहते हैं कि इस सम्पूर्ण ऑपरेशन के प्रमुख कर्णधार डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की ग्रहों-नक्षत्रों की दुनिया में खासी दिलचस्पी है। A.P.J Abdul kalam
का पूरा नाम नाम Abul Pakin Jainualab deen Abdul Kalam
पोखरण से सिर्फ कुछ किलोमीटर के फासले पर बसे गांवों (खेतलाई, लाठी, भदरिया) के लोग एक बार फिर भयभीत हैं। यहां के बुजुर्ग याद करके बताते हैं कि सन् 1974 ई. में हुए विस्फोट के कुछ घण्टों बाद ही. गांव के तमाम लोग खुजली के शिकार हो गए थे। इसमें परेशानी के साथ ही पीड़ा भी थी। इसके बाद इन गांवों के दस लोग कैंसर के शिकार होकर मौत की नींद सो गए। कई मवेशी अंधे हो गए और कुछ की असमय मौत भी हो गई। कई बच्चे विकलांग हो गए। इसके अलावा सन् 1974 ई. के विस्फोट के बाद से यहां की गाएं कम दूध देने लगीं। यह सब कुछ परमाणु विस्फोट से उत्पन्न विकिरणों (रेडियेशन) के कारण हुआ, या नहीं, इस पर वैज्ञानिक विवाद हो सकता है। पर गांवों के लोग इन घटनाओं के दोहराव की आशंका से दहशत में हैं।वैज्ञानिक कहते हैं कि इन परमाणु परीक्षणों से वातावरण में जरा-भी रेडियोधर्मिता नहीं फैली है। पर आम राय है कि इसका असर कुछ महीनों बाद ही पता लगेगा। रेडियोधर्मिता कुछ भारी तत्त्वों का एक खास गुण है, जैसे यूरेनियम, रेडियम आदि। दरअसल इन तत्त्वों के परमाणु के नाभिकों के भारीपन के कारण स्थायित्व नहीं होता। इसलिए इनमें से लगातार कुछ कण 'रेडिएशन' या विकिरण के रूप में निकलते रहते हैं ये विकिरण पूरी तरह अदृश्य होते हैं, पर बड़ी गम्भीर चोट मारते हैं। इनका पता सन् 1897 ई. में फ्रांस के वैज्ञानिक एंटोनी हेनरी बेकरेल ने संयोग से लगाया था। ये खतरनाक विकिरण मुख्य रूप से तीन किस्म के माने गए हैं-अल्फा, बीटा और गामा। अल्फा कण 50 लाख इलेक्ट्रॉन बोल्ट के बराबर ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं। पर उन्हें रोकना बड़ा आसान है। कागज की एक मोटी शीट भी इनका रास्ता रोक सकती है। इसीलिए ये हमारी चमड़ी को नहीं भेद पाते। पर अगर धूल या खुले घाव के जरिए ये हमारी देह में घुस जाएं तो घातक साबित हो सकते हैं। बीटा कण 53 लाख इलेक्ट्रॉन बोल्ट तक ऊर्जा उत्सर्जित कर सकतेहैं। पर इनका रास्ता रोकना आसान नहीं है, क्योंकि ये हवा में कई फुट भीतर तक घुस जाते हैं। धातु या प्लास्टिक की कुछ इंच मोटी चादर को भी ये भेद देते हैं। इसलिए ये शरीर के लिए काफी खतरनाक हैं। इनसे चमड़ी तुरन्त झुलस जाती है और यदि शरीर को कुछ लम्बे समय तक बीटा कण झेलने पड़ें तो स्थिति घातक हो सकती है। गामा कणों की ऊर्जा तो अल्फा कणों से लगभग आधी है, पर इनकी भेदन क्षमता बहुत अधिक है। अगर इनसे बचना हो तो सीसे (लेड) की 2 से 10 इंज मोटी दीवार की जरूरत पड़ेगी। यदि दीवार कंक्रीट की बनानी हो तो इसकी मोटाई लगभग तीन गज रखनी पड़ेगी। ये हमारी देह के भीतर घुसकर गम्भीर नुकसान पहुंचाते हैं। कैंसर और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली विकलांगता इन्हीं गामा विकिरणों के कारण उपजती है। लोकप्रिय 'एक्स-रे' गामा विकिरण का ही एक रूप है। परमाणु विस्फोट से इन तीनों ही प्रकार के विकिरण निकलने की सम्भावना होती है। इसीलिए हवा या पानी के भीतर परमाणु विस्फोट करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि किसी भी कीमत पर वातावरण में जरा भी रेडियोधर्मिता न फैल पाये। फिर भी रेडियोधर्मिता फैलने की एक आशंका तो बनी ही रहती है।
परमाणु बम द्वारा हमले की आशंका के चलते कई पश्चिमी देशों में विशेष भूमिगत कक्ष बनाए गए हैं। कहा जाता है कि इन कक्षों में रहने वालों पर परमाणु विस्फोट का कोई असर नहीं होगा। इनकी दीवारें और छत बहुत मोटी कंक्रीट से बनी है तथा इनमें सीसे की चादर का इस्तेमाल भी किया गया है। कुछ देशों में ये आश्रयस्थल निजीतौर पर बनवाकर बेचे भी जा रहे हैं। स्वीडन में ये शरण स्थल भारी तादाद में बनाए जा रहे हैं। कहते हैं कि सन् 2000 ई. तक वहां इतो कक्ष हो जाएंगे कि पूरी आबादी उनमें सपा सके। वैज्ञानिक कहते हैं कि यदि अब परमाणु युद्ध छिड़ा तो धरती और धरतीवासी पूरी तरह तबाह हो जाएंगे। मानव के साथ तमाम जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों का भी नाश हो जाएगा। पर् एक जीव के फिर भी बच निकलने की सम्भावना है। काक्रोच यानी तिलचट्टा नाम है इसका !
परमाणु ऊर्जा का उपयोग
इक्कीसवीं सदी की चौखट पर खड़ा विश्व अगर सबसे अधिक भयाक्रान्त है तो बढ़ती आबादी और परमाणु युद्ध से। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद दो महाशक्तियों में चला आ रहा शीत युद्ध तो समाप्त हो गया, लेकिन परमाणु शस्त्रों का जो भण्डार इकट्ठा हो गया है उसे कम समय में नष्ट भी नहीं किया जा सकता है। परमाणु बम बनाने से ज्यादा कठिन और जोखिम भरा काम है उसे नष्ट करना इस समय केवल अमेरिका और रूस के पास ही परमाणु शस्त्रों को नष्ट करने की विशिष्ट वैज्ञानिक तकनीक जानकारी उपलब्ध है। परमाणु हथियारों को नष्ट करने के लिए दो तरीके अपनाए जाते हैं एक तो परमाणु बमों का प्रक्षेपण करने वाले प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट कर दिया जाता है ताकि परमाणु बम का इस्तेमाल ही न हो सके और दूसरे परमाणु बमों में प्रयुक्त उच्च संवर्द्धित प्लूटोनियम एवं यूरेनियम को रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा मिलावट करके संवर्द्धित चरण से असंवर्द्धित चरण की ओर वापस लौटाना पड़ता है। इसका इस्तेमाल परमाणु ऊर्जा संयन्त्रों में किया जा सकता है। इस तरह परमाणु अस्त्रों को नष्ट करने की प्रक्रिया पूरी होती है।
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं शस्त्र नियन्त्रण (आई. पी. ए. सी.) की. ताजा रिपोर्ट के अनुसार आज भी विश्व के पांच परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन के पास 19,600 परमाणु शस्त्र हैं जिनसे पृथ्वी की सम्पूर्ण मानवजाति का पचासों बार विनाश किया जा सकता है।
परमाणु शस्त्रों के बढ़ते भण्डार को देखते हुए उन पर नियन्त्रण केलिए सन् 1967 ई. में 17 देशों के जेनेवा निशस्त्रीकरण सम्मेलन में
परमाणु अप्रसार सन्धि का प्रारूप प्रस्तुत किया था। उक्त सन्धि में
खासतौर पर परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा परमाणु शस्त्र विहिन राष्ट्रों
पर परमाणु शस्त्र का प्रयोग न करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की
परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा परमाणु रास्ता विहीन राष्ट्रों को परमा
बम बनाने की जानकारी नहीं देने एवं परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र भविष्य
में नए परमाणु शस्त्र न बनाने पर भी सहमत हुए थे। लेकिन देखने
तस्वीर ठीक उल्टी लगती है। सन्धि परमाणु शस्त्र सम्पन्न राष्ट्रों से परमा
शक्ति विहीन राष्ट्रों को परमाणु सामग्री का प्रवाह रोक पाने में अस
रही। सन् 1967 ई. के बाद से विश्व के कई अन्य देश परमाणु शक्ति
प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो चुके हैं जिनमें दक्षिण अफ्रीका, भा
पाकिस्तान और इस्राइल उल्लेखनीय हैं
विगत मई माह में न्यूयार्क में सम्पन्न परमाणु अप्रसार सन्धि सम्मेलन में भारत, पाकिस्तान और इस्राइल ने सन्धि की समय सीमा को अनिश्चित काल तक के लिए बढ़ाने के प्रस्ताव का विरोध किया। वहीं अमेरिका की दादागीरी के चलते 170 देशों के प्रतिनिधियों ने इस सन्धि के प्रारूप पर हस्ताक्षर कर दिए। आज इस्राइल के पास 50-100 की संख्या में परमाणु शस्त्र हैं। वहीं भारत और पाकिस्तान ने भी कुछ वर्षों में परमाणु बम।बनाने की क्षमता विकसित कर ली है।
परमाणु क्षमता का विनाशकारी इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों की सलाह से जापान के दो महानगरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम डाल कर किया था। उन बमों के विनाशकारी परिणामों को देखकर परमाणु बम के जनक जे. रावर्ट ओपेनहाइमर और एनरिकों फर्मी भी विचलित हो उठे थे। जापान के इन दो महानगरों की तकरीबन 2.50 लाख आबादी मौत के मुंह में समा गई थी और आज पचास वर्ष बीतने के पश्चात् भी वहां जन्म लेने वाले शिशुओं पर प्रतिकूल असर दिखाई पड़ रहा है।
आज एक बार फिर परमाणु वैज्ञानिक परमाणु बमों के दुरुपयोग की आशंका से वाकिफ होते हुए भी इनका परीक्षण जारी रखे हुए हैं। वहीं इसके शान्ति पूर्ण इस्तेमाल के क्षेत्रों के बारे में भी वैज्ञानिक गहन शोध कार्य कर रहे हैं और उन्हें इससे भारी सफलता भी मिल चुकी है जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका में 20 अगस्त, सन् 1951 ई. को ई. वी. आर.-1 परमाणु केन्द्र से विद्युत ऊर्जा का उत्पादन शुरू हुआ और विश्व के वैज्ञानिकों को विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए एक अन्य क्षेत्र जिनमें असीमित सम्भावनाएं थी का अवसर प्राप्त हुआ। आज जापान के फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा केन्द्र विश्व में सर्वाधिक 8,814 मेगावाट विद्युत ऊर्जा का उत्पादन कर रहा है।
भारत को परमाणु युग में प्रवेश
कराने का श्रेय सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा को जाता है। उन्हीं के अथक परिश्रम के फलस्वरूप सन् 1955 ई. में बम्बई के पास ट्रांबे में परमाणु ऊर्जा अनुसन्धान केन्द्र की स्थापना की गई। डॉ. भामा की जनवरी, सन् 1966 ई. में एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो जाने के बाद उनकी स्मृति में इस केन्द्र का नाम 'भाभा परमाणु
अनुसन्धान केन्द्र' कर दिया गया।
सन् 1969 ई. में 'तारापुर परमाणु ऊर्जा केन्द्र' की स्थापना के साथ ही भारत में परमाणु ऊर्जा से विद्युत उत्पादन प्रारम्भ हुआ। यह केन्द्र अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी के सहयोग से बना था। इसकी क्षमता 320 मेगावाट है और इस केन्द्र से उत्पादित विद्युत ऊर्जा का प्रयोग महाराष्ट्र और गुजरात राज्य कर रहे हैं। आज भारत अपने नौ परमाणु ऊर्जा केन्द्रों से प्रतिवर्ष 1,740 मेगावाट विद्युत उत्पादन कर रहा है जो कि देश में उत्पादित विद्युत ऊर्जा का केवल 2.5 प्रतिशत है।
परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में ईंधन के रूप में प्रयुक्त यूरेनियम और प्लूटोनियम रेडियोधर्मी तत्त्व है जिनसे विकिरण फैलता है। यह विकिरण जानलेवा होता है लेकिन रेडियोधर्मी यूरेनियम और प्लूटोनियम के आइसोटोप्रो का उत्पादन और संस्मरण भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र द्वारा बड़े पैमाने पर किया जाता है जिनका प्रयोग कृषि अनुसन्धान, उद्योग धन्धों और चिकित्सा के क्षेत्र में व्यापक रूप से किया जा रहा है।
आज जिस स्तर और पैमाने पर परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल की आवश्यकता है उस पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऊर्जा के क्षेत्र और मानवीय जरूरतों के अन्य क्षेत्रों में परमाणु क्षमता का उपयोगकरके इसकी सकारात्मक ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। जितनी धनराशि विकसित और विकासशील देश विध्वंसक कार्यों के लिए खर्च कर रहे हैं यदि उस धनराशि का एक चौथाई भी विश्व की विकराल समस्याओं भुखमरी, अशिक्षा, वीमारी आदि के नियन्त्रण के लिए खर्च करें तो विश्व से ये समस्याएं समूल समाप्त की जा सकती है। आज जरूरत इस बात की है कि परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र मानव कल्याण को ध्यान में रखते हुए परमाणु ऊर्जा का प्रयोग शान्तिपूर्ण कार्यों में करें।
परमाणु शक्ति के घटक
1. यूरेनियम
यूरेनियम चांदी की तरह सफेद रंग का एक रेडियोधर्मी तत्त्व है। यह प्रकृति में मुक्त अवस्था में पाया जाता है। इसका रासायनिक सूत्र यू (U) है। यूरेनियम का प्रयोग मुख्यतः ईंधन के रूप में न्यूक्लियर रियेक्टरों में किया जाता है जो कि परमाणु ऊर्जा उत्पादन का मुख्य स्रोत है। यह अतिशीघ्र अन्य तत्त्वों से क्रिया करके यौगिक बना लेता है जो कि अत्यन्त ही विषैला होता है। 0.45 ग्राम संवर्धित यूरेनियम से 1000 मीट्रिक टन कोयले के जलाने से प्राप्त ऊर्जा से अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है। यूरेनियम का प्रयोग एटमबम बनाने के साथ-साथ शान्तिपूर्ण कार्यों में भी किया जा सकता है। यूरेनियम की खोज एक जर्मन वैज्ञानिक मार्टिन कलाप्राथ ने सन्1789 ई. में पिंच ब्लेंडी खनिज में से की थी और यूरेनिस नक्षत्र की याद
में इस तत्त्व का नाम यूरेनियम रखा। फ्रांसिसी रसायनशास्त्री यूगेन पेलीगोट सन् 1841 ई. में पिंच ब्लैंडी से संबर्धित यूरेनियम प्राप्त करने में सफल हुए। यूरेनियम के तीन आइसोटोप यू-238, यू-235 एवं यू-234 पाए जाते हैं। इसका परमाणु भार-238.029, परमाणु संख्या-92, 20 डिग्री सेल्सियस तापमान पर गलनांक मेल्टिंग पवांइट 1,132 डिग्री सेल्सियस एवं क्वथनांक (ब्वाइलिंग प्वाइंट)- 3.218 डिग्री सेल्सियस
विश्व से सर्वाधिक यूरेनियम का उत्पादन करने वाले दे
(1) कनाडा-8,706 मीट्रिक
(3) आस्ट्रेलिया-3,520 मीट्रिक
(5) नामीबिया-3,211 मीट्रिक
(स्रोत: यूरेनियम इस्टीट्यूट लन्द
(2) सोवियत रूस-5,000 मीट्रिक
(4) अमेरिका-3,387 मीट्रिक
2. प्लूटोनियम
प्लूटोनियम एक रासायनिक रेडियोधर्मी तत्त्व है। यह प्रकृति में सूक्ष्म मात्रा में ही पाया जाता है। इसका कृत्रिम रूप से उत्पादन किया जाता है। इसका रासायनिक सूत्र पी. यू. (PU) है। यह अत्यन्त जहरीला तत्त्व है- जिसका लाखवां हिस्सा भी कैंसर जैसे भयानक रोगों का कारण बन सकता है। इससे निकली एल्फा किरणें विकरण फैलाकर घातक रोग पैदा कर देती हैं। यह अत्यन्त विस्फोटक पदार्थ है जिसके विखण्डन की प्रक्रिया से गुजरने से असीम ऊर्जा उत्पन्न होती है। प्लूटोनियम के 15 आइसोटोप पी यू-232 से पी यू-246 पाए जाते हैं। पी यू-239 का प्रयोग न्यूक्लियर रिक्टरों में ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जाता है एवं बम बनाने में भी प्लूटोनियम का इस्तेमाल किया जाता है
प्लूटोनियम के आइसोटोपों का प्रयोग चिकित्सा और उद्योग के क्षेत्र में किया जाता है। प्लूटोनियम तत्त्व की खोज सन् 1940 ई. में चार अमरीकी वैज्ञानिकों-ग्लीन सीबोर्ग, एडविन मैकमिलन, जोजेफ डब्ल्यू केनेडी एवं आर्थर बहल ने की थी। यूरेनियम-238 पर ड्यूट्रोन के बमबारमेंट से पी यू-238 आइसोटोप प्राप्त किया गया। अति संवर्धित पी यू-244 की खोज सन् 1971 ई. में की गई। एक विनाशकारी बम बनाने।के लिए टेनिस के गेंद के आकार के बराबर प्लूटोनियम पर्याप्त होता है। 20 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर प्लूटोनियम का गलनांक-6-40 डिग्री सेल्सियस एवं क्वथनांक (ब्लाइलिंग प्वाइंट)-3,460 डिग्री सेल्सियस होता है।
क्या है परमाणु बम
परमाणु बम (एटोमिक बम) विस्फोट के पश्चात् भीषण, ऊर्जा, और गर्मी उत्पन्न करते हैं। जिससे अधिकेन्द्र के पास का तापमान हजारों डिग्री सेल्सियस में पहुंच जाता है। प्लूटोनियम के केन्द्रक या यूरेनियम अणुओं के विखण्डन (फिशन) से ये बम बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने परमाणु बम का विकास किया और 16 जुलाई, सन् 1945 ई. को अल्मागार्दो, न्यू मैक्सिको के रेगिस्तान में इस तरह के बम का प्रथम परीक्षण विस्फोट किया। इस बम से 19 किलो टन शक्ति का विस्फोट हुआ। एक किलो टन में 910 मीट्रिक टन टी. एन. टी. की ऊर्जा होती है।
परमाणु बम से उत्पन्न गर्मी से लोहे के खम्भे वाष्प बनकर उड़ जाते हैं। खुली त्वचा और ज्वनलशीन पदार्थ भी वाष्प बनकर उड़ जाते हैं। 10 किलो टन से निकला विकिरण असुरक्षित लोगों को घातक रोगों की चपेट में ला देता है जिनकी कुछ समय पश्चात् मृत्यु हो जाती है।परमाणु शक्ति के शिकार दो शहर
हिरोशिमा जापान के सबसे बड़े द्वीप हांसू के दक्षिणी किनारे पर स्थित हिरोशिमा शहर पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 6 अगस्त, सन् 1945 ई. को सुबह आठ बजकर पैंतालिस मिनट पर अमरीकी बम वर्षक विमान बी-29 ने लिटिल ब्याय' नामक परमाणु बम गिराया। यह बम 20,000 टन टी. एन. टी. विस्फोटक से ज्यादा शक्तिशाली था। विखण्डन से उत्पन्न ऊर्जा से लगभग एक लाख बीस हजार व्यक्ति मारे गए और बाद में विकिरण से काफी संख्या में प्रभावित होकर मृत्यु विकलांगता और घातक रोगों के शिकार हुए। यह बम यूरेनियम-235 से बना हुआ था और इसका वजन 4,080 किलोग्राम था।
नाकोसाकी-जापान के दूसरे प्रमुख शहर नागासाकी पर 9 अगस्त, सन् 1945 ई. को सुबह ग्यारह बजकर दो मिनट पर दूसरा एटमबम 'फैट बम' गिराया गया यह प्लूटोनियम से बना हुआ और 45,000 किलोग्राम वजन वाला बम था। इस बम के विस्फोट से नागासाकी का 40 प्रतिशत हिस्सा तबाह हो गया था। सन् 1945 ई. के अन्त तक नागासाकी शहर में लगभग एक लाख व्यक्ति एटमबम से मारे जा चुके थे।
पृथ्वी मिसाइल
जमीन से जमीन पर मार करने वाली पृथ्वी मिसाइल एक बार फिर अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा में है। पिछली 27 जनवरी, सन् 1995 ई. को भारत ने पृथ्वी मिसाइल की वायुसैनिक किस्म का परीक्षण किया, लेकिन उसके पहले से ही अमेरिका ने भारत को आगाह करना शुरू कर दिया कि इस मिसाइल का परीक्षण नहीं करें। उधर पाकिस्तान द्वारा इस मिसाइल के परीक्षण से घबड़ाना स्वाभाविक था। हालांकि उसने भी चीन से साढ़े नौं सौ किलोमीटर दूर तक मार करने वाली एम-11 मिसाइल हासिल कर ली है, लेकिन इसकी चर्चा वह नहीं करता। अमेरिका और पाकिस्तान द्वारा पृथ्वी मिसाइलों की तैनाती को लेकर व्यक्त चिन्ताओं और विरोधी बयानों के बाबजूद भारतीय विदेश मन्त्री ने गत रविवार (4 फरवरी) को दोनों देशों को यह साफ बता दिया कि भारत पृथ्वी मिसाइलों की तैनाती नहीं रोकेगा।
पृथ्वी मिसाइल का विरोध अमेरिका और पाकिस्तान अपने-अपने कारणों से कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका ने भारत के मिसाइल कार्यक्रम का विरोध यह कहकर किया है कि इससे पृथ्वी पर मिसाइलों का प्रसार बढ़ेगा। जबकि पाकिस्तान का पृथ्वी मिसाइलों से आतंकित होना स्वाभाविक है। अमेरिका कह रहा है कि भारत और पाकिस्तान दोनों को एक-दूसरे के जवाब में मिसाइलें नहीं तैनात करनी चाहिए। लेकिन दक्षिण एशिया में मिसाइलें तैनात करने की तैयारी आज से नहीं चल रही है। पाकिस्तान ने तो तीन साल पहले ही चीन की एम-11 मिसाइलें तैनात कर ली, जबकि भारत अभी इसका अपने यहां परीक्षण ही कर रहा है। निःसन्देह भारत अब इसका उत्पादन शुरू करने की स्थिति में आ गया है, इसलिएहाल ही में भारत पर अमेरिका ने यह दवाव तेज कर दिया कि भारत को मिसाइलें नहीं तैनात करनी चाहिए। निःसन्देह दक्षिण एशिया के हथियार भण्डार में मिसाइलों का समावेश इस क्षेत्र की समर स्थिति को एक नया
आयाम देगा, लेकिन अमेरिका को यह सोचना चाहिए कि इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है
अपने बहुमूल्य आर्थिक संसाधनों की कीमत पर अपने सैन्य भण्डार को कोई देश किसी मजबूरी में ही समृद्ध करता है। हालांकि भारत की मजबूरी को अमेरिका भी भलीभांति समझता है, लेकिन उसकी सामरिक अवधारणा यह मांग करती है कि एक स्वतन्त्र विचारों वाला भारत अमेरिका के सामरिक हितों की पूर्ति नहीं करेगा और भविष्य में भारत यदि मिसाइलों और परमाणु क्षमता से लैस हो गया तो उसके सामरिक हितों को चुनौती देने की स्थिति में भी हो सकता है। इसलिए मिसाइल प्रसार का बहाना लगाकर अमेरिका भारत की मिसाइल विकास क्षमता को अभी से ही अवरुद्ध करना चाहता
भारत ने मिसाइलों के विकास की योजना तब बनाई जब नौवें दशक के पूर्वार्द्ध में अमेरिका काफी अधिक पाकिस्तान परस्त हो गया था और उसे कई प्रकार की आर्थिक सैन्य सहायता देनी शुरू कर दी। नौंवे दशक के पूर्वार्द्ध में ही अमेरिका ने पाकिस्तान को अत्यधिक संहारक लड़ाकू विमान एफ-16 प्रदान किए, तो मजबूरन भारत ने भी फ्रांस से मिराज-2000 और तत्कालीन सोवियत संघ से मिग-29 लड़ाकू विमान हासिल किए। तब अमेरिका ने पाकिस्तान को ये हथियार यह कहकर दिए थे कि इनका उपयोग अफगानिस्तान में तैनात सोवियत फौजों से लड़ने के लिए हैं। भारत ने तब पाकिस्तान को एफ-16 विमानों की आपूर्ति का कड़ा विरोध किया था। वास्तव में दक्षिण एशिया में हथियारों की होड़ तेज करने के लिए अमेरिका का यह कदम ही जिम्मेदार है जिससे भारत ने भी अपनी सैन्य क्षमता को मिसाइल क्षमता से समृद्ध करने को विवश हु
उन्हीं दिनों पाकिस्तान ने अमेरिका और पश्चिम यूरोपीय देशों की मदद से गोपनीय तौर पर परमाणु बम बनाने की जी-तोड़ कोशिश शुरूकर दी थी। यह तब जगजाहिर हो चुका था, लेकिन अमेरिका व पश्चिम यूरोपीय देशों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि तब अम्रीकी सामरिक हितों की पाकिस्तान पूर्ति कर रहा था। आज भी पाकिस्तान यूरोपीय देशों से अपने परमाणु शस्त्र कार्यक्रम के लिए उपकरण और कलपुर्जे चोरी-छिपे मंगा रहा है। गत पांच फरवरी को ही स्वीडन की एक फर्म से परमाणु संयन्त्र के लिए पाकिस्तान जा रहा उपकरणों को एक बक्सा लन्दन हवाई अड्डे पर पकड़ा गया है। इससे पता चलता है कि किस तरह यूरोपीय कम्पनियां पाकिस्तान को अभी भी परमाणु शस्त्र क्षमता हासिल करने में मदद दे रही हैं जबकि रोचक बात यह है कि स्वीडन परमाणु अप्रसार का सबसे बड़ा प्रचारक है।
क्या अमरीकी प्रशासन को यह सब नहीं मालूम है? वास्तव में पाकिस्तान अमेरिका का एक घोषित पिछलग्गू देश बनकर उभर चुका था। अफगानिस्तान में सोवियत मौजूदगी को खत्म करने के लिए अमेरिका और पाकिस्तान का गठजोड़ इस तरह विकसित हो चुका था कि अमेरिका ने वास्तव में पाकिस्तान को गोपनीय तौर पर परमाणु बम बनाने की क्षमता विकसित करने दी। नौवें दशक में दक्षिण एशिया में भारतीय हितों के खिलाफ अमेरिका और पाकिस्तान का यह गठजोड़ किसी से छिपानहीं था। मजबूरी में अपनी सामरिक ताकत भी मजबूत करने के लिए तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने मिसाइल विकास कार्यक्रम की शुरुआत सन् 1983 ई. में की। इसके लिए अन्तरिक्ष विभाग में कार्यस्त वैज्ञानिक डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को उन्होंने चुना और उन्हें कहा कि पांच सालों के अन्दर पांच प्रकार की मिसाइलों का विकास करें। इसके लिए तब 387 करोड़ रुपये का कोप मिसाइल विकास कार्यक्रम के लिए मुहैया कराया गया। डॉ. अब्दुल कलाम ने यह दायित्व पांच साल में पूरा कर दिखाया और भारत को पांच प्रकार की मिसाइलें बनाकर दीं। ये मिसाइलें हैं-अग्नि, पृथ्वी, नाग, त्रिशूल और आकाश।
भारत की इन मिसाइल विकास योजनाओं से सहम कर नौवें दशक के आरम्भ में ही अमेरिका ने छह अन्य विकसित देश इटली, जापान, कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस के साथ एम. टी. सी. आर. नामक एक ऐसी व्यवस्था की जिससे भारत जैसे विकसशील देशों को मिसाइलों के विकास से सम्बन्धित तकनीक और उपकरणों का निर्यात कोई देश नहीं करें। मिसाइल तकनीक प्रसार पर रोक व्यवस्था (एम. टी. सी. आर.) सन् 1987 ई. में सम्पन्न हुई, लेकिन भारत ने इसके बावजूद फरवरी, सन् 1988 ई. में पृथ्वी मिसाइल का पहला सफल परीक्षण कर पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया
तब से आज तक पृथ्वी के 15 परीक्षण हो चुके हैं। शुरू में भारत ने पृथ्वी की 150 किलोमीटर दूर तक मार करने वाली किस्म का सफल परीक्षण किया और उन्हें थल सेना को उपयोग के लिए साँप भी दिया। थलसेना ने इस मिसाइल के संचालन और रखरखाव के लिए 333 मिसाइल ग्रुप का गठन भी कर लिया है। थलसेना को सफलतापूर्वक यह मिसाइल सौंपने के बाद भारत ने पृथ्वी की मारक दूरी बढ़ाकर इसे भारतीय वायुसेना के उपयोग के लिए विकसित किया और इसका पहला परीक्षण भी सफल रहा। वायुसेना के लिए पृथ्वी की मारक दूरी 250 किलोमीटर होगी। पृथ्वी के इस पहलू से ही पाकिस्तान में घबराहट फैली है। 250 किलोमीटर दूर तक मार करने वाली पृथ्वी पाकिस्तान के वायुसैनिक अड्डों को युद्ध शुरू होने के कुछ घण्टों में ही तहस-नहस करसकती है। पृथ्वी की वायुसैनिक किस्म में यह क्षमता होगी कि यह पाकिस्तान की वायुसेना को पूरी तरह पंगु बना दे। इस मिसाइल से न केवल पाकिस्तान के वायुसैनिक अड्डे तबाह हो सकते हैं, बल्कि पाकिस्तानी वायुसैनिक अड्डों पर बंकरों में रखे हुए लड़ाकू विमानों को भी पृथ्वी मिसाइलों की अचूक मार से तबाह किया जा सकता है। इसके साथ ही सीमा के अन्दर स्थित पाकिस्तान के महत्त्वपूर्ण थल सैनिक जमावड़े को भी तहस-नहस किया जा सकता है।
इन पृथ्वी मिसाइलों की सबसे बड़ी खासियत यह होगी कि इसे सचल वाहनों पर तैनात किया जा सकता है। इसलिए अमरीकी उपग्रह यह नहीं बता सकते कि पृथ्वी मिसाइलें कहां पर तैनात हैं? पृथ्वी मिसाइलों को जब भारतीय सेनाओं को उपयोग में लाना होगा तो उसे सचल वाहनों पर बाहर लाकर दुश्मन के इलाके में कुछ मिनटों के अन्दर छोड़कर उसे बंकरों में छुपा दिया जा सकता है। पृथ्वी मिसाइल ऐसी हैं जिसे फायर एण्ड फारगेट मिसाइल कहते हैं अर्थात् 'दागो और भूल जाओ।' एक बार छूट जाने के बाद यह मिसाइल 250 किलोमीटर दूर स्थित अपने लक्ष्य पर ही जाकर गिरेगी। इस मिसाइल में एक हजार किलोग्राम वजन के विस्फोटक रखें।
जा सकते हैं। ये विस्फोटक कई प्रकार के हो सकते हैं जो दुश्मन के इलाके में कई प्रकार से तबाही मचा सकते हैं। इन विस्फोटकों में इनसेनडियरी बम होते हैं जो ज्वलनशील होते हैं और लक्ष्य के ऊपर आसमान में ही आग की लपटों में बदल जाते हैं। फलस्वरूप आग की गर्मी से उस इलाके में भयंकर आगज़नी हो सकती है। इसके साथ ही पृथ्वी मिसाइलों के सिर पर छोटे-छोटे आकार वाले मुनीटन बम के विस्फोटक शीघ्र भी रखे जा सकते हैं जो एक इलाके में गिरकर कई वर्ग किलोमीटर इलाके में तबाही मचा सकते हैं।
पृथ्वी मिसाइलों का यही सामरिक महत्त्व है कि इनसे दुश्मन इतना खौफ खाएंगे कि वह कभी हम पर हमला करने की जुर्रत नहीं कर सकें। हालांकि भारत को भी यह मालूम है कि पाकिस्तान के पास भी चीन से हासिल एम-11 मिसाइलें हैं और युद्ध के समय एम-11 मिसाइलों का जमकर उपयोग किया जा सकता है। लेकिन भारत ने पृथ्वी मिसाइलों का विकास इसलिए किया है कि दुश्मन इन मिसाइलों से खौफ खाएं और भारत पर हमला करने की हिम्मत नहीं करें। पृथ्वी मिसाइलों का यही सामरिक महत्त्व है। भारत ने इन मिसाइलों का विकास पाकिस्तान पर हमले के लिए नहीं किया है।
वास्तव में भारत के पड़ोस में जब भारी संख्या में बैलिस्टिक मिसाइलें तैनात हो चुकी हों तब भारत किसी का यह उपदेश सुनने को बाध्य नहीं हो सकता कि मिसाइलें बनाने से संहारक मिसाइलों का प्रसार जो क्षेत्र के स्थायित्व के लिए ठीक नहीं होगा। अमरीकी कहते हैं कि मिसाइलों की तैनाती से दक्षिण में एक नए प्रकार का तनाव विकसित होगा। लेकिन यही बात पाकिस्तान पर भी लागू होती है। भारत के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी पाकिस्तान ने जिस गति से इन मिसाइलों को तैनात किया और अमेरिका यही कहता रहा कि उसके पास इसके समुचित सबूत नहीं है, इससे भारत में अमरीकी इरादों को लेकर सन्देह होना स्वाभाविक है। भारतीय मिसाइल कार्यक्रम पर तो उंगलियां उठाई जाती रही हैं लेकिन भारत के प्रतिद्वन्द्वी देश जिस गति से ऐसी बैलिस्टिक मिसाइलें तैनात करते जा रहे हैं, उनके बारे में केवल चिन्ता व्यक्त कर ही अमरीकीप्रशासन, सन्तोष कर लेता है। चीन ने पाकिस्तान को अब तक 84 एम-11 मिसाइलों की आपूर्ति कर दी है। चीन इनकी मारक दूरी तीन सौ किलोमीटर से कम बताकर मिसाइल प्रसार की गम्भीरता कम कर पेश करना चाहता है और चीन भी यही कहता है कि एम-11 मिसाइलों की आपूर्ति कर उसने किसी अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं किया है। 'रोचक बात यह है कि अमेरिका भी चीन और पाकिस्तान के इन कथनों पर विश्वास कर एम-11 मिसाइलों की गम्भीरता कम कर पेश करना चाहता है, लेकिन भारत की 150 से 250 किलोमीटर दूर तक मार करने वाली मिसाइलों पर अनावश्यक चिन्ताएं व्यक्त करता रहा है। खासकर तब जब भारत की पृथ्वी मिसाइलें मिसाइल तकनीक के प्रसार पर रोक वाली विश्व व्यवस्था एम. टी. सी. आर. का कतई उल्लंघन नहीं करती हैं।
पृथ्वी मिसाइलों का सफल परीक्षण 22 फरवरी, सन् 1988 ई. को, हुआ था और तब से अब तक इसे विकसित न करने तथा इसकी तैनाती रोकने के लिए सीधा और अप्रत्यक्ष दवाब भारत सरकार पर पड़ता रहा है। इसके परीक्षण और तैनाती को लेकर भारतीय संसद में भी काफी चर्चाएं हुई हैं, लेकिन भारत सरकार ने दृढ़तापूर्वक इस मिसाइल के परीक्षण का काम जारी रखा है। अब भारतीय थलसेना पृथ्वी मिसाइलों से लैस होगी तो भारतीय सेनाओं में एक नए आत्मविश्वास का संचार होगा। भारत के प्रतिद्वन्द्वी देश जब वैलिस्टिक मिसाइलों से लैस हों और भारतीय सेनाएं इससे वंचित हों तो यह निश्चय ही युद्धकाल में भारतीय सेनाओं का मनोबल तोड़ने वाला साबित होगा। खाड़ी युद्ध में हम देख ही चुके हैं। किस तरह इराक की स्कड मिसाइलों ने सउदी अरब और इस्राइल की सम्पूर्ण आबादी में दहशत पैदा कर दी थी और सम्पूर्ण बहुराष्ट्रीय सेना एक अलग किस्म के खौफ में आ गई थी। इराक की स्कड मिसाइलों से बचने के लिए अन्ततः अमेरिका को पैट्रियट मिसाइलों को तैनात करना पड़ा था
इसी परिप्रेक्ष्य में पृथ्वी मिसाइलों का सामरिक महत्त्व समझा जा सकता है। जब तक अमेरिका को लग रहा था, कि भारत इस तरह की।उच्च तकनीक वाली मिसाइल का विकास करने में सफलता हासिल नहीं. कर सकता तब तक वह अधिक चिन्तित नहीं था, लेकिन इसके साथ ही उसने पाकिस्तान द्वारा एम-11 मिसाइलें तैनात करने की कोशिशों को नज़रअन्दाज कर दिया। अब जब कि पृथ्वी मिसाइलें एक वास्तविकता है तो अमेरिका और पाकिस्तान एक साथ कहने लगे हैं कि दक्षिण एशिया में मिसाइलों की दौड़ रोकने के लिए भारत और पाकिस्तान को आपस में बातचीत करनी चाहिए। स्वयं पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री बेनजीर भुट्टो को भी होश आया और उन्हें भी मिसाइलों का प्रसार क्षेत्र की शान्ति और स्थायित्व के लिए काफी खतरनाक लगने लगा है-इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि वह भारत के साथ मिसाइलों का प्रसार रोकने के लिए
बातचीत करने को तैयार हैं। लेकिन भारत ने पृथ्वी मिसाइलों का विकास क्यों किया? इसके विकास और तैनाती के पीछे भारत की क्या मानसिकता है? भारत इस तरह का विध्वंसक हथियार बनाने को क्यों विवश हुआ? इन कारणों से अमेरिका और पाकिस्तान दोनों अवगत हैं। जब तक इन कारणों जैसे कश्मीर में पाकिस्तानी हस्तक्षेप और पाकिस्तानी समर्थित आतंकवाद को खत्म करवाने का आश्वासन भारत को अमेरिका से नहीं मिलता, भारत सामरिक रूप से अपने को असुरक्षित महसूस करता रहेगा तब तक अपनी सेनाओं और देशवासियों में सुरक्षा का विश्वास पैदा करने के लिए भारत अपनी सैन्य तैयारी में ढील नहीं दे सकता।
रुकावटे
न केवल पृथ्वी मिसाइल की तैनाती से रोकने के लिए अमेरिका सहित विकसित देशों के गुट ने भारत पर दबाव डाला है, बल्कि भारत को परमाणु शस्त्र क्षमता से वंचित करने के लिए एक ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय षड्यन्त्र किया है जिस पर नैतिकता और संहारक हथियारों का प्रसार रोकने के खिलाफ एक सैद्धान्तिक कदम का जामा पहनाया गया है। इन दिनों जेनेवा में 38 देशों की एक अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु वार्ता चल रही है जिसमें अमेरिका और विकसित देश यह भरसक कोशिश कर रहे हैं किभारत जैसे देश परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (सी. टी. बी. टी.) पर हस्ताक्षर कर दें और इस तरह हमेशा के लिए भारत स्वयं अपना यह अधिकार त्याग दे कि भारत परमाणु हथियार नहीं विकसित कर सके।
भारत कतई परमाणु हथियारों जैसे संहारक हथियारों का विकास नहीं करना चाहता, लेकिन भारत अपना यह अधिकार भी नहीं खोना चाहता कि भविष्य में यदि जरूरत पड़े तो ऐसा नहीं कर सके। परमाणु परीक्षण कभी नहीं करने का वचन देकर भारत अपनी सैन्य क्षमता को इस महत्त्वपूर्ण आयाम से वंचित कर देगा। एक ओर जबकि विकसित देश अपनी सैन्य परमाणु क्षमता को और विकसित करने के लिए प्रयोगशाला परीक्षण कर रहे हैं और अपने वर्तमान परमाणु शस्त्र भण्डार को और समृद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत जैसे देशों से कहा जा रहा है कि परमाणु हथियारों का विकास विश्व शान्ति के लिए ठीक नहीं है। अर्थात् व परमाणु हथियारों पर अपनी बपौती जारी रखना चाहते हैं और दूसरे देशों के परमाणु कार्यक्रम को विश्व शान्ति के लिए घातक बता रहे हैं
भारत ने अमेरिका व विकसित देशों के इसी रवैये का विरोध किया है और कहा है कि परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (सी. टी. बी. टी.) पर हस्ताक्षर के पहले विकसित देश यह वचन दें कि वे अपने वर्तमान परमाणु शस्त्र भण्डारों के उन्मूलन के लिए एक निश्चित समयावधि बताएं, लेकिन अमेरिका ने भारत के इस आग्रह को ठुकरा दिया
भारत पर यह दबाव पड़ रहा है कि भारत विकसित देशों के कहे अनुसार सी. टी. बी. टी. पर हस्ताक्षर कर दे। अर्थात् भारत अपना परमाणु विकल्प को तो छोड़ दे, लेकिन अमेरिका और विकसित देशों को यह अधिकार दे दे कि वे न केवल सैकड़ों बल्कि हज़ारों हजार परमाणु हथियार रख सकें। उनका परमाणु हथियार क्या विश्व शान्ति में खलबली पैदा करेगा। यह कैसा तर्क है? रोचक बात यह है कि अमेरिका और अन्य देशों के इस रवैये का भारत के साथ-साथ पाकिस्तान ने भी विरोध किया है। इस मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान में एकमत होना जहां भारतीय राजनयिकों के लिए आश्चर्य पैदा करता है वहीं विकसित देशों के लिए भी यह विस्मयकारी है।
जेनेवा में 38 देशों की वार्ता में 21 विकासशील देशों का एक ऐसा समूह बन चुका है जो परमाणु परीक्षणों को लेकर अमरीकी रवैये का विरोध कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि यह कहां का न्याय है कि फ्रांस जैसे देश इस सन्धि के पहले छह परमाणु परीक्षण करें और विश्व से कहें कि अब वह सी. टी. बी. टी. पर तैयार हैं। फ्रांस ने परमाणु परीक्षण रोकने की घोषणा कर दी तो अमेरिका और विकसित देशों से ऐसी प्रतिक्रिया आई कि जैसे फ्रांस ने परमाणु परीक्षण रोककर विश्व समुदाय पर भारी कृपा कर दी हो।
सी. टी. बी. टी. सन्धि के पहले फ्रांस ने तो छह परमाणु परीक्षण कर लिए, लेकिन अब चीन कह रहा है कि उसे शान्तिपूर्ण परमाणु परीक्षण करने का हक मिलना चाहिए। अर्थात् वह अपने लिए यह अधिकार सुरक्षित रखना चाहता है कि अपने परमाणु शस्त्रागार को और - समृद्ध करने के लिए परमाणु परीक्षण करता रहे। अमेरिका ने तो अपने परमाणु हथियारों की मारक क्षमता बरकरार रखने के लिए ऐसे परमाणु परीक्षण करने की योजना बनाई है जिसे जीरो यील्ड टेस्ट कहते हैं।
कुल मिलाकर परमाणु हथियारों से लैस देश अपने परमाणु हथियारों के भण्डार को न केवल सुरक्षित रखना चाहते हैं बल्कि उन्हें और समृद्ध करना चाहते हैं और वे भारत से कह रहे हैं कि परमाणु परीक्षण रोकने के लिए सन्धि पर हस्ताक्षर कर दे। स्वाभाविक है कि भारत ने इस सन्धि को भेदभावपूर्ण बताया है और इस पर हस्ताक्षर के पहले यह शर्त लगाई है कि विकसित देश अपने परमाणु हथियारों के भण्डार को निर्मूल करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम घोषित करें।
अग्नि मिसाइल
हालांकि भारत ने पृथ्वी मिसाइलें तैनात न करने के लिए अमरीकी दबावों को नहीं माना, लेकिन इस आरोप को गलत नहीं ठहराया जा सकता कि भारत ने अमरीकी दबावों के कारण ही जमीन से जमीन पर 2,500 किलोमीटर दूर तक मार करने वाली अग्नि मिसाइल का आगे का परीक्षणरोक दिया है। अग्नि का तीसरा परीक्षण सन् 1993 ई. में हुआ था और इसके बाद सरकार ने यह कहकर इसके आगे का परीक्षण अब तक नहीं किया कि अग्नि एक तकनीक प्रदर्शक मिसाइल थी। अर्थात् भारत ने दुनिया को केवल यह बताने के लिए इस मिसाइल का परीक्षण किया कि भारत इस तरह की मिसाइल को विकसित करने की तकनीक रखता है।
यद्यपि सरकारी सूत्र कहते हैं कि भारत ने अग्नि के परीक्षण और तैनाती के विकल्प को बन्द नहीं किया है और इसका प्रयोगशाला अध्ययन जारी है, लेकिन अब यह आम धारणा बन चुकी है कि भारत ने अग्नि मिसाइल को ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। रक्षा पर्यवेक्षक कहते हैं कि भारतीय वैज्ञानिकों ने अथक शोध प्रयासों के बाद उच्च तकनीक वाली इस मिसाइल का विकास किया, लेकिन अब आगे इस मिसाइल पर काम बन्द कर देने से भारत की यह क्षमता बेकार भी जा सकती है
पर्यवेक्षक कहते हैं कि भारत के पास अग्नि मिसाइल की क्षमता से अमेरिका विशेषतौर पर चिन्तित था। इसलिए उसने भारत पर दबाव डालकर अग्नि के विकास का काम रुकवाने में सफलता पा ली है। पर्यवेक्षक कहते हैं कि अग्नि मिसाइलों की पाकिस्तान के खिलाफ विशेष उपयोगिता नहीं है क्योंकि पाकिस्तान के लिए पृथ्वी मिसाइल ही काफी है, लेकिन कई पर्यवेक्षकों का यह भी मानना है कि भारत को अग्नि- मिसाइल का विकास और तैनाती चीन की सामरिक सन्दर्भ में करनी चाहिए, लेकिन अग्नि और पृथ्वी के अलावा भारत ने तीन अन्य प्रकार की जिन मिसाइलों का विकास किया है उनसे भारतीय सेनाओं की रक्षात्मक क्षमता में भारी वृद्धि होगी। इन दोनों मिसाइलों के अलावा भारतीय रक्षा वैज्ञानिकों ने जमीन से आसमान में मार करने वाली त्रिशूल मिसाइलों का विकास किया है इनका सफल परीक्षण भी हो चुका है और इनका शीघ्र उत्पादन भी शुरू होने वाला
त्रिशूल के बाद जमीन से आसमान में मार करने वाली जिस अन्य महत्त्वपूर्ण मिसाइल का भारत ने विकास किया है वह आकाश मिसाइल - है। आकाश मिसाइल जमीन से आसमान में 25 किलोमीटर दूर तक मार कर सकती है। रक्षा अधिकारी दावा करते हैं कि आकाश मिसाइल मेंअमरीकी पैट्रियट जैसी क्षमता है। अर्थात् यह किसी हमलावर बैलिस्टिक मिसाइल को बीच आसमान में ही रोककर उसका नाश कर सकती है। आकाश मिसाइल का विकास अब अन्तिम चरणों में है और इसका सफल परीक्षण हो चुका है।
भारत की पांचवीं महत्त्वपूर्ण मिसाइल है टैंक नाशक मिसाइल नाग । यह मिसाइल नवीनतम पीढ़ी की मिसाइल है और उसमें दुश्मन के किसी भी बख्तरबन्द वाहन या टैंक का विनाश किया जा सकता है। यह मिसाइल किसी हेलीकाप्टर से छोड़ी जा सकती है और इसकी मारक दूरी चार किलोमीटर दूर तक है। इस तरह भारत ने पांच प्रकार की मिसाइलें, अग्नि, पृथ्वी, त्रिशूल, नाग और आकाश का सफल विकास कर लिया है और इनमें से अग्नि को छोड़कर शेष चारों मिसाइलों से भारतीय सेनाएं शीघ्र ही लैस होने जा रही हैं। इनके अलावा भारतीय मिसाइल विकास वैज्ञानिकों की दो अन्य महत्त्वाकांक्षी विकास परियोजनाएं हैं। ये हैं आसमान से आसमान में ही मार करने वाली मिसाइल अस्त्र जो 60 से अस्सी किलोमीटर दूर उड़ रहे किसी हमलावर लड़ाकू विमान को मार गिरा सकती है। अस्त्र के अलावा भारत ने समुद्र से पनडुब्बी के भीतर से छोड़ी जाने वाली बैलिस्टिक मिसाइल सागरिका के विकास की भी महत्त्वाकांक्षी योजना को लागू करना शुरू किया है।